बांग्लादेश में १९३६ में जन्मे गणेश हलोई बंटवारे के बाद १९५० में कलकत्ता आ बसे. अपनी जड़ों से कट जाने का ज़ख़्म उनके कार्य में नज़र आता है. वे हमारे समय के बड़े चित्रकारों में गिने जाते हैं. तमाम माध्यमों में असाधारण कार्य कर चुके हलोई का एक साक्षात्कार ललित कला अकादेमी के पिछले वर्ष छपे प्रकाशन "कला भारती" में आया था. वहीं से साभार -
गणेश हलोई: कथा है कि एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से एक दर्शनसम्बन्धी प्रश्न करते हुए पूछा, " ईश्वर कहां है? हम उसे देख नहीं सकते. हम उसे महसूस नहीं कर सकते. हम कैसे मान लें कि वह है?" गुरु ने उत्तर दिया, "ज़रा प्रकृति को देखो. यह विकृति से बनी हुई है - परिवर्तन से. हर चीज़ एक दूसरे में बदल सकती है. पेड़, पत्ते, मिट्टी ... सारा कुछ. सो अगर आप एक पत्ती का चित्र भी बनाते हैं तो उसके अन्दर ईश्वर होता है." क्या हम विश्वास नहीं करते कि हर चीज़ में ब्रह्म होता है?
मैं अपने आप को खुशकिस्मत मानता हूं कि मैं कला की सौगात लेकर इस धरती पर पहुंचा. रोज़ी रोटी के लिए मुझे किसी जगह नौकरी नहीं करनी पड़ती. मेरे ऊपर समय की कोई पाबन्दियां नहीं हैं. मेरे कार्य की प्रगति पूरी तरह मेरे आन्तरिक बोध की प्रक्रिया पर निर्भर करती है. मुझे केवल उस रास्ते पर चलना है जिस पर मैं यकीन करता हूं और वही मुझे उस अन्तिम लक्ष्य तक ले कर जाएगा जहां ईश्वर है और जहां मुझे आशा है मैं अपने को उसके आगे समर्पित कर दूंगा.
बात करना अच्छी बात है पर सिर्फ़ बात करने से कुछ नहीं हो सकता !! यह कुछ कुछ यथार्थवाद जैसा है. ज़रा यथार्थवाद पर नज़र डालिए ... यथार्थवाद किसी भी किस्म के विकास को पोषित नहीं करता. धरती इतनी सुन्दर कैसे बन गई? क्या हम इस तरह की बातों को लेकर यथार्थवादी हो सकते हैं? धरती यथार्थवाद की वजह से सुन्दर नहीं बनी ... ऐसा कल्पना के कारण सम्भव हुआ है! वह ज़्यादा उत्तेजित करने वाली है. मुझे बताइये, जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या होता है? आप खुश होना चाहते हैं, है न? अपनी कल्पना का प्रयोग करना आपको प्रसन्न बनाता है. जब आप एक पेन्टिंग बना रहे होते हैं और वह बिल्कुल वैसी ही बन कर सामने आती है जैसा आपने सोचा होता है, आपको उतना सन्तोष नहीं मिलता. लेकिन जब पेन्टिंग आपकी उम्मीदों से कहीं अलग बन जाती है तो आप चरम आनन्द के अतिरेक से भर उठते हैं. क्योंकि उसकी उम्मीद नहीं की गई थी ... वह नई होती है. क्योंकि आपकी समझ में आने लगता है कि जिन तत्वों का इस्तेमाल आप अपनी पेन्टिंग में कर रहे होते हो, वे एक सामंजस्य के साथ आपके साथ रेस्पॉन्ड करने लगे हैं. मुझे ऐसा सामंजस्यपूर्ण रेस्पॉन्स इतनी दफ़ा मिला है. फ़ॉर्म, रेखाएं, रंग ... तनाव ... अगर सामंजस्य होगा तो पेन्टिंग ठीक होगी.
आपको पेन्ट करने की प्रेरणा किस से मिलती है? और ऐसा क्यों होता है?
गणेश हलोई: क्योंकि अगर मैं पेन्ट नहीं करूंगा तो सब कुछ ठहर जाएगा. आप यह वार्तालाप क्यों कर रहे हैं? वह क्या चीज़ है जिसके कारण आप इस वार्तालाप को जारी रखे हुए हैं? ठीक ऐसा ही इस मामले में भी है. लेकिन हम दोनों को संचालित करने वाली शक्तियां अलग अलग हैं. ठीक जिस तरह आपके और मेरे विचार अलग अलग हैं. प्रेरणा के स्रोत और उसके सन्धान करने की प्रक्रिया भिन्न लोगों में भिन्न होती है. मुझे बताइए, कुल कितने देवता होंगे? एक, है न? मगर ज़रा उसकी प्रार्थना करने के तरीकों की संख्या पर निगाह डालिए. इतनी इतनी तरह की तो प्रार्थनाएं हैं! रवीन्द्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि' क्या है? समर्पण. तो भी हमें एक ज़रूरी बात का ध्यान रखे रहना चाहिए - आपकी उपस्थिति दिखाई नहीं पड़नी चाहिए. आपकी पहचान का कोई मतलब नहीं होता. यह आवश्यक नहीं कि पेन्टिंग्स को किसी ट्रेडमार्क की तरह देखा जाए. अपनी शैली स्थापित करने के फेर में कलाकार ने भटक नहीं जाना चाहिए. यह बात कलाकारों, लेखकों और किसी भी किस्म का रचनात्मक कार्य करने वाले व्यक्ति पर लागू होती है. आपके इसका अहसास तक नहीं हो पाता और आप अपनी शैली बनाए रखने की वजह से मिकानीकी बन चुके होते हैं.
सब कुछ मुझ पर निर्भर करता है. मैं स्वयं अपना स्वामी हूं. कोई आदेश नहीं देता कि मुझे क्या करना है. किसी ने मेरी पीठ पर बन्दूक सटाकर किसी ख़ास रास्ते पर चलने का आदेश नहीं दे रखा है मुझे. प्रत्येक रचनाशील व्यक्ति को बेहद स्वतन्त्र होना चाहिए. किसी व्यक्ति या किसी वस्तु का गुलाम नहीं.
जीवन बहते पानी की तरह होना चाहिए; रास्ते भर की सारी अनिश्चितताओं में ही तो आनन्द है. आगे बढ़ते हुए आपके सामने नई बाधाएं आती रहती हैं. इसी तरह पेन्टिंग बोध की एक प्रक्रिया है.
शुरू से अन्त तक गाया गया कोई गीत स्पेस में समय घेरता है. शुरू से अन्त तक सुनाई गई एक कहानी स्पेस में समय घेरती है.
-अब ज़रा बिन्दु और रेखा के कार्य को देखें. बिन्दु आपको स्थिर थामे रहता है जबकि रेखा दिशा देती है. एक पेन्टिंग क्या करती है? जब आप उसे देख रहे होते हैं वह आपको समय के बीच स्थिर थामे रहती है और जब आप उसे देखते जाते हैं वह आपको आगे - पीछे ले जाने लगती है - भीतर से. आपको ऐसा जादू और कहां देखने को मिलेगा? पेन्टिंग आपको आपके भावजगत में ले जाती है - जो आपकी अनुभूतियों का संसार है. कहानी या गीत को आपने पूरा सुन कर समाप्त करना होता है लेकिन किसी पेन्टिंग के साथ आपकी प्रतिक्रिया देखने की प्रक्रिया के साथ शुरू हो जाती है.
कहानी और गीत के मामले में, उन्हें समझने के लिए सुनने-पढ़ने वाला उतना ही समय लेता है जितना रचनाकार ने लिया होता है ...
गणेश हलोई: बिल्कुल. जहां एक पेन्टर को यह तय करने में दस साल लग सकते हैं कि पेन्टिंग पूरी हो गई है, दर्शक को फ़कत एक पल लगता है उसके प्रभाव से रूबरू होने में और उसी एक पल में उसे रेस्पॉन्ड भी करना होता है ... क्योंकि आखिरकार दिमाग से अधिक तेज़ कुछ नहीं चल सकता!
दरअसल मेरा मानना है कि संगीत भी आपके साथ बहुत व्यक्तिगत स्तर पर जुड़ता है. कई सारे गीत हैं जिन्हें मैं बरसों पहले सुना करता था. मैं उन्हें बार-बार सुना करता था. आज भी जब वे धुनें कहीं से मेरे कान में पड़ती हैं तो मेरे सारे पुराने जुड़ाव जीवन्त हो उठते हैं. कुछेक गन्धों को लेकर भी मैं यही बात कह सकता हूं. उनसे भी कुछ विशिष्ट किस्म के जुड़ाव उभर आया करते हैं. वे सम्पूर्ण संसारों का पुनर्सृजन कर देते हैं. लेकिन इन दोनों उदाहरणों में रेस्पॉन्स बहुत व्यक्तिगत होते हैं. लेकिन जब पेन्टिंग की बात आती है तो यह बेहद व्यक्तिगत होने के साथ ही पूरी तरह सार्वभौमिक भी होती है.
आजकल यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बात हुई है कि लोगों ने 'एब्स्ट्रैक्ट' की गलत व्याख्या करना शुरू कर दिया है. यह सिर्फ़ आकारहीनता नहीं है. यथार्थवाद में भी एक तरह का एब्सट्रैक्शन होता है, है न?
किसी गुस्साए बच्चे की कल्पना कीजिए. वह नहीं जानता कि अपना गुस्सा कैसे बाहर निकाले. अपने अनुभव की सीमितता के कारण वह उसकी अभिव्यक्ति अपने खुले हाथ को भींच कर मुठ्ठी बना कर करता है. अब अगर मैं इस बच्चे की भावनाओं को अभिव्यक्त करना चाहूं तो उसकी कलाई का प्लास्टर का सांचा बना देना ही पर्याप्त होगा क्या? नहीं. लेकिन यदि मैं उसे इस तरह से विद्रूप बना दूं कि वह उस क्रिया को उससे जुड़ी हुई अनुभूति तक पहुंचा सके तो मैं वांछित प्रभाव प्राप्त कर पाने में सफल हो सकता हूं. आन्तरिक अनुभूति को विद्रूपता के माध्यम से पाया जा सकता है. इस तरह हम विद्रूपता के बगैर काम नहीं चला सकते. सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति के लिए विद्रूपता आवश्यक है. ऐसा कविता के साथ भी होता है. क्या कविता साधारण गद्य का विद्रूपन नहीं है? अख़बारी लेखन और कविता में फ़र्क़ होता है, है न? यह 'अनुभूति' का फ़र्क होता है.
एब्सट्रैक्शन रंगों के अर्थहीन टुकड़े भर नहीं होता. एब्सट्रैक्शन विचार, सघन अनुभूति और मज़बूत कल्पना शक्ति से आता है. कल्पना ही अन्तिम सत्य है. यह अकल्पनीय रूप से आश्चर्यजनक काम कर सकती है.
जेराम पटेल के काम से बहुत सुदृढ़ विश्वास परिलक्षित होता है. उनके ब्लैक एन्ड व्हाइट्स बहुत ताकतवर हैं.
(जारी)
1 comment:
रचनाकार की रचना प्रक्रिया जब स्वयं ही बताई जाये तो सुनने का आनन्द अलग ही है।
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