Saturday, September 3, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - २

(पिछली पोस्ट से जारी)

साउथ एशिया की आज़ादी

हिंदुस्तान की आज़ादी ज़लज़ले की तरह आई जिसने हज़ारों मासूम लोगों को निगल लिया. हमारे यहाँ सियासी मामलों पर बात नहीं होती थी. लेकिन हिंदुस्तान के टुकड़े होने की बात चलती तो अय्यूब के चेहरे पर काले बादल छा जाते. वह कहते जिस इतिहास ने मास्टर ग़ुलाम हैदर, नूरजहाँ, खुर्शीद अनवर, फ़ीरोज़ निज़ामी, ए आर चिश्ती और रफ़ीक़ ग़ज़नवी को हिंदुस्तान से अलग कर दिया, उसमें कोई अच्छाई नहीं हो सकती. वह कहते हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत की मिठास हमेशा के लिए कम हो गई है और कम रहेगी.


साउथ एशिया की आज़ादी की ख़बर 1949 में उस दिन आई जब शहीद फ़िल्म का दो पार्ट का मार्चिंग गीत ‘वतन की राह में वतन के नौजवाँ शहीद हो’ आया. ये गाना सुनकर मेरे भाई कहने लगे, ‘लगता है वहाँ कुछ हुआ है.’ ये गीत मास्टर ग़ुलाम हैदर ने कंपोज़ किया था. हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत के वे पायोनियर संगीत निर्देशक थे जो नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरेन्द्र कौर और लता मंगेशकर को फ़िल्मों में लाए. ये गीत बनाने के बाद हौसला हार कर वे पाकिस्तान चले गए. जब शहीद फ़िल्म अफ़रीक़ा में आई तो ब्रिटिश सरकार ने उसे बैन कर दिया.


भाई अय्यूब उन नौजवानों में थे, जिन्होंने थियेटर के बाहर हंगामा किया. नतीजा ये हुआ कि फ़िल्म को सेंसर कर दिखाया गया. उसमें से तिरंगा फहराने वाला दृश्य काट लिया गया. ये फ़िल्म देखने के बाद हमारे शहर के हर नौजवान की हेयर स्टाइल बदल गई थी. थोड़े ही वक़्त बाद पाकिस्तान से ख़बर आई कि ग़ुलाम हैदर चल बसे. मेरे भाई ने रात अफ़सोस में मैख़ाने में गुज़ारी.

गाँधी, नेहरू और जिन्ना से क्या हुआ, भाई की उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन्हें तो कलाकारों के बिछड़ने का ग़म था. उनकी फ़ेवरेट फ़िल्म राजकपूर की आग थी. वह बड़ी ख़ुशी से मुझे दिखाने के लिए ले गए थे. फ़िल्म में हीरो का चेहरा आधा जल जाता है और वह बदसूरत हो जाता है. उन्होंने कहा, "यह फ़िल्म हीरो - हीरोइन की नहीं, एक मुल्क की कहानी है":


जिंदा हूँ इस तरह कि ज़िंदगी नहीं
जलता हुआ दिया हूँ, मगर रोशनी नहीं.



"ये हीरो कोई नहीं वह हिंदुस्तान है जो पार्टिशन में आधा जल गया." हर फ़िल्म, हर गीत उनके लिए एक किताब थी. वह उनमें हर तरह से उनका सियासी अर्थ समझने की कोशिश करते. जुगनू फ़िल्म का मशहूर गीत, ‘यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई सिवा क्या है’ इसे वे रोमांटिक गीत नहीं सियासी गीत मानते थे. उनका कहना था, कौन किससे बेवफ़ा हुआ ये निर्भर करता है, कौन बॉर्डर के किस तरफ़ है:

यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है
इसी का नाम दुनिया है.



एक हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीत की खोज के सफ़र की इब्तिदा

1953 में मेरे भाई अय्यूब टांगा से क़रीब 80 मील दूर टांगा-मोशी रेलवे लाइन पर एक साइसेल स्टेट में काम करने चले गए. साइसेल अफ़रीक़ा अफ़रीक़ा का जूट था. उससे रस्सी और बोरियाँ बनाई जाती थीं. ये व्यापार ही उस इलाके की रोज़ी रोटी का ज़रिया था. हर काम साइसेल की फ़सल से जुड़ा हुआ था. अप्रैल में बारिश का महीना शुरू ही हुआ था. मैं उस समय करीम जी सैकेंडरी स्कूल में आठवीं क्लास में पढ़ता था. घर में हिसाब के टीचर मास्टर दया भाई के डंडों के डर से पाइथोगोरस की थियोरम बारबार दोहरा रहा था. लेकिन फिर भी याद नहीं हो रही थी. मास्टर दया भाई के जगत में बहुत कुछ था पर दया का नामोनिशाँ नहीं था. उसी समय भाई अय्यूब आए. घर में अचानक हलचल-सी मच गई. हम सब अपनी अपनी परेशानियाँ भूल गए. उन्होंने मुझसे कहा, ‘कल हम सफ़र पर चलेंगे.’ उन्होंने बताया, ‘मोरोगोरो शहर में, एक हाजी के घर में ”कोई प्रेम का देकर संदेशा“ गाना है, बहुत मुश्किल से हमने बात बनाई है कि हम वहाँ जाकर गीत सुन सकते हैं.’ उन्होंने कहा, ‘यह सिनेमा संगीत की बात है, थियोरम की नहीं. वह तो तुम कल भी याद कर लोगे. अब या तो इतिहास से जुड़ जाओ या स्कूल जाओ. मास्टर जी को चिट्ठी मैं लिख दूँगा कि शादी ब्याह का मामला है, तुम्हें बाहर जाकर रहना पड़ रहा है.’ मेरे लिए ईद के दिन दिवाली हो गई. उसी रात तैयारी की. पोटली लेकर सुबह-सुबह हम दोनों ट्रेन पर चढ़ गए. आगे बढ़ती जा रही ट्रेन के दोनों ओर काजू के पेड़ों पर परिंदे मंडरा रहे थे. मुझे ऐसा लगा, ये भी काजू की ख़ू़बसूरती को एप्रीसिएट कर रहे हैं. एक के बाद एक स्टेट आते रहे. वे क़ब्रिस्तान आते रहे जिनमें हिंदुस्तान के वे सैनिक दबे थे जिनकी किसी को याद नहीं.

पढ़े फ़ातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाये क्यों
कोई लाके शम‘अ जलाए क्यों, मैं वो बेकसी की मज़ार हूँ ...

जो उजड़ गया वो दयार हूँ.


मेरे भाई समझाने लगे, "साइसेल को साइसेल न समझो. यह वह धागा है जिससे हमारी ज़िंदगी पिरी हुई है, अगर यह टूट गया तो हम बिखर जाएंगे."

उस जगह से बहुत दूर, कोरिया की जंग हो रही थी. उससे साइसेल की क़ीमत बहुत बढ़ गई. इसे सोने का धागा कहा जाने लगा. भाई कहते जब तक जंग चलेगी, हमारी ज़िंदगी का कारोबार भी अच्छा रहेगा. लड़ाई में कौन अपाहिज हुआ और कौन मर रहा था, इसकी उन्हें कोई फ़िक्र नहीं थी. उनको इस बात की भी जानकारी नहीं थी कि पड़ोस के कीनिया में माउमाउ ग़दर के साथ वहाँ आज़ादी का आंदोलन शुरू हो गया है. जब वह बात कर रहे होते, तो फ़िल्मफेयर पर उनकी निगाह होती जिसमें उनके लिए सही ज़िंदगी थी. जानूवाला की दूकान से फ़िल्मफ़ेयर उन्होंने ख़रीदा था जो उसमें कुछ सिलवटें थीं. बारबार वह उन्हें निकालने की कोशिश कर रहे थे और जानूवाला को भला-बुरा कहते जाते कि वह फ़िल्म मैगज़ीन की इज़्ज़त नहीं करता. हर पन्ने की सिलवट जानूवाला के जु़ल्म का सबूत था. पहला फ़िल्मफेयर एवार्ड बैजू बावरा के संगीतकार नौशाद को फ़िल्म के मशहूर गीत ‘तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा’ के लिए मिला.


अकेले मत जाइयो, राधे जमुना के तीर ...
ओ जी ओ, तू गंगा की मौज, मैं जमुना का धारा.


मेरे भाई को गहरा अफ़सोस था. वह कहते, "बेशक बैजू बावरा के गाने बढ़िया हैं. रागों में हैं, लेकिन ये इनाम सी रामचंद्र को अनारकली के लिए मिलना चाहिए था. उस संगीतकार को जिसने आना मेरी जान, मेरी जान संडे के संडे गीत बनाकर जैज़ संगीत के दीपक से हमारे संगीत को उजला किया." आखि़र उन्होंने कहा, "जिंदगी और इंसाफ़ का कोई तालमेल नहीं. हमारे जीने का मक़सद यही है कि हम एक दूसरे को ताक़त दें कि वह ज़िंदगी की बेइंसाफ़ी समझ सके."


गुज़रती हुई ट्रेन के बाहर उड़ते हुए बादलों की छाया दौड़ रही थी. उन्होंने कहा, "काश हमारे साथ कोई कैमरामेन होता, एक ऐसा सीन बनाते जिसमें हीरो बादलों के पीछे भाग रहा है, इस तरह जैसे इंसान वक्त को पकड़ने की कोशिश में.... हाँ, इससे भी बेहतर सीन हो सकता है, बादल इंसान के पीछे भाग रहा है, वक़्त की तरह और उसे अपने शिकंजे में ले रहा है." इस सोच पर वह खूब हँसे कि भई ज़िंदगी भी क्या चीज़ है.


हमारे बुज़ुर्ग यह भी कहते, मेरे भाई की कहानी चार लफ़्जों में लिखी जा सकती है - सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब. मेरे भाई कहते, सिगरेट उनके अकेलेपन की साथी है. शराब थोड़ी देर के लिए गुनाहों से राहत दिलाती है और सिनेमा की कहानी ज़िंदगी को समझने में मदद करती है. सिगरेट पीना उन्होंने हॉलीवुड के अभिनेता हम्फ़्री बोगार्ट से सीखा था. उन्हें बोगार्ट इसलिए पसंद था कि वह कहते बोगार्ट के चेहरे में दो पैग़ाम हैं. एक तो यह कि ज़िंदगी का रिटर्न टिकट नहीं है, और दूसरा कि जिंदगी एक बेइलाज रोग है. वह बारबार उनकी फ़िल्में यह देखने के लिए जाते कि दोनों में से किस पैग़ाम में ज्यादा सच्चाई है. बोगार्ट को लोग प्यार से बोगी कहते थे. चालीस के दशक में उन्होंने हम्फ़्री बोगार्ट की मशहूर फ़िल्म कैसाब्लान्का देखी जो उनकी ज़िंदगी में दोहराती रही. कैसाब्लान्का में बोगी ने रिक का रोल अदा किया था. एक आदमी उससे पूछता है, भई तुम सहारा में क्यों आए हो? जबाब था, पानी ढूंढ़ने आए हैं. भाई कहते यह डायलॉग तो हॉलीवुड ने प्लेजराइज़ किया है. ये ख़याल तो इंडिया से आया है. ऐसी सोच तो हिंदुस्तान के लोगों में होती है. उसके बाद तो जब कभी सफ़र पर जाते तो, तो जब भी कोई उनसे पूछता आप कहाँ गए थे, तो उनका जबाब होता पानी ढूंढ़ने.

हालाँकि वह भाई थे, मुझे उनकी शक्ल आज भी साफ नज़र नहीं आती क्योंकि उनकी आधी शक्ल तो सिगरेट के धुएँ से ढँकी रहती थी. घुआँ उनके चेहरे तक पहुँचने में रोशनी का इम्तिहान लेता. हम्फ़्री बोगार्ट की जो भी फ़िल्म टांगा के मैजेस्टिक सिनेमा में आई, वह घायल हुई. वह फ़िल्म को अपने अफ़्रीकी दोस्त उम्टो के साथ देखते थे. अगर कोई सीन पसंद आ जाता तो उम्टो उसे वहीं रोक लेता, तो फ़िल्म जल जाती और वह हिस्सा काटकर, अनवर स्टूडियो ले जाते और बोगी के सिगरेट के अंदाज़ की फ़ोटो खिंचवाते. अनवर का उनसे वादा रहता कि वह किसी ओर की ऐसी तस्वीर नहीं लेंगे. बाद में हम्फ़्री बोगार्ट द अफ़्रीकन क्वीन बनाने के लिए अफ़्रीका आए. भाई को ज़िंदगी भर अफ़सोस रहा कि ज़ायर में जहाँ वह फ़िल्म बनी थी, वह जा नहीं सके.


शराब उन्होंने पी. सी. बरुआ की फ़िल्म देवदास से सीखी जिसके नायक के एल सहगल थे. शराब के साथ वह गाना भी गाते. उन्हें हमेशा गिला रहा कि सहगल अफ़्रीका नहीं आए. बाद में जब अय्यूब की जिंदगी के बात उठती तो बुजु़र्ग कहते, बचपन में वह मोंबासा में देवदास देखकर आया था, तो फ़िल्म को उसने हाथ की लकीर बना लिया. लोग उन्हें टांगा का सहगल कहते. ‘लाई हयात आई क़ज़ा, ले चले ले चले.अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी खु़शी चले’ (ज़ौक) उनकी पसंदीदा ग़ज़ल थी. इसमें उन्होंने ज़िंदगी का अर्थ ढूँढ़ा.


वह बताते कि फ्रांस की अस्तित्ववाद की फ़िलासोफ़ी इसी गीत में से चुराई गई है. जो फ़्रांस के लिए नयी बात थी वह हिंदुस्तान में कब से चली आ रही थी. एक दिन मैंने पूछा, यह अस्तित्ववाद है क्या? तो उन्होंने मुझे यूनान के हीरो सिसिफ़स के बारे में बताया जब उसने यूनानी ख़ुदा ज़ूस से मुकाबला किया तो ज़ूस ने उसे यह सज़ा दी कि वह एक बहुत भारी पत्थर पहाड़ पर ले जाऐ. लेकिन पत्थर ऊपर ले जाने पर नीचे लुढ़क जाता. वह ज़िंदगी भर पत्थर ढोता रहा. मैंने उनसे पूछा जू़स ने सिसिफ़स को यह सज़ा क्यों दी? तो उन्होंने समझाया यूनान का ख़ुदा ज़ूस आसमान का ख़ुदा नहीं ज़मीनी ख़ुदा था. ऐसा जिसमें इंसानी कपट भी होता है. हुआ यह कि ज़ूस को नदी के देवता की बेटी से प्यार हो गया. उसे मालूम था कि लड़की का पिता उसे लड़की कभी नहीं देगा. तो ज़ूस ने उसे चुरा लिया. मैंने उनसे पूछा. सिसिफ़स ने ज़ूस का मुक़ाबला क्यों किया. उन्होंने कहा सिसिफ़स के दिल में एक इंसान का दिल धड़क रहा था. उसे एक बाप की पीड़ा सही माप था. लेकिन सिसिफ़स ने इसे सज़ा समझा ही नहीं. उसने यह समझ लिया कि यही जिंदगी है. इसे तो करना ही है. फिर शिकायत कैसी? सिसिफ़स ने सज़ा को अपनी आज़ादी का मंसूबा बना लिया. फ़्रांस के दार्शनिक आल्बेयर कामू के अस्तित्ववाद का अर्थ उन्होंने मुझे इस तरह समझाया था.

भाई साहब बड़ी किताबें नहीं पढ़ते थे. वह कहते बड़ी किताबें मुल्लाओं, पंडितों के लिए हैं, ऊँचे लोगों के लिए हैं. उनका माध्यम था, तस्वीरों वाली पत्रिकाएँ जो आम लोग पढ़ते हैं - लाइफ़, टाइम, लुक, इलस्ट्रेटेड वीकली आफ़ इंडिया, फ़िल्मफेयर, फ़िल्म इंडिया इत्यादि. यही उनका साहित्य था. हिंदुस्तानी फ़िल्म मैगज़ीन को वह सबसे ऊँचा दर्जा देते थे. जब कभी उनके दोस्त मिलने आते तो वे उन्हें मैगज़ीन देते हुए कहते ये है वक़्त, ये है ज़िंदगी और ये ठहरी झलक, अब ख़ुद फ़ैसला कर लो. उनकी नज़र में हिंदुस्तान की बोलती, गाती, नाचती फ़िल्म दुनिया की कलाओं में सबसे ऊँची थी. वह इसलिए कि कैमरा ज़िंदगी के हर पहलू तक नहीं पहुँच सकता. यह बात हिंदुस्तान के फ़िल्म बनाने वालों ने अच्छी तरह समझ ली थी. जो चीज़ें फ़िल्म में दिखाई नहीं देतीं उन्हें फ़िल्म में कैसे लाया जाए, यह अहम मुद्दा फ़िल्म डाइरेक्टरों ने हल किया. गीत फ़िल्म में वह पार्ट अदा करता है जो कैमरा नहीं दिखा सकता, वह है जज़्बात. ऐसी फ़िल्म में हर कला एक दूसरी कला से जुड़कर एक मुकम्मल पैग़ाम देती है, जो हिंदुस्तान की संगीत के उसूलों पर है. देवदास का एक गीत भाई को बहुत पसंद था: ‘बालम आय बसो मोरे मन में’. वह कहते यह गीत इतना खू़बसूरत है कि म्यूज़ियम में तस्वीर की तरह टाँगना चाहिए. यह गीत न तो बोलों में है और न ही स्वरों में. स्वरों के बीच जो मौन है, उसमें सहगल की जाती हुई रूह की आवाज़ है. बारबार गीत बजाकर सरोद के काले स्वरों के बीच-बीच में पूछते, कुछ सुनाई पड़ रहा है? जब मैं कहता यह तो साइलेंस है, तो वह कहते तुम बहरे हो. वह मानते थे कि फ़िल्म फ़ानी है, गीत अमर है.

बालम आय बसो मोरे मन में.


(जारी)

5 comments:

kk pandey said...

bhai badhiya post hai.. bahut din baad apni vidha ke bhitar se kaise koi duniya ko samajhta hai uski khubshurat adaygi dekhne ko mili. kkpandey

kk pandey said...

bhai kafi acchi post hai. bahut din baad koi aisi baat mili jisme koi apni vidha ke bhitar se duniya ko samajhne ke koshis karta najar aaya.

नीरज गोस्वामी said...

UFFF...KIS ALAG ANDAAZ MEN NIHAYAT KHOOBSURTI SE YE POST LIKHI HAI...BHAI WAAH...

NEERAJ

gft said...

कमाल है. कोई कैसे इतनी दीवानगी से लिख सकता है. चार के बाद और भी हिस्से बचे हैं क्या?
सब पढ डाले. बधाई.

इरफ़ान said...

कमाल है. कोई कैसे इतनी दीवानगी से लिख सकता है. चार के बाद और भी हिस्से बचे हैं क्या?
सब पढ डाले. बधाई.