निज़ार क़ब्बानी की एक कविता -
रेखाचित्रण का एक सबक
रंगों का अपना बक्सा मेरे सामने रख
मेरा बेटा मुझसे उसके लिए एक चिड़िया बनाने को कहता है
मैं सलेटी रंग में ब्रश डुबोता हूं
और तालों और छड़ों के साथ एक वर्ग बनाता हूं
अचरज भर जाता है उसकी आंखों में -
" ... मगर यह तो एक क़ैदख़ाना है, पिताजी,
क्या आपको चिड़िया बनाना नहीं आता?"
और मैं उसे बताता हूं - "माफ़ करना बेटे
मैं चिड़ियों की आकृतियां भूल गया हूं."
रंगों का अपना बक्सा मेरे सामने रख
मेरा बेटा मुझसे गेहूं का एक डंठल बनाने को कहता है.
मैं कलम थामता हूं
और एक बन्दूक बना देता हूं.
मेरे अनाड़ीपन का मज़ाक उड़ाता हुआ
मेरा बेटा मांग करता है,
"पिताजी क्या अपको गेहूं के डंठल और
बन्दूक में फ़र्क़ नहीं पता"
मैं उसे बताता हूं - "बेटे
एक वक्त था जब मुझे गेहूं के डंठलों की आकृति पता थी
डबलरोटी की आकृति
ग़ुलाब की आकृति
लेकिन इस कड़ियल समय में
जंगल के पेड़ जा मिले हैं
मिलिशिया से
ग़ुलाब पहने हुए है बदरंग थकान
गेहूं के सशस्त्र डंठलों
सशस्त्र चिड़ियों
सशस्त्र संस्कृति
सशस्त्र धर्म के इस समय में
आप डबलरोटी नहीं ख़रीद सकते
भीतर एक बन्दूक ढूंढे बिना
आप खेत में एक ग़ुलाब नहीं तोड़ सकते
बिना उसके कांटों के तुम्हारे चेहरे तक उठे हुए
आप एक किताब नहीं खरीद सकते
जो आपकी उंगलियों के दरम्यान विस्फोटित न हो."
मेरा बेटा मेरे पलंग के किनारे बैठ कर
मुझसे एक कविता सुनाने को कहता है,
मेरी आंखों से एक आंसू निकल कर तकिये पर गिरता है.
मेरा बेटा उसे चाट कर अचरज में कहता है -
"पिताजी यह तो एक आंसू है, कविता नहीं."
और मैं उसे बताता हूं -
"मेरे बेटे जब तुम बड़े हो जाओगे
और अरबी कविता का दीवान पढ़ोगे
तुम खोजोगे कि लफ़्ज़ और आंसू जुड़वां होते हैं
और अरबी कविता
एक आंसू के अलावा कुछ नहीं जिसे लिखती हुई उंगलियों ने रोया."
मेरे सामने धर देता है मेरा बेटा
अपनी कलमें, अपने रंगों का डिब्बा
और मुझ से मातृभूमि बनाने को कहता है.
मेरे हाथों में थरथराता है ब्रश
और मैं डूब जाता हूं, रोता हुआ.
2 comments:
आह... अह.. अह... !
क्या जरुरी है कि कबाड़खाने पर कुछ कहा जाए.
aaz ka sach...
Post a Comment