भूपेन सिंह
साहस की पत्रकारिता (जर्नलिज्म ऑफ़ करेज) का नारा देने वाले इंडियन एक्स्रप्रेस ग्रुप की पोल इस बार पूरी तरह खुल गई है. ग्रुप के दिवंगत मालिक रामनाथ गोयनका के नाम पर हर साल दिए जाने वाले पत्रकारिता के पुरस्कारों में जिस तरह कॉरपोरेट लूट में शामिल व्यावसायिक घरानों को प्रायोजक बनाया गया, उससे साफ़ हो गया है कि ऐक्सप्रेस सालभर उनके पक्ष में माहौल बनाने का काम यों ही नहीं कर रहा था. अब उनके बीच लेन-देन का मामला बिल्कुल साफ़ हो गया है. वैसे तो मुनाफ़ा कमाने की होड़ में शामिल ऐक्सप्रेस के अनैतिक कारनामे नए नही हैं लेकिन आम पाठकों को कई बार ऐक्सप्रेस के बारे में भी लगता है कि यह एक जन पक्षधर अख़बारी घराना है. ख़ास तौर पर हिंदी में एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी अख़बार जनसत्ता को पढ़ने वाले ज़्यादातर पाठकों के भीतर यह भ्रम कुछ ज़्यादा ही गहरा है.
इसी सोलह तारीख़ को देश के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने तीस पत्रकारों को पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ठ योगदान के लिए पांचवे रामनाथ गोयनका एक्सिलेंस इन जर्नलिज्म अवॉर्ड दिया. ये कोई ऐसा-वैसा पुरस्कार नहीं है जिसे किसी ज़िले की नगर पालिका हॉल या दिल्ली में जन आंदोलनों के ठिकाने, गांधी पीस फ़ाउंडेशन जैसी जगहों में दिया जाता हो. दिल्ली के फ़ाइव स्टार होटल ताज पैलेस में दिए गए इस पुरस्कार की हर बात से अभिजात झलकता है. पुरस्कार पाने वाले सभी पत्रकार कॉरपोरेट मीडिया से ताल्लुक रखते हैं और उन्हें चुनने वालों में भी कॉरपोरेट जगत की ही महानतम हस्तियां शामिल हैं. पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा करने वाली इन दस विभूतियों में एचडीएफ़सी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख, महिंद्रा एंड महिंद्रा कंपनी के केशुब महिंद्रा, मार्केटिंग कंसल्टेंट रमा बीजापुरकर, बिड़ला घराने से ताल्लुक रखने वाली हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप की मालकिन शोभना भरतिया, इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, भारत में तथाकथित हरित क्रांति के नायक एमएस स्वामीनाथन, अदानी ग्रुप ऑफ़ इंडस्ट्रीज के वित्तीय सलाहकार बकुल ढोलकिया, पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल ऑफ़ इंडिया यानी सरकारी वकील, फाली एस नरीमन और किसी जमाने में सार्थक राजनीतिक सिनेमा बनाकर नाम कमाने वाले और अब अमीरों की महफिलों की शान समझे जाने वाले श्याम बेनेगल शामिल हैं.
पुरस्कारों के प्रायोजकों में बड़े बांध बनाकर पर्यावरण के खिलवाड़ करने के लिए कुख्यात कंपनी जेपी ग्रुप और भारत में जेनेटिकली मोडीफाइड बीजों की कंपनी मोहयो मॉनसेंटो भी शामिल हैं. पहले से ही मीडिया नेट, प्राइवेट ट्रीटी, क्रॉस मीडिया होल्डिंग और पेड न्यूज़ जैसी बीमारियों से ग्रस्त कॉरपोरेट मीडिया में लेन-देन का ये एक और बड़ा उदाहरण हैं. इंडियन ऐक्सप्रेस ग्रुप बड़े बांधों की लगातार वकालत करता रहा है. ख़ास तौर पर इसने नर्मदा आंदोलन का खुलकर विरोध किया है. साथ ही इसने उत्तर पूर्व में बन रहे हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स का भी खुलकर समर्थन किया है. जेपी ग्रुप नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर बांध का एक ठेकेदार रहा है और उत्तर पूर्व में भी उसके प्रोजेक्ट चल रहे हैं. फिलहाल यह अरुणाचल प्रदेश के हिरोंग पावर प्रोजेक्ट की योजना बना रहा है. इसका समाज, पर्यावरण और मानवाधिकार अधिकारों के उल्लंघन के मामले में बहुत ही बुरा रिकॉर्ड रहा है. भारतीय बाज़ार नियामक सेबी ने इसे छह सौ मिलयन रुपयों के अवैध कारोबार में लिप्त पाया है.
मोहयो मॉनसेंटो दुनिया की सबसे बड़ी जीएम बीज कंपनियों में से एक मॉन्सेंटो की भारतीय शाखा है. देशभर में जीएम बीजों को लेकर लगातार जन आंदोलन चल रहे हैं. इन सब को ठेंगा दिखाकर इंडियन ऐक्सप्रेस ग्रुप जीएम फूड का समर्थन करता रहा है. पिछले साल जब जयराम रमेश वन और पर्यावरण मंत्री थे उन्होंने बीटी ब्रिंजल को इजाजत देने या न देने के संबंध में कई जन सुनवाइयां आयोजित की थीं. तब ऐक्सप्रेस ग्रुप ने जेनेटिकली मोडिफ़ाइड फ़सलों के पक्ष में एक अभियान चलाया था. अब उसी कंपनी को ऐक्सप्रेस ग्रुप पुरस्कार वितरण में अपना साझीदार बनाता है. इन उदाहरणों से साफ़ हो जाता है कि आख़िर कैसे इन तरह के पुरस्कारों की बड़ी राशि जुटाई जाती है और उसके समारोह को पांच सितारा होटलों में आयोजित किया जाता है. पत्रकारिता और कॉरपोरेट की इस मिलीभगत पर सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण और उनके साथियों ने कई सवाल उठाए हैं.
यह पुरस्कार इस बात की तरफ़ भी इशारा करते हैं कि किस तरह देश के उपराष्ट्रपति भी कॉरपोरेट की दुनिया का हिस्सेदार बनने में कोई शर्म नहीं महसूस करते हैं. कभी पेड न्यूज पर राज्यसभा में चल रही चर्चा के दौरान उन्होंने कहा था कि उदारीकरण की नीतियां अपनाने के बाद भारतीय मीडिया के गुणसूत्र बदल गए हैं. ऐसे पुरस्कार समारोहों में उनकी मौज़ूदगी दर्शाती है कि भले ही देश की जनता कॉरपोरेट मीडिया के प्रभाव में अपने गुणसूत्र बदलने के लिए तैयार न हो वे अपना सरकारी धर्म निभाते रहेंगे. कॉरपोरेट समेत सारे भारतीय मीडिया को एक ही तराजू पर तोलने वाले प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू को इस गोरखधंधे में कुछ भी ग़लत नज़र नहीं आता है और वे ऐसे समारोहों की शोभा बढ़ाते नज़र आते हैं.
इंडियन ऐक्सप्रेस ग्रुप पैसे के बल पर धीरे-धीरे रामनाथ गोयनका पुरस्कारों को भारत के सबसे बड़े पत्रकारिता पुरस्कार बनाने की कोशिश कर रहा है. बहुत हद तक उसे इसमें कामयाबी भी मिल रही है. लेकिन इन पुरस्कारों का खोखलापन अगर देखना हो तो इसके लिए एक और मिसाल दी जा सकती है. जो ग्रुप पत्रकारिता के इन पुरस्कारों की घोषणा करता है उसी के अख़बार के पत्रकारों को पुरस्कार कैसे दिए जा सकते हैं? माना कि जेपी और मॉनसेंटो को पार्टनर बनाने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती लेकिन अपने ही मीडिया हाउस के पत्रकारों को पुरस्कार करने में भी क्या कोई हितों का टकराव नही है? इस बात की अनदेखी करते हुए इस बार भी ऐक्सप्रेस के तीन पत्रकारों को पुरस्कार दिया गया है. इसमें मनीष छिब्बर, शुभ्रा गुप्ता, मुजम्मिरल जलील समेत एक टीम पुरस्कार शामिल है. इसी तरह हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप की शोभना भरतिया चयन कमेटी में थी और हिंदुस्तान ग्रुप की सोना कालरा को भी पुरस्कार दिया गया है.
हैरान करने वाली बात तो यह भी है कि इन पुरस्कारों का प्रायोजक एनडीटीवी ग्रुप भी है. ये ग्रुप पत्रकारिता में भ्रष्ट आचरण की वजह से पहले ही काफ़ी कुख्यात हो चुका है. इस बार आयोजक एनडीटीवी के पांच पत्रकारों को भी पुरस्कार दिया गया है. इनमें शिखा त्रिवेदी, ह्रदयेश जोशी, माया मीरचंदानी, अंजली दोषी और रजत केन शामिल हैं. यहां भी आत्मनियमन की माला जपने वाले कॉरपोरेट मीडिया के दिग्गजों को कोई हितों का टकराव नज़र नहीं आता है. गौरतलब है कि एनडीटीवी की दुलारी और राडिया टेप्स में मौजूद बरखा दत्त के साथ राजदीप सरदेसाई को भी ये पुरस्कार पहले ही मिल चुका है. टाइम्स नाव के अर्नब गोस्वामी को ये पुरस्कार न मिले ऐसा कैसे हो सकता है, इसलिए वो भी पुरस्कृत और महान पत्रकारों की श्रेणी में पहले से मौजूद हैं. चिंता की बात यह है कि कॉरपोरेट मीडिया में काम करने वाले वामपंथी रुझान के कई हिंदी के पत्रकारों के लिए भी यह पुरस्कार एक प्रलोभन बन गया है. इनमें से पुण्य प्रसून वाजपेई जैसे पत्रकार तो इसको अलग-अलग श्रेणियों में दो बार झटक चुके हैं.
देश की जनता चाहे कितना ही बोले कि कॉरपोरेट मीडिया जन हितों की अनदेखी कर रहा है लेकिन ऐक्सप्रेस ग्रुप वहां से ऐसे तथाकथित पत्रकारों को हाज़िर कर देता है जो जन हितों की रक्षा करते हैं. ऐसे में आम पत्रकारों को समझना पड़ेगा कि ये पुरस्कार उनके लिए नहीं है. अगर वे इन्हें पाना चाहते हैं उनके लिए ये मृग मरिचिका से ज़्यादा कुछ नही हैं. इसके लिए उन्हें अपनी रीढ़ की हड्डी हर हाल में झुकानी पड़ेगी. वरना अपने अधिकारों के लिए एकजुट होने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. आज भी कई ऐसे प्रतिभाशाली पत्रकार कॉरपोरेट मीडिया में काम करने को मजबूर हैं जो सामाजिक सरोकारों से गहरा रिश्ता रखते हैं लेकिन किसी ट्रेड यूनियन के न होने के अभाव में कॉरपोरेट के चाटुकार पत्रकार उन्हें कभी आगे नहीं बढ़ने देते. इन पुरस्कारों को पाने वालों में ज़्यादातर पत्रकार उस हाई-फाई दुनिया से नाता रखते हैं जिसका इस देश की आम जनता से कोई नाता नहीं है. कई पत्रकार तो सीधे-सीधे आर्थिक जगत या कॉरपोरेट की गतिविधियों को कवर करते हैं. क्या ऐसे पत्रकारों से हम अपेक्षा कर सकते है कि वे कभी कॉरपोरेट लूट के ख़िलाफ़ बोल पाएंगे?
लोगों के बीच लगातार अपनी साख खो रहा कॉरपोरेट मीडिया ऐसे कार्यक्रम कर फिर से विश्वसनीयता हासिल करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन जितना ही वो सही दिखने की कोशिश कर रहा है उतना ही उसकी हकीकत और सामने आती जा रही है. इस तरह की हरकत करने वाला ऐक्सप्रेस ग्रुप अकेला नहीं है. ब्रांड बिल्डिंग के लिए इस तरह के मीडिया हाउस बड़े-बड़े मीडिया कॉन्कलेव आयोजित करते हैं. जिसमें देश और दुनिया के कई नामधारी लोगों को बुलाया जाता है. फिल्मी दुनिया के नकली नायकों के अलावा इनमें भ्रष्टाचार शिरोमणि राजनेता भी बड़ी संख्या में शिरकत करते हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो ऐसे कार्यक्रम मुनाफ़ाखोरों के जलसे के अलावा और कुछ नहीं होते. तमाम अन्य कॉरपोरेट मीडिया घरानों की तरह इंडियन ऐक्सप्रेस के लिए भी पत्रकारिता एक धंधे के अलावा और कुछ नहीं है. दिल्ली और मुंबई के पत्रकार इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि साहस की पत्रकारिता करने वाले इस अख़बार ने मुनाफ़े के लिए कितने समझौते किए हैं. दिल्ली के बहादुर शाह जफ़र मार्ग में अख़बार के नाम पर सरकारी जम़ीन भीख में लेकर इसने वहां जो ऐक्सप्रेस बिल्डिंग बनाई है वहां आज कई निजी कंपनियों के ऑफिस किराये पर चलते हैं. ठीक इसी तरह का किस्सा मुंबई नैरीमन प्वाइंट पर बने ऐक्सप्रेस टावर का भी है. इस तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में भी इसने पत्रकारिता के नाम पर सरकारी ज़मीन हथियाने के बाद आदर्शों को ऊंचा उठाकर साहस की पत्रकारिता जारी रखी है.
जनपक्षीय पत्रकारों और लोगों को मिलकर यह घोषणा करनी पड़ेगी कि पत्रकारिता में मुनाफ़ाखोर मालिकों के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कारों को ठुकराने का वक़्त आ गया है. लेकिन जनता के बीच जागरूकता न होने की वजह से ही कॉरपोरेट की ऐसी एकजुटता पर कोई सवाल नहीं उठते. इस तरह के अश्लील कार्यक्रमों में मीडिया, कॉरपोरेट और नेताओं का जमघट बताता है तमाम दावों के बावजूद उन्हें देश की जनता से कुछ लेना-देना नहीं है. ऐसे समारोह गांवों, जंगलों और हाशिए पर रहने वाली देश की बहुसंख्यक जनता के साथ मज़ाक के अलावा और कुछ नहीं हैं.
इस बीच वामपंथी रुझान के पत्रकार माने जाने वाले सिद्धार्थ वर्दराजन, द हिंदू के नए संपादक बनाए गए हैं. द हिंदू में इससे पहले लगातार मालिकों के परिवार से ही कोई संपादक बनता था. पहली बार परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को संपादक बनाया गया है. इसके पीछे भी पारिवारिक कलह की एक लंबी कहानी है. सिद्धार्थ भी कुछ साल पहले ऊपर वर्णित रामनाथ गोयनका पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं.
(समयांतर के फरवरी अंक में प्रकाशित)
1 comment:
अब जो पैसा देगा, वह प्रभावित भी करेगा..
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