Thursday, February 9, 2012

चलल चलल चलल चलल


अष्टभुजा शुक्ल की कविता पर एक पोस्ट कुछ दिन पहले लगाई थी. आज उन की एक कविता और पढ़िए-

यजामहे यजामहे

अष्‍टभुजा शुक्‍ल

कूच किए ललमुँहे
कि कूद पड़े कलमुँहे
चलल चलल चलल चलल
लुहे लुहे लुहे लुहे !

रात को सियार चुहे
दिन में झट-उखार चुहे
गन्ने के गेंड़ हरे
ढीठ नीलगाय चुहे
भगल भगल भगल भगल
लुहे लुहे लुहे लुहे !

धरती को लोग दुहे
जंगल को लोग दुहे
सेठ क्षीरसागर के
साँड छानकर दुहे
चलल चलल चलल चलल
लेहे लुहे लुहे लुहे !

कुछ रहे बिना, रहे
कुछ बिना रहे, रहे
कुछ बिना कहे, रहे
कुछ बिना सहे, रहे
स्वाहा जजमान्हे
यजामहे ! यजामहे !

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

ध्वन्यात्मक प्रभाव लिये सामाजिक सत्य..