Saturday, February 11, 2012

तीन रुपए किलो

तीन रुपए किलो

अष्‍टभुजा शुक्‍ल


छोटे-छोटे घरों तक पहुँचे अमरूद
नाक रख ली फलों की
बिके चार रुपए किलो

नमक-मिर्च से भी
खा लिए गए
छिलके और बीज तक
कर दिए समर्पित

तर गए पैसे
अमरूद के साथ

सजी-धजी दुकानों पर
बैठे-बैठे
महंगे फलों ने
बहुत कोसा अमरूदों को
अपना भाव इतना गिराने के लिए
बच्चों को चहकनहा बनाने के लिए

फलों का राजा भी रिसियाया बहुत
अमरूदों से तो कुछ नहीं कहा
लेकिन सोचने लगा कराने को
लोकतंत्र के विनाश का यज्ञ

धिक्कार भाव से देखा
दुकानों पर बैठे
महंगे फलों ने
ठेलों पर से
उछल-उछल कर
झोलों में गिरते अमरूदों को

ठेलों पर से ही
दंतियाए जाने लगे
बन्धुजनों में बँटने लगे
प्रसाद की तरह
छोटे-छोटे घरों तक
पहुँचकर भी
चौका-बर्तन में
नहीं पहुँच सके अमरूद

उठे तराजू
थमे नहीं एक भी बार
चिल्ला-चिल्ला कर
अपने नाम से
सांझ होते-होते
बिक गए तीन रुपए किलो

अपने में थोड़ी-थोड़ी खाँसी
लिए हुए भी न खाँसते
साफ़ गले से चिल्ला-चिल्ला कर बिकते
वेतन, ओवरटाईम, मज़दूरी या भीख के
पैसों से मिल जाने वाले

किसी को बिना कर्ज़दार बनाए
अमरूद बिके
तीन रुपए किलो

उबारे गए
तीन रुपए
जेब की माया से मुक्त
नहीं फँसे
किसी कुलत्त में
ख़रीद लाए उतने में
एक किलो अमरूद

पाँच-सात मुँह के लिए

4 comments:

rashmi ravija said...

ये मेरा सबसे प्रिय फल है...इस पर लिखी कविता बहुत अच्छी लगी.

राजेश उत्‍साही said...

अमरूद के बहाने आम आदमी की बात। सुंदर और सहज कविता में बात। रश्मि जी की तरह मेरा भी यह एक मात्र प्रिय फल है। जब मिले जहां मिले,मैं उसे खाने को तैयार रहता हूं।

nilesh mathur said...

बहुत ही सुंदर, बेहतरीन रचना।

nilesh mathur said...

बहुत ही सुंदर, बेहतरीन रचना।