(पिछली किस्त से जारी)
हिंसक विवादों के चलते कोई भी सहज नहीं हो सकता. एक पत्रकार जो विवादों की रिपोर्टिंग करता है निष्पक्षता की एक नज़ीर स्थापित करने की मंशा रख सकता है लेकिन सामान्य मानवीय भावनाओं वाला कोई भी व्यक्ति चाहेगा कि हिंसा खत्म हो. दरअसल एक स्वतन्त्र निष्पक्षता कहीं नहीं होती और एक पत्रकार किसी स्थिति को देखता है और उसे इस तरीके से प्रस्तुत करता है जो उसकी अपनी सम्वेदना को व्यक्त करता हो. ज़्यादातर समय पत्रकार विवाद की किसी भी स्थिति का सीधा दर्शक नहीं होता और उसे अपने विचार राजकीय एजेन्सियों विशेषतः पुलिस द्वारा मुहैया कराई गई सूचनाओं अए आधार पर बनाने होते हैं. एक समय था जब ये सूचनाएं सार्वजनिक होती थीं और हर किसी के लिए उपलब्ध. दुख का विषय है कि हालिया वक्त में ये सूचनाएं लगातार विशिष्ट होती चली गई हैं.
पुलिस एक ऐसी एजेन्सी है जिसके पास कानूनी हिंसा का एकाधिकार है, उसे किसी भी विवाद को निपटाने का अधिकार है, ज़रूरत पड़े तो उसके लिए वह बल-प्रयोग भी कर सकती है. बल का प्रयोग केवल अत्यावश्यक परिस्थितियों में किया जा सकता है और वह भी कानून के दायरे में रहते हुए. जहां भी किसी आपातकालीन स्थिति में बिना पूर्वानुमति के बल प्रयोग करना पड़े यह विश्वास किया जाता है कि बाद में अनुमति ले ली जाएगी.
लोकतान्त्रिक व्यवस्था के भीतर उसके कामकाज के इस अमूर्त पाठ में पुलिस कानून का प्रतिरूप है और किसी भी विवाद में उसका हिस्सा इतना ही है कि उसे विवाद को समाप्त करना होता है. इस आदर्शवादी विचार के तहत पुलिस की यह पहचान है और वह कानून का प्रतिरूप है और एकांगी है - वह कानून की सपाट चट्टान से उकेरी गई एक पहचान भर है.
यह एक अमूर्त स्थिति है. वास्तव में जिस तरह हेम की हत्या को "माओवादी आतंक" के विरुद्ध की गई आवश्यक कार्रवाई भर बता दिया गया, मीडिया पुलिस द्वारा किए गए बलप्रयोग की वैधता की इस कसौटी को भी उठा लेना चाहता है. इसे किसी भी तरह एक नई स्थिति नहीं कहा जा सकता क्योंकि पिछले सालों से जब से शासक वर्ग के लिए "आतंकवाद" एक प्रिय जुनून बन गया है, तभी से यह इकलौता सन्देश बड़ी निर्ममता से पहुंचा है कि मीडिया ने अपने मूल कर्तव्यों से किनारा कर लिया है और उसके पास अपने पेशे की मूलभूत अवधारणाओं को स्वीकार करने के लिए ज़रा भी साहस नहीं बचा है.
१९ सितम्बर २००८ को दिल्ली पुलिस के एक विशेष प्रकोष्ठ ने, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के रियल-टाइम कवरेज के साथ जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के परिसर के नज़दीक दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के एक भीड़भाड़ वाले बाटला हाउस की चौथी मंज़िल पर मौजूद एक फ़्लैट पर छापा मारा. इस "मुठभेड़" में दो युवकों की मौत हुई जब कि एक को गिरफ़्तार कर लिया गया.
इस सशस्त्र मुठभेड़ से पहले भारत को चार महीनों में देश के मुख्य नगरों में इतने बम धमाकों की त्रासदी से गुज़रना पड़ा था. इनमें से आखिरी १३ सितम्बर २००८ को दिल्ली में हुआ था. इस घटना के दो दिन बाद "टाइम्स ऑफ़ इन्डिया" ने एक अनिष्ट की घोषणा करता हुआ सम्पादकीय छापा: "हम युद्ध की स्थिति से रू-ब-रू हैं. दिल्ली में हुए बम धमाकों की श्रृंखला जिसने ३० लोगों की जान ली और ९० लोगों को घायल कर दिया, देश के महानगरों में चार महीनों में हुआ चौथा धमाका था." भारत के लोगों ने, अख़बार ने राय देते हुए लिखा था, इस विचार को स्वीकार कर लेना चाहिए कि उन्हें अपनी कुछ स्वतन्त्रताओं को छोड़ देना होगा. एक एक आवश्यक. अल्पकालीन बलिदान होगा क्योंकि दुश्मन मानवीय स्वतन्त्रता के लिए एक महत्तर खतरा था.
यह पूछा जा सकता है कि क्या "टाइम्स ऑफ़ इन्डिया" के इस सम्पादकीय नुस्खे में प्रश्न पूछने की आज़ादी होगी और राज्य की एजेन्सियों - जिनमे पुलिस और गुप्तचर विभाग सम्मिलित हैं - से यह उम्मीद की जा सकेगी कि वे अपए कर्तव्यों को अंजाम देंगे. इस तरह का कोई स्पष्ट सुझाव तो उसमें नहीं था अलबत्ता इन एजेन्सियों के कार्यकलाप इशारा कर रहे थे कि उनकी मंशा सारे अटपटे सवालों को चुप कराने की है.
जामिया नगर की मुठभेड़ से पहले के दिनों में भारत में कार्यरत आतंकवादी सरगना को मीडिया द्वारा हैरान कर देने वाली विविधता के साथ प्रस्तुत किया गया. पहले यह भूमिका वलीउल्लाह को सौंपी गई जिसे "भारतीय मुजाहिदीन" की मुख्य प्रेरणा बतलाया गया. उसके बाद २५ वर्षीय धर्मगुरु अबू बशर कासमी का नाम आया जिसे गुज़रात पुलिस द्वारा जुलाई २००८ के अहमदाबाद धमाकों का मुख्य आरोपी मानते हुए उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में उसके घर से पकड़ा गया. एक और संस्करण के अन्तर्गत राजस्थान पुलिस द्वारा आधी रात को लखनऊ में उसके घर से गिरफ़्तार किए गए शाह्वाज़ हुसैन को मई २००८ के जयपुर धमाकिं के सिलसिले में गिरफ़्तार किया गया. इस सारे षडयन्त्र के पीछे मोहम्मद अल्ताफ़ सुबहान की उपथिति थी - जिसकी पहचान बाद में अब्दुल सुबहान कुरैशी के तौर पर की गई जिसे आतंकी हलकों में तौफ़ीक और तौकीर के नाम से भी जाना जाता था - वह सन २००६ से मीरा रोड मुम्बई के अपने घर से गायब एक कम्प्यूटर हार्डवेतर विशेषज्ञ था.
जल्द ही मीडिया में "तौकीर" के नाम पर सर्वसम्मति बन गई जिसका जाप सारे पत्रकार कर रहे थे जब १९ सितम्बर को बाटला हाउस में पुलिस ने अपनी कार्रवाई शुरू की. धूल छंटने पर घटनाओं ने नाटकीय मोड़ लिया - वह तौकीर नहीं बल्कि अल्ताफ़ था - उस रोज मारे गए दो युवकों में से एक - आतंकवाद का सरगना. एक महीने बाद महाराष्ट्र के आतंकवाद-विरोधी दस्ते के एक वरिष्ठ अफ़सर का कहना था कि तौकीर एक कल्पना थी - मीडिया की गढ़ी हुई एक कहानी.
जामिया नगर की मुठभेड़ के दिन मीडिया में कुछ लोग ऐसे थे जो कासमी के नाम पर अटके हुए थे चूंकि उसे कुछ ही दिन पहले गिरफ़्तार किया गया था. लेकिन इस विवरण में ऐसे विरोधाभास थे जो तथ्यों की तस्दीक न करने की चौंकाने वाली असफलता की तरफ़ इशारा कर रहे थे. उदाहरण के लिए देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्र "द हिन्दू" ने जामिया नगर की घटना को मुख्य समाचार के तौर पर छापा. इस समाचार में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर युद्धवीर सिंह डढवाल के हवाले से लिखा गया: "श्री डढवाल ने कहा कि बाटला हाउस की कार्रवाई विशेष प्रकोष्ठ द्वारा की गई थी और अहमदाबाद धमाकों के मुख्य आरोपी अबुल बशर कासमी की उपस्थिति से इसका कोई लेनादेना नहीं था." एक और पुलिस अधिकारी के हवाले से कहा गया कि मुठभेड़ में मारे गए एक आतंकी बशीर का कासमी से कोई सम्बन्ध नहीं था.
इस मुख्य समाचार के ठीक नीचे अलबत्ता एक पत्रकार ने जो प्रत्यक्ष रूप से इसलामी आतंकवाद का विशेषज्ञ था, एक अलग ही किस्म का निर्णय प्रस्तुत किया: " गुजरात में पकड़े गए भारतीय मुजाहिदीन काडर के टेलीफ़ोन रिकॉर्ड्स के आधार पर गुप्तचर संस्थान इस नतीज़े पर पहुंचा कि दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के जामिया नगर और ओखला इलाके में स्टूडेन्ट्स इस्लामिक मूवमेन्ट ऑफ़ इन्डिया के समर्थकों द्वारा बशीर को किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा दिया गया था. दिल्ली पुलिस ने कहा कि इन स्थानों की शिनाख़्त का काम पिछले सप्ताहान्त शुरू कर दिया गया था ... अलबत्ता इन स्थानों को तभी खोजा जा सका जब कासमी को दिल्ली लाया गया और बृहस्पतिवार की रात को उसे जामिया नगर इलाके में घुमाया गया."
(जारी)
(विचारधारा वाला पत्रकार - हेम चन्द्र पांडे से. पुस्तक प्राप्त करने हेतु इस पते पर मेल करें - bhupens@gmail.com अथवा भूपेन से इस नम्बर पर बात करें -.+91-9999169886 पुस्तक की कीमत है १५० रुपए)
No comments:
Post a Comment