(बहुत दिनों से हमारे कबाड़ी सुशोभित सक्तावत अपने इस अड्डे से नदारद थे. उन्होंने कबाड़ख़ाने के वास्ते हमारे वरिष्ठ कवि चन्द्रकान्त देवताले जी की एक कविता भेजी है. यह रहा सुशोभित का भेजा नोट और नीचे कविता:)
कवि चंद्रकांत देवताले की यह अद्भुत कविता मुझे हाल ही में डाक से प्राप्त हुई। स्वयं कवि ने इसे इस नोट के साथ मुझे भेजा कि वे तो भूल भी चुके थे कि उन्होंने कभी यह कविता लिखी थी, लेकिन मुझसे हुई एक चर्चा के बाद उन्हें यह याद हो आई। यह कविता उनके संकलन ‘पत्थर की बेंच’ में शामिल की गई थी। इसे कबाडख़ाना पर देखकर मुझे अच्छा लगेगा।
साथ में देवतालेजी का एक पुराना फोटो भी भेज रहा हूं। यह भी उन्हीं से मिला है।
सुशोभित।
चंद्रमा किसी से नहीं छीन सकता उसका पागलपन
कवि जहाज पर हिचकोले खा रहा है
और उसकी आंखों में एक औरत
समुद्र में नहा रही है।
समुद्र में नहाती हुई औरत
अपने घर की खिडक़ी से देख रही है
एक आदमी कविता लिखते हुए
समुद्र में डूब रहा है।
सारे दिन वह डेक पर रहा जूतों समेत
और जहाज भी उसके लिए एक जूता ही था
पानी पर फिसलता हुआ।
सारी रात वह जूते छिपाती रही
पर चांदनी इतनी थी
आंसू तक छिपाना संभव नहीं था।
उसकी आंखें समुद्र में गोते लगाती रहीं
और वह हवा और धूप में
अतीत को ढूंढता रहा।
औरत के कपड़े आकाश में सूख रहे थे
और एक चिडिय़ा ने कहा
ये कपड़े मुझमें सूख रहे हैं।
वह जहाज से देखता रहा यह छत से
स्मृतियां चांदनी में बिछी हुई थीं
समुद्र के गृह प्रवेश की प्रतीक्षा में।
न तो वह जहाज पर है न यह छत पर
दोनों भगा रहे हैं बिल्ली की तरह
कमरे में घुसी चांदनी।
दोनों के भीतर का पानी
सिर के ऊपर से बह रहा है
चंद्रमा किसी से भी नहीं छीन सकता
उसका पागलपन।
बादामी घोड़े की मांसपेशियों पर
फिसलती चांदनी
गिरफ्तार कर रही है रफ्तार को
दोनों भौंचक होकर देख रहे
उड़ते घोड़े का थम जाना।
चांदनी का झाग औरत के मुंह में
घोड़े की रास खींचते-खींचते
आदमी पसीना-पसीना।
दरअसल चंद्रमा लड़ा रहा दोनों को
किसी एक को सताकर
दूसरे को चुपचाप सितार-सा बजा रहा।
दोनों ही झपट रहे चंद्रमा पर
थोड़ा-थोड़ा चंद्रमा हथियाना
किसे नहीं अच्छा लगता।
दोनों परेशान हैं परस्पर पिलाने को
चंद्रमा के चूर्ण से बनाया शरबत
ईश्वर जाने कैसे क्या होगा?
चंद्रमा तो आकाश में है सही सलामत
खंडन करता हुआ
समुद्र तथा इन दोनों के बीच की
खींचतान के बारे में
अपनी किसी भूमिका का
गहरी नींद में है थका समुद्र
ये दोनों भी जुड़वा पत्थरों की तरह सोये
आधे रेत में छिपे आधे चमकते चांदनी में
5 comments:
चांदनी का झाग औरत के मुंह में
घोड़े की रास खींचते-खींचते
आदमी पसीना-पसीना।
समझने की कोशिश कर रहा हूं।
वाह, कितने मोड़ों से गुजरती रचना।
चंद्रमा ने रिश्वत ली थी यह सब करने के लिए
GREAT EXPRESSIONS....
गहरी नींद में है थका समुद्र
ये दोनों भी जुड़वा पत्थरों की तरह सोये
आधे रेत में छिपे आधे चमकते चांदनी में....
लाज़वाब प्रस्तुति..
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