मार्को देनेवी (1922-1998) एक अर्जेंटीनी साहित्यकार एवं पत्रकार थे, नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों के हक़ में लिखने वाले प्रतिबद्ध उपन्यासकार-लेखक के रूप में उनकी प्रसिद्धि है. रियलिटी को नए, अनदेखे और कई बार जादुई परिवेश में ले जाना उनकी खासियत है. मैं खुद उनके काम से परिचित नहीं हूँ.. यह छोटी सी रचना मेरी पाठ्यपुस्तक में है, सीधे स्पैनिश से अनुवाद कर यहाँ रख रहा हूँ..
मक्खियों के भगवान
मक्खियों ने अपने भगवान की कल्पना की. वे भी मक्खी थे. मक्खियों के भगवान एक मक्खी थे, कभी हरी, कभी काली-सुनहरी, कभी गुलाबी, कभी सफ़ेद, कभी बैंगनी... एक अनोखी, अभूतपूर्व मक्खी, एक बेहद खूबसूरत मक्खी, एक विशालकाय मक्खी, एक भयावह मक्खी, एक दयालु मक्खी, एक क्रुद्ध मक्खी, एक न्यायशील मक्खी, एक जवां मक्खी, एक बूढ़ी मक्खी, मगर हमेशा एक मक्खी होते थे.
कुछ उनका आकार एक बैल जितना विशाल बताते थे, कुछ उन्हें इतना सूक्ष्म बताते थे कि वे अदृश्य थे. कुछ धर्मों में उनके पंख नहीं होते थे (वे उड़ते एवं हवा में रहते थे लेकिन भला उन्हें पंखों की जरूरत क्यों हो?), जबकि अन्य धर्मों में उनके असीम पंख होते थे. कहीं उनके श्रृंग सींग-नुमा होते थे, कहीं उनकी आँखें पूरे चेहरे में फैली होती थीं. कुछ लोगों के अनुसार वे लगातार भिनभिनाते थे, वहीं दूसरों का कहना था कि वे चुप रहते हैं लेकिन अन्तर्यामी हैं, बिना कहे भक्तों तक बात पहुंचा देते हैं. और सभी के अनुसार जब मक्खियाँ मरती थीं, उन्हें एक तीव्र विमान में स्वर्ग ले जाया जाता था. स्वर्ग ! सड़ते हुए मांस का एक ढेर था, सड़ता और बदबू मारता हुआ, जिसे मरी हुई मक्खियाँ अनंतकाल तक खाती रहती थीं किन्तु वह ख़त्म नहीं होता था, वह स्वर्गीय अवशिष्ट नित पुनर्निर्मित होता रहता था, मक्खियों के झुण्ड के नीचे वह नित नए रूप धरता था.. मगर यह पुण्यवान मक्खियों का झुण्ड था. क्योंकि पापी मक्खियाँ भी थीं, और उनके लिए एक नर्क था.. पापी मक्खियों का नर्क एक बिना कचरे की जगह थी, जहां अपशिष्ट नहीं थे, कूड़ा नहीं था, बदबू भी नहीं थी..जहां कुछ भी नहीं था, एक साफ़-सुथरी चमकती हुई जगह, और तुर्रा यह कि वहां हमेशा खूब उजाला रहता था. याने एक डरावनी घृणास्पद जगह....
6 comments:
bahut hi sundar rachna hai. aabhar padhwane ke liye. anuwaad bhi bha raha hai.
gajab hai
dhanywad balu
गजब की रचना। बिल्कुल सही कल्पना अपने अपने स्वर्ग व अपने अपने भगवान की।
घुघूती बासूती
...उनके श्रृंग सींग-नुमा होते थे,...
बात समझ नहीं आई। सींग शब्द तो श्रृंग का ही तद्भव है।
@सोनू जी: दरअसल यहाँ मक्खी में जो एंटीना नुमा रचना होती है उसे श्रृंग कहकर यह बताया है कि वे जानवरों के सींग जितने बड़े होते हैं.. आपका शुक्रिया जो इसकी ओर इंगित किया, मैं सोचता हूँ कि इसे कैसे ठीक किया जाये. मैं एंटीना शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहता था..
बढ़िया , बहुत उम्दा... सच में इकबाल इस तरह से कभी सोचा नहीं | भगवान पर जब भी भरोसा किया और उन्हें इमेजिन करने की कोशिश की है, इंसान टाइप में ही की है | अभी पढ़ के अपनी एक और बेवकूफी का अंदाजा हो रहा है | :)
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