Monday, November 7, 2011
थम गया है ब्रह्मपुत्र का सुरीला निनाद
...ये शायर कितनी आसानी से आवाम के दिलों की आहट सुन लेता है । ये रात जो लोगों के दर्द की रात है, आवाम के ग़म की रात है, जब उसके सीने में गूंजती है, तो वो तलाश करने लगता है, ये आवाज़ कहां से आ रही है । इंकलाब किस रास्ते से आ रहा है और दर्द किस रास्तेी से आगे बढ़ रहा है । वो कान लगाए सुन रहा है और
मुझसे पूछ रहा है ये किसकी सदा है ....
ये वक्तव्य है गुलज़ार साहब का जो उन्होंने भूपेन हज़ारिका के एक एलबम में दिया है. ब्रह्मपुत्र बह रही है,आसाम के बीहड़ वनों में पत्तों पर सरसराहट जारी है लेकिन शायद उसका वह खरज खो गया है जिसे ज़माना भूपेन हज़ारिका के नाम से जानता था. हिन्दुस्तान ने भूपेन दा के रूप में एक ऐसा कलावंत खोया है जिसे सच्चे अर्थों में संस्कृतिकर्मी कहा जा सकता है. रंगकर्मी,कवि,संगीतकार,गायक,फ़िल्मकार क्या नहीं थे भूपेन दा. सबकुछ होते हुए वे अपनी असमिया पृष्ठभूमि को भूले नहीं और उसी का आसरा लेते हुए सांस्कृतिक अलख जगाते रहे . इस शिनाख़्त से उन्हें ख़ासी मुहब्बत थी और अपनी असमिया टोपी और बण्डी को उन्होंने ताज़िन्दगी अपनी पहचान बनाए रखा. ओ गंगा बहती हो क्यूं,डोला हो डोला,एक कली दो पत्तियाँ और दिल हूम हूम करे जैसे गीतों के ज़रिये हम हिन्दी-भाषी लोगों ने भूपेन हज़ारिका को जाना इसलिये हमारे लिये भूपेन दा का निधन महज़ एक आवाज़ का चला जाना है लेकिन हक़ीक़त यह है कि देश ने एक ऐसे आईकॉन को खो दिया है जिसकी शख्सियत में वसुधैव कुटुम्बकं की परिकल्पना प्रतिध्वनित होती थी. पहले भूपेन हज़ारिका ने एक बाल-प्रतिभा के रूप में चौंकाया और बाद में कोलम्बिया विश्व विद्यालय में पॉल रॉवसन की रचनाओं को गाकर पश्चिम को बता दिया यह भारतीय प्रतिभा किस बलन की है. सही देखा जाए तो गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टेगौर और महान नृत्यगुरू उदयशंकर के बाद भूपेन हज़ारिका ही वह हस्ती थे जिसके विचार और कर्म में संस्कृति जैसा शब्द हदें तोड़ता नज़र आता था. वे बाज़ मौक़ो पर साबित करते रहे कि तहज़ीब का ताल्लुक किसी देश,मज़हब,प्रांत और ज़ुबान विशेष से नहीं होता है.सन २०००-२००१ का लता अलंकरण लेने भूपेन हज़ारिका जब इन्दौर तशरीफ़ लाए तो उनसे नईदुनिया के लिये बातचीत करने का मौक़ा मिला,इसी शाम मुझे अलंकरण समारोह भी एंकर करना था. बातचीत ख़त्म होते होते दादा से कुछ ऐसा अपनापा हो गया कि उन्होंने कहा कि तुम ही आप मेरे कंसर्ट को भी शुरू करना. मैंने भूपेन दा से कहा कि आप क्या क्या गाने वाले हैं तो उन्होंने कहा वहीं देख लेंगे.वाक़ई ऐसा ही हुआ .वे बिना किसी भूमिका के बतियाते हुए गीत सुनाते गये और मालवा की उस रात को अपनी पाताल में से उभर कर आने वाली आवाज़ से महका दिया. वे प्रगतिशील विचाधारा से भी जुड़े रहे और इप्टा के समर्थ कलाकर्मियों में आदरणीय बने रहे. इंटरव्यू के दौरान उनसे फ़िल्मों पर बात तो होती ही रही लेकिन मैं महसूस करता रहा कि उनकी शख़्सियत में एक संगीतकार कभी भी अनुपस्थित नहीं होता. वे होटल की टेबल पर ही हाथ से ताल देते हुए मुझे ’ हम होंगे क़ामयाब ’ सुनाने लग गये. जब मैंने भी गुनगुनाना शुरू तो उन्होंने कहा ज़ोर से गाओ,ऐसे गीत गुनगुनाए नहीं चिल्ला कर गाए जाते हैं और कुछ देर के लिये मैं उनकी समवेत गान की उक्लास का विद्यार्थी हो गया. उनके स्वर में मेलोडी से ज़्यादा वह खुरदुरापन था जो हमारे जनपदीय परिवेश की जान होता है. उनके किसी भी गीत को सुनिये तो आपको लगेगा कि चाँदनी रात में एक भील खुले आसमान के तले गुनगुनाता चला जा रहा है. उनके स्वर में समाई आदिम छुअन बहुत कुदरती थी और सुनने वाले के दिल में उतर जाती थी.यही वजह है कि दिल हूम हूम करे का हज़ारिका संस्करण , मंगेशकर संस्करण से ज़्यादा करिश्माई लगता है. भूपेन हज़ारिका हमारे बीच से चले गये हैं लेकिन अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गये हैं जिसमें मिट्टी की सौंधी महक और विश्व-संगीत का सच्चापन हमेशा गूँजता रहेगा.
(चित्र में ख़ाकसार भूपेन दा के साथ खड़ा है. यह तस्वीर सन २००१ की है जब भूपेन हज़ारिका लता अलंकरण से इन्दौर में नवाज़े गये थे)
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10 comments:
aap ne kahaa ki..'देश ने एक ऐसे आईकॉन को खो दिया है जिसकी शख्सियत में वसुधैव कुटुम्बकं की परिकल्पना प्रतिध्वनित होती थी.'
Sahmat hun.
Aap bahut Lucky hain jo itne sureele aur mahaan kalakaaron se milte rahte hain/rahe hain...
Bhupen Da ko Vinamr shraddhanjali.
भूपेन हज़ारिका हमारे बीच से चले गये हैं लेकिन अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गये हैं जिसमें मिट्टी की सौंधी महक और विश्व-संगीत का सच्चापन हमेशा गूँजता रहेगा.
सच कहा आपने...भूपेन दा जैसा न कोई हुआ है और ना ही कोई दूसरा होगा...दिल हूम हूम करे...
नीरज
गंगा से प्रश्न पूछने वाला हमें छोड़ कर चला गया।
लोहित किनारों का दर्द हम तक पहुँचाने वाला.
बहुत बढ़िया .
बहुत खूब आप मेरी रचना भी देखे ...........
हक़ीक़त यह है कि देश ने एक ऐसे आईकॉन को खो दिया है जिसकी शख्सियत में वसुधैव कुटुम्बकं की परिकल्पना प्रतिध्वनित होती थी. yakeenan!
Bhupenda , like Latadidi, sings the words in such a way that imparts its meaning to listeners the essance of that ' word ' only those who understand the nuances of a language can sing this way ...and the voice of each of us humans is unique ...as is this Legendry singer Bhupenda's is ....will remember him with his songs ...he will live through them .
Ganga Behtee ho Kyun ?
Mere samne taiyyar hua tha
Bhupenda , Papaji Pandit Narendra Sharma ji
ke Ghar aaye the , Cane Chair pe baithe the ,
sub yaad aa raha hai -
aapne bahut bhaav bheeni yaadein sang baantee
Bhupenda unke Sangeet se Amar rahenge -
_ Lavanya
गंगा मैया को जैसी श्रद्धांजलि भूपेन दा ने अपने गीत में दी है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। इस महान कलाकार को हमारी ओर से भी श्रद्धांजलि।
उनके किसी भी गीत को सुनिये तो आपको लगेगा कि चाँदनी रात में एक भील खुले आसमान के तले गुनगुनाता चला जा रहा है.यही वजह है कि दिल हूम हूम करे का हज़ारिका संस्करण , मंगेशकर संस्करण से ज़्यादा करिश्माई लगता है.wakayee vah dil ki sada hai...
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