(पिछली किस्त से जारी)
गणेश हलोई: पेन्ट करने की इच्छा सिद्धान्ततः दो कारकों पर निर्भर करती है: संवेदना और बुद्धि. जब संवेदना बुद्धि से आगे निकल जाती है, हम आखिरकार भटक जाते हैं. बुद्धि है जो मन पर काबू किये रहती है. लेकिन दोनों कारकों के बीच एक सन्तुलन ज़रूरी होता है. अगर इनमें से किसी एक की अधिकता हो जाती है तो दूसरा अरुचिकर हो जाता है. हम अपनी बुद्धि से सोचते हैं और हम काम करते हैं जिसे हमारी संवेदना पोषित करती हैं. क्या होगा यदि संवेदनाएं न हों? जीवन बिल्कुल बेहिस हो जाएगा.
पेन्टिंग तभी पूरी होती है जब बुद्धि और संवेदना के बीच एक सन्तुलन स्थापित होता है. संवेदना पेन्टिंग में अनुभूति की सघनता को काबू में रखती है जबकि बुद्धि उसे एक संरचना प्रदान करती है.
... हां परिकल्पना ... कॉन्सेप्चुअलाइज़ेशन ... लेकिन सर, क्या आपको नहीं लगता कि जब हम आज की भारतीय चित्रकला ... समकालीन भारतीय चित्रकला के बारे में बात करते हैं ... तो किसी भी और चीज़ के बनिस्बत आज कॉन्सेप्चुअलाइज़ेशन को तरजीह दी जाती है?
गणेश हलोई: हां ... और यह भी इस कारण है कि उन सब की उत्पत्ति बुद्धि से होती है. जब मैं एक डिज़ाइन बनाता हूं, हां उसके पीछे कोई तर्क नहीं होता पर जब तक उसके भीतर जीवन का स्पर्श नहीं होगा, वह असल मायनों में पेन्टिंग नहीं बन सकता. जीवन का वह स्पर्श ... संवेदना का स्पर्श ही पेन्टिंग को सार्वभौमिक बनाता है ... देखो ... एक पेन्टिंग ने क्या करना चाहिए? उसे हर किसी के पास पहुंचना चाहिए. और वह हर किसी तक कैसे पहुंच सकती है जबकि हर कोई एक दूसरे से भिन्न किस्म का व्यक्तित्व होता है ... वह सार्वभौमिक कैसे बनेगी? हमें यह जानने की ज़रूरत है कि अन्तर बुद्धि का होता है. बौद्धिक रूप से हर व्यक्ति अलग होता है लेकिन ... यह सम्भव ही है कि हमें यह नज़र आए कि अन्यथा अलग किस्म के कई लोगों की एक जैसी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया हो. क्योंकि वह किसी के भीतर पहुंचना है. अगर ऐसा नहीं होता तो केवल कुछ ही पेन्टिंग्स देखे जाने लायक नहीं होतीं ... हम सिर्फ़ उन्हीं पेन्टिंग्स की तरफ़ आकर्षित होते हैं जिनके भीतर सत्य होता है ... ईमानदारी होती है.
(समाप्त)
1 comment:
शानदार साक्षात्कार!
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