आज कल बम्बई में डेरा जमाए सुन्दर चन्द ठाकुर पुराने कवि-कबाड़ी हैं. आज से उनकी हालिया कविताओं की सीरीज़ "मैं हूं" की कुछ कविताएं -
मैं हूं - १
किसी के होने के क्या मानी हैं इस दुनिया में
कोई नहीं भी रहे तो पृथ्वी घूमती रहती है
मगर मैं हूं अभी
और पृथ्वी घूम रही है.
मैं एक हरा पेड हो सकता हूं
एक ठूंठ भी
एक नदी या एक सूखा हुआ नाला
एक खिला हुआ या मुरझा चुका फूल
एक दुत्कारा गया प्रेमी
बदले की आग में सुलगता हुआ
मैं कुछ भी हो सकता हूं
खुली हैं सारी दिशाएं
मगर मुझ पर सिर्फ़ गुरुत्वाकर्षण बल ही काम नहीं कर रहा
मैं शायद बना दिया गया मां के संघर्ष से
कुछ भले लोगों ने मुझे बुराई से दूर रहना सिखाया
वे कुछ आधी-अधूरी प्रेमिकाएं रहीं
जिन्होंने मुझ में प्रेम की प्यास भर दी
मेरे सिरहाने खड़ा पहाड़ भी चुपचाप भरता रहा मुझ में सहनशक्ति
मैं बना ऐसे ही
आसपास की चीज़ों और लोगों ने निर्मित किया मुझे
और अब मैं हूं
सब कुछ समझता हुआ कि कैसे हूं
मां का संघर्ष अब मेरा संघर्ष बन गया है
मैं अच्छाई बांटता हूं
प्रेम की बूंदें भरता रहता हूं दिलों के कोश में
अपने आसपास में जीता हूं भरपूर
जिन चीज़ों से निर्मित हुआ मैं वे अब खुल रही हैं
वक्त मुझे उघाड़ रहा है
उघड़ता हुआ मैं हूं
मेरे तत्व वापस लौटने लगे हैं
जिस शून्य से बनना शुरू हुआ था
मैं लौट रहा हूं उसी शून्य की ओर
लौटाता हुआ सब कुछ
मैं शून्य हो जाऊंगा
मगर खुल चुका पूरा
ख़त्म होता
अभी मैं हूं.
(जारी)
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