Thursday, July 7, 2011

गणेश हलोई से साक्षात्कार - 2

(पिछली किस्त से जारी)


गणेश हलोई: निश्चितता के कारण आप एक ही जगह पर अटक जाते हैं क्योंकि हर चीज़ बहुत तय और नियत हो जाती है. और अगर अनिश्चितता दुबारा न आए तो हम गतिहीन बन जाते हैं. निश्चितता से अनिश्चितता की यात्रा ही जीवन को आनन्ददायक बनाती है. तब पुनः निश्चितता अनिश्चितता की जगह ले लेती है क्योंकि आपने कुछ उत्तर खोज लिए होते हैं. और फिर वही प्रक्रिया शुरू हो जाती है. किसी चक्र की तरह. अगर ऐसा अनवरत न चलता रहे तो जीवन में गति कहां से आएगी?

यह प्रक्रिया आपकी पेन्टिंग्स में भी देखी जा सकती है.

गणेश हलोई: मेरे पुराने काम के कुछ तत्व मेरे बाद के काम में पाए जाते हैं पर वह किसी दोहराव की तरह नहीं.

पुनर्सन्धान ... उसी चीज़ का फिर से सन्धान करना.

गणेश हलोई: एक ही चीज़ को दस अलग अलग कोणों से देखा जा सकता है. अगर आप दिन के समय ऊपर की मंज़िल पर की मेरी खिड़की से बाहर देखेंगे तो आप पेड़ और परिन्दे देख सकते हैं. आप एक लैन्डस्केप देख सकते हैं. उस खिड़की से मैंने इतनी सारी पेन्टिंग्स बनाई हैं मगर कोई भी दो एक जैसी नहीं हैं. किसी ने आपके वास्ते नियम नहीं बनाए हुए हैं. आपको किसी ने कोई निश्चित चीज़ पेन्ट करने को नहीं कहा हुआ है. प्रकृति मौलिक होती है. उसकी नकल मत करो. तमाम महान कलाकारों ने प्रकृति के चित्र बनाए हैं पर उसकी नकल नहीं की है. दा विन्ची, माइकेलएन्जेलो को देखो. माइकेलएन्जेलो ने प्रकृति की नकल नहीं की. उसने उसकी अपनी व्याख्या को पेन्ट किया; उसने उसे वह अनुभूति दी जो उसके विषय ने उसके भीतर पैदा की थी. उसकी शैली यथार्थावादी हो सकती है पर आपने उसके काम की आत्मा को देखना चाहिए. उसकी पेन्टिंग्स फ़ोटोग्राफ़ों जैसी नहीं हैं. जब आप रेम्ब्रां का काम देखते हैं, आपको आश्चर्य नहीं होता? ऐसा नहीं है कि उनमें से कोई कलाकार अच्छा है या खराब है. उनका सारा काम प्रेरणास्पद होता है.

मैंने तय किया कि मैं पश्चिमी पेन्टिंग्स और भारतीय पेन्टिंग्स को अलहदा करके नहीं देखूंगा. पेन्टिंग पेन्टिंग होती है. बहुत सारे लोग कला में इस तरक का वर्गीकरण करते हैं. वे हर तरह के किए गए काम के लिए वर्ग बना देते हैं. लेकिन आप किसी चीज़ को पश्चिमी कला और किसी को भारतीय कला नहीं कह सकते. वह किसी एक खास व्यक्ति या खास समूह का प्रयास नहीं होता. यह समाज का एक सामूहिक प्रयास होता है. सारी चीज़ें एक सम्पूर्ण की तरह घटित हुई हैं. हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते. हमें इस सब को अभिव्यक्ति के तौर पर स्वीकार करना होगा. तो इस तरह मैंने पेन्टिंग्स में कोई फ़र्क़ नहीं किया.

आपने पेन्टिंग के आवश्यक तत्वों के विषय में बातें कीं. पेन्टिंग की अपनी भाषा होती है. हम अब तक इस दर्शन पर बात करते रहे हैं कि कला क्या है. अब आप के काम की तरफ़ दृष्टि डाली जाए. आपकी पेन्टिंग के बारे में बात की जाए. पेन्टिंग्स के आम तत्वों में रंग, फ़ॉर्म, पंक्ति, स्पेस वगैरह होते हैं. मैं जानना चाहता हूं कि अपने काम में आप इनके साथ कैसा बर्ताव करते हैं? मैं आपसे एक पेन्टर की तरह बात कर रहा हूं. एक पेन्टर अपनी पेन्टिंग में संधान के उद्देश्य से एक या दो तत्वों को छांट लेता है. मिसाल के तौर पर राम कुमार कहते हैं कि वे अपनी पेन्टिंग में रंग का सन्धान करते हैं. उन्हें रंगों का रहस्य बहुत पहेलीभरा लगता है. उनके कैनवस के कम्पोज़ीशन में यह सन्धान स्पष्ट नज़र आता है. इसी तरह से, आप किस तत्व की गहराइयों में उतरा करते हैं?

गणेश हलोई: हां, निश्चित ही रंग मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. लेकिन मैं स्पेस के बारे में सोचने से शुरू करता हूं. वह वर्ग या आयत जिसे मैं भरने वाला हूं. मैं पहले स्पेस को देखता हूं. कई बार उसे देखते हुए मुझे भान होता है कि वह स्पेस ही मुझे रास्ता दिखाता है. मैं जो भी बनाता हूं वह स्पेस के हिसाब से होता है. स्पेस के भीतर ही वह जीवन शक्ति होती है. मिसाल के तौर पर कह लीजिए कि ज़मीन का एक टुकड़ा है जिस पर आप खेती करना चाहते हैं. आप उस पर खेती कैसे करेंगे? आपको तय करना होगा कि खेती का तरीका क्या होगा और किस पैटर्न पर होगा. है न. आप को बताना पड़ेगा कि मैं इस जगह पर एक पेड़ लगाऊंगा. यहां एक घर बनाऊंगा. बगीचा यहां होगा. साधारण शब्दों में कहें तो आपको स्पेस का बंटवारा करना होगा. तो मेरे लिए स्पेस का बंटवारा सबसे पहले आता है. उसके बाद मैं सोचता हूं कि मैं क्या बनाना चाहता हूं. मेरी पेन्टिंग्स आमतौर पर प्रकृति से सम्बन्धित होती हैं. लेकिन मेरी पेन्टिंग देखकर कोई भी यह नहीं कह सकता कि वह एक आत्मपरक फ़िगरेटिव कम्पोज़ीशन है. वह कहेगा कि पेन्टिंग लैन्ड्स्केप जैसी दिखाई पड़ती है. लेकिन यह साम्य 'जैसा है' नहीं होता. कोई चीज़ एक सी ज़रूर है लेकिन यह फ़क़त बाहरी आकृति भर ही नहीं है. मेरा प्रयास रहता है कि मैं किसी उस चीज़ को पेन्ट करूं जिसे मैंने प्रकृति से पाया लेकिन जो प्रकृति जैसी नहीं है. मैं एक ऐसी ज़मीन पेन्ट करता हूं जो मेरी होती है.

यह मेरी ज़मीन है. मेरे नियम-कानूनों के साथ. मैंने इस ज़मीन की सर्जना की है. इसका प्रकृति के साथ कोई साम्य नहीं है. यह इस ज़मीन की रचना करने का संघर्ष होता है जो पेन्टिंग की प्रक्रिया को दिलचस्प बनाता है. विषय के साथ स्पेस के तनाव को बरकरार रखना होता है. पेन्टिंग का एक और महत्वपूर्ण आयाम होता है - लय. कोल्टे सर की पेन्टिंग्स को देखिए. उनमें लय है. लय के बिना कोई पेन्टिंग नहीं हो सकती. लय के बिना जीवन भी नहीं होता. जैसा कि मैंने कल कहा था कि जीवन का आनन्द तभी लिया जा सकता है जब उसमें लय हो. अगर लय नहीं है तो उसका कोई मतलब नहीं. संगीत में, चलने में, बोलने में लय होती है - इसी तरह पेन्टिंग में भी लय होनी चाहिए. तो मैं कैसे पहुंचा लय तक?

एक आदिम मानव के बारे में सोचो. जीवन एक संघर्ष था. मनुष्य वनों से डरते थे. इसी वजह से वे मकान नहीं बना पाते थे. वे गुफा जैसी किसी जगह पर शारण ले लिया करते थे. वे हमेशा किसी खौफ़ से भरे रहते थे. उन्हें प्रकृति के साथ एक सतत युद्ध लड़ना होता था. लेकिन भोजन के लिए उन्हें तब भी शिकार पर जाना होता था. वह एक उत्तेजनापूर्ण घटना होती थी. सो उन्होंने उसके चित्र बनाए. इन के कुछ हिस्से बहुत अच्छे हैं कुछ नहीं हैं. लेकिन हमें पूछना चाहिए कि इस से उन्हें क्या मिलता था. वह उन तक बड़े नैसर्गिक रूप से पहुंची. ढोने के लिए उनके पास और कोई बोझा नहीं था. ... उनके लिए वह अभिव्यक्ति का एक माध्यम था, अपने अनुभवों, भयॊं, चिन्ताओं और खुशियों को औरों तक पहुंचा पाने का तरीका. लेकिन उन्होंने ड्रॉइंग और चित्र बनाना कैसे सीखा?

प्रकृति से, इस ब्रह्मांड से. इस ब्रह्मांड के भीतर एक निश्शब्द गति हुआ करती है - एक निश्शब्द गति जिस पर हम अपने अचेतन के माध्यम से प्रतिक्रिया देते हैं. यह इसी वजह से था कि दिन का मिजाज़ देख कर आदमी यह बता पाने में सक्षम था कि उस दिन बारिश होगी या नहीं. आकाश, पेड़, सब कुछ अन्तर्बोध के माध्यम से जाने जाते थे. इन्स्टिंक्ट ही वह चीज़ है जो अब तकरीबन विलुप्त हो चुकी है. इस अन्तर्बोध के आधार पर ही हम अगले दिन की घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी कर सकते थे. प्रकृति से हमने इसी अन्तर्बोध को पाया था. हमें प्रकृति ने क्या सिखलाया? इस ने हमें वह खामोश आवाज़ दी जिसके भीतर से लय जन्म लेती है. हम उसे सुन नहीं सकते क्योंकि वह खामोश है, लेकिन है. लय से ही चीज़ें अपना काम कर पाती हैं. लय से ही चीज़ों का एक पैटर्न बनता है. जब हमने इस लय के प्रति अपनी देह के माध्यम से प्रतिक्रिया की, तब हम ने नृत्य करना सीखा. आदिम मानव कैसे नृत्य करता था?

... जब हमने उस ध्वनि के प्रति अपनी आवाज़ के माध्यम से रेस्पॉन्ड किया, संगीत की सर्जना हुई. और जब हमने अचरज का अनुभव किया और उसे अभिव्यक्ति देनी चाही, वक चित्रकला के रूप में सामने आया. चित्र बनाना हमने अपने आप को सिखाया है. गायन, नृत्य, पेन्टिंग - सब कुछ हम तक पहुंचा है. हमारा अभिप्राय इसी बात से होता है जब हम कहते हैं कि संस्कृति ने एक रास्ता तय किया है और हमें यहां तक पहुंचाया है. तो सारा कुछ इस तरह शुरू हुआ. आज भी जब हम कोई लयहीन चीज़ पेन्ट करते हैं तो सन्तुष्टि नहीं मिलती. लय के बिना हमें इत्मीनान नहीं मिलता. हम बेचैन महसूस करते हैं. हम एक पेन्टिंग को पूरा करते हैं और उसे अलग रख देते हैं. उसकी तरफ़ देख तक पाना भी दर्दभरा होता है यदि हम उस लय के भीतर प्रवेश न करें. कोशिश करता हूं कि मैं अधिक स्पष्टता के साथ बतला सकूं कि लय से मेरा क्या अभिप्राय है. देखिए - यह वस्तु यहां रखी हुई है. नानक वहां बैठे हैं. मैं यहां हूं और आप वहां. हमारे दरम्यान एक मेज़ है. मेज़ के ऊपर एक गिलास है, एक फूलदान है जिसमें एक फूल लगा हुआ है. अगर मैं इस सारे को एक सफ़ेद स्पेस में रखना चाहूं तो नानक को कहां रखूंगा? आपको कहां रखूंगा? इस किताब को कहां रखूंगा? यह सब कुछ स्पेस का विभाजन है. स्पेस के भीतर एक तनाव होता है, वस्तु और स्पेस के बीच, वस्तुओं के बीच, और तभी एक पहचान बनती है. यह कोई मृत चीज़ नहीं है.जब मैं किसी गतिविधि में संलग्न होता हूं, जब मैं यहां रखी किसी चीज़ का इस्तेमाल करता हूं तो एक सम्बन्ध बनता है. मैं उस के साथ हूं. तो जब मैं पेन्ट कर रहा होता हूं, उस सम्बन्ध के साथ मैं क्या करता हूं? समस्या यहीं आती है. समस्या का समाधान तभी हो सकेगा जब एक सन्तुलन स्थापित कर लिया जाएगा, जब एक लयबद्ध सामंजस्य वहां होगा. हम इसी लयबद्ध सामंजस्य के बारे में बात करना चाहते हैं, उसे अभिव्यक्त करना चाहते हैं. वरना किसी भी तरह की अभिव्यक्ति नहीं होगी. चीज़ें बनाई जा सकती हैं पर उनमें कोई अभिव्यक्ति नहीं होगी. अगर मैं तीन सीधी रेखाओं को इस तरह बनाऊं तो अंग्रेज़ी का 'एच' अक्षर बन जता है. सो मेरे विचार से एक ही समय में एक डिज़ाइन भी बन गया और एक कम्पोज़ीशन का निर्माण भी हुआ. प्रकृति नाम का यह चमत्कार असीम है. मैं इस पर यकीन करता हूं.

मैंने अपने आप से पूछा कि मैं दुनिया की हर चीज़ को कैसे देखता हूं? मैंने बचपन से आज तक क्या सीखा? जब मैं छोटा था मुझे चीज़ें कौन सिखाया करता था. मैंने अपने आप चलना सीखा ... बच्चा चलना कैसे सीखता है? जब वह एक ऊंची जगह पर बैठा होता है पहले वह हौले हौले अपने पैरों को लटकने देता है, उसके बाद पैरों से फ़र्श को छूने की कोशिश करता है और तब जाकर अन्ततः अपने पैरों पर खड़ा हो पाता है. उसे किसी ने सिखाना नहीं होता, वह बहुत सी चीज़ें अपने आप सीख लेता है. दरअसल ऐसी बहुत सारी चीज़ें हैं जिन्हें हम अपने आप सीख सकते हैं. कुछ वाह्य चीज़ें होती हैं जिन्हें हम पढ़कर सीखते हैं और कुछ ऐसी होती हैं जिन्हें प्रकृति से सीखा जा सकता है. अगर हम बाद में यह फ़ैसला लें कि अब तक सीखी गई सारी चीज़ों को भुला दें और बिल्कुल बुनियादी बातों पर पहुंच जाएं तो क्या होगा? हमारे पास प्रकृति की बुनियादी संरचनाओं के अलावा कुछ नहीं बचेगा. हम उनसे आगे नहीं जा सकते. तो ये मूलभूत संरचनाएं हैं क्या? मिसाल के लिए कोई चीज़ खड़ी है. प्रकृति में वह लम्बवत है. अगर वह चीज़ ऊर्ध्वाधर होने के लिए झुकना भी शुरू करे तो भी उसकी दिशा ऊपर की तरफ़ ही रहेगी. है न? तो यहां यह लम्बवत रेखा एक बुनियादी फ़ॉर्म बन जाती है. अगर ये झुका हुआ विकर्ण इस से जुड़ जाए तो यह किसी पेड़ की टहनी जैसा दिखने लगती है. हमने इसे देखा है; यह हमें किसी ने सिखाया नहीं है. हम इसे अपने चारों तरफ़ देखते हैं. यह प्रकृति में अस्तित्वमान है. और अब अगर यह विकर्ण इस दूसरे वाले को काटे तो यह साफ़ साफ़ किसी पेड़ जैसा दिखने लगता है. टहनियां एक दूसरे को ऐसे ही काटा करती हैं. सो प्रकृति में विकर्ण का अस्तित्व है. एक सीधी रेखा है, एक ऊर्ध्वाधर रेखा है ...

(जारी)

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