देहरादून में रहने वाले कवि, मित्र राजेश सकलानी का नया कविता संग्रह हाल ही में छप कर आया है. हिन्दी के दो बड़े कवियों श्री असद ज़ैदी और श्री वीरेन डंगवाल ने मुझे इस संकलन की कविताओं के आश्चर्यजनक नएपन और गुणवत्ता की बाबत बाकायदा टेलीफ़ोन पर लम्बे कॉल किए. वीरेनदा ने तो मुझे इस संग्रह से कुछ कविताएं पढ़ कर सुनाईं (ऐसा उन्होंने आलोक धन्वा की किताब "दुनिया रोज़ बनती है" के आने के बाद से पहली दफ़ा किया).
यह संग्रह "पुश्तों का बयान" (प्रकाशक अन्तिका प्रकाशन) बस अभी अभी मिला है. बहुत दिनों बाद हिन्दी में एक नायाब कविता-संकलन आया है. सरसरी तौर पर देखे जाने से कहीं ज़्यादा की मांग करने वाले इस संग्रह से एकाध कविताएं पोस्ट करने से पहले मैं वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी द्वारा लिखा गया किताब का ब्लर्ब पहले प्रस्तुत करता हूं.
राजेश सकलानी की कविताओं में एक निराली धुन, एक अपना ही तरीक़ा और अनपेक्षित गहराइयां देखने को मिलती हैं. अपनी तरह का होना ऐसी नेमत (या कि बला) है जो हर कवि को मयस्सर नहीं होती या मुआफ़िक़ नहीं आती. राजेश हर ऐतबार से अपनी तरह के कवि हैं. वह जब जैसा जी में आता है वैसी कविता लिखने के लिए पाबन्द हैं और यही चीज़ उनकी कविताओं में अनोखी लेकिन अनुशासित अराजकता पैदा करती है. उनकी कविता में एक दिलकश अनिश्चितता बनी रहती है - पहले से पता नहीं चलता यह किधर जाएगी. यह गेयता और आख्यानपरकता के बीच ऐसी धुंधली सी जगहों में अपनी ओट ढूंढती है जहां से दोनों छोर दिखते भी रहें. ऐसे ठिकाने राजेश को ख़ूब पता हैं.
राजेश व्यक्तिगत और राजनैतिक के दरम्यान फ़ासला नहीं बनाते. वह मध्यवर्ग के उस तबक़े के दर्दमन्द इन्सान हैं जो आर्थिक नव-उदारीकरण और लूट के इस दौर में भी जनसाधारण से दूर अपना अलग देश नही बनाना चाहता. जो मामूलीपन को एक नैतिक अनिवार्यता की तरह - और इन्सानियत की शर्त की तरह - बरतता है. वह इस तबक़े की मौजूदगी और अब भी उसमें मौजूद नैतिक पायेदारी को लक्षित करते रहते हैं. राजेश एक सच्ची नागरिकता के कवि हैं और अपने कवि को इस नागरिक से बाहर नहीं ढूंढ़ते. शाहर देहरादून को कभी इस से पहले ऐसा ज़िम्मेदार और मोहब्बत करने वाला कवि नहीं मिला होगा.
वह अपनी ही तरह के पहाड़ी हैं. पहाड़ी मूल के समकालीन कवियों में पहाड़ का अनुभव दर असल प्रवास की परिस्थिति या प्रवासी दशा की आंच से तपकर और मैदानी प्रयोगशालाओं से गुज़रकर ही प्रकट होता है. इस अनुभव की एक विशिष्ट नैतिक और भावात्मक पारिस्थितिकी है जिसने बेशक हिन्दी कविता को नया और आकर्षक आयाम दिया है. राजेश सकलानी की कविता इस प्रवासी दशा से मुक्त है, और उसमें दूरी की तक़लीफ़ नहीं है. इसीलिए वे पहाड़ी समाज्के स्थानीय यथार्थ को और उसमें मनुष्य के डिसलोकेशन और सामाजिक अन्तर्विरोधों को, सर्वप्रथम उनकी स्थानीयता, अन्तरंगता और साधारणता में देख पाते हैं. यह उनकी कविता का एक मूल्यवान गुण है.
राजेश की ख़ूबी यह भी है कि वह बड़े हल्के हाथ से लिखते हैं : उनकी इबारत बहुत जल्दी ही, बिना किसी जलवागरी के पाठक से उन्सियत बना लेती है. यक़ीनन यह एक लम्बी तपस्या और होशमंदी का ही हासिल है.
अमरूद वाला
लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गए
पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का उनका
छोड़ दिया रोना फैला फ़र्श पर
एक तीखी गंध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का.
पों
पों पों पों आप हटे
बयान आ रहा है
तकलीफ़ें दूर होंगी
वित्तमन्त्री को सुनें
कहीं इकठ्ठा न हों
फिर चुपचाप घर जाएं
पों ....
दुल्हन
सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
और दुल्हन की साड़ी की कोई कीमत नहीं होती
नंगे पैर गली में भटकने से
कैसे धरती तुम्हारे चेहरे पर निखरती है और
कितनी प्यारी हैं तुम्हारे श्रंृगार की गलतियाँ
चन्द्रमा की तरह दीप्त
अपनी बालकनी से दबे-दबे मुस्करातीं हैं मालकिनें
तुम्हारी खुशियों को नादानी समझतीं
उनकी आँखों में तुम मछली की तरह
लहराती हुई निकलो
भले ही जल्द टूट जाएँ वे चप्पलें जो
त्ुमने जतन और किफ़ायत से खरीदी हैं,
उन्हें इतराने दो और खप जाने दो मेहँदी
अपनी खुरदरी हथेलियों में
कुछ-कुछ ज्यादा है वे रंग जो तुम
अपने चेहरे पर चाहती हो
एक वह है जो दूसरे में दखल किए जाता है
दुल्हनें इसलिए भी शरमाती हैं कि चाहती
भी हैं दिखना लेकिन तुम ऐसे शरमाती हो
जैसे धीमे-धीमे दुनिया से टर लेती हो
जैसे तुमने जान ली है थोड़ी-सी लज्जा और
थोड़े से भरोसे के साथ दिख जाने की कला
जैसे तुम पहली बार उजाले में आई हो
कोई तेरी पलकों के ठाठ देखकर
चौंक पड़ेंगे
कुछ भले लोगों की तरह सँभलेंगे
कुछ इंतजार करेंगे बेचैनी से
मेहँदी के घटने के दिन
कुछ ऐसे देखेगें लापरवाही से जैसे नहीं देखते हो
अच्छा हो तुम उन्हें भी ऐसे ही देखो
जैसे न देखती हो
जैसे तुम समझ गई हो अपना होना
समय की कठिनाइयों में यह भी काम आएगा
अपने टूटे-फूटे बचपन की किताब को
तुम बंद कर देती हो
जैसे शाम होते ही दिन खत्म हो जाता है
ऐसे ही गुज़रो तुम बहुत समय तक
मचल-मचल कर इस जीवन को गाढ़ा कर दो.
अकेला छोड़ कर
वर्ष २००२, जाती बारिशों में मिले एक रोज़
धीमे बोलते हैं शेर मोहम्मद
लफ़्ज़ उनके रेशम की तरह,
हमेशा की तर मुस्कुराए आहिस्ता
धवल दाढ़ी थिरकी, जल जैसे
कैसे हो, मैंने पूछा थूक गटकते
सिर हिलाया उन्होंने
जाने दो अभी जैसा कुछ
चौंके फिर कुछ सहज हुए
होने को भी हैं जो ग़लतियां
मुआफ़ करते
उन्हें छूनेको मन था
अकेला छोड़ कर निकल गए काम पर
पुश्तों का बयान
हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे
हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़
हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं
सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए
तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन.
पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार. पहाड़ों सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं.
(इस संग्रह से कुछेक कविताएं आपको जब-तब यहां पढ़ने को आगे भी मिलेंगी. पुस्तक मिलने का पता: अंतिका प्रकाशन सी-५६/यूजीएफ़-४ शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II ग़ाज़ियाबाद-२०१००५ (उ.प्र.))
3 comments:
वाकई बहुत अच्छी कवितायेँ हैं
पढ़ाने के लिए शुक्रिया
बहुत अच्छी समीक्षा। कविताएं भी उत्तम।
बहुत अच्छी समीक्षा। कविता भी उत्तम।
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