Thursday, March 1, 2012

अकारण नहीं हैं निर्देशकों-अभिनेताओं के ये युग्म

सुशोभित सक्तावत का एक और उम्दा आलेख -


‘गॉडफादर’ के लिए मार्लन ब्रांडो और अल पचीनो को साइन करते ही कपोला ने आधी बाजी मार ली थी। इसके बाद तो उन्हें महज फिल्मांकन ही करना था।

सिनेमा के ‘पैट्रन सेंट’ कहलाने वाली फ्रांसीसी सिद्धांतकार ब्रेसां ने जब कहा था कि सिनेमा में अभिनय उतना ही विचित्र है, जितना स्टेज पर वास्तविक घोड़ा, तो उनका क्या आशय रहा होगा?

ब्रेसां ने सिनेमा को रंगमंच से अलगाने का बड़ा वैचारिक उद्यम किया था। उनकी पुस्तक ‘नोट्स ऑन द सिनेमैटोग्राफर’ इस विषय में एक महत्वपूर्ण टेक्स्ट है। वे मूलत: दो चीजों के बारे में बात करते हैं : अभिनय और छायांकन। अभिनेताओं को वे ‘मॉडल’ कहते हैं और निर्देशक को ‘सिनेमैटोग्राफर’।

ब्रेसां पूरे बल के साथ स्थापित करते हैं कि आंगिक-वाचिक अभिनय, संवाद योजना, कथानक इत्यादि रंगमंच के महत्वपूर्ण तत्व हैं, किंतु वे सिनेमा के अनिवार्य अवयव नहीं हो सकते। सिनेमा मूलत: फिल्मांकन है। सिनेमा का प्राथमिक दायित्व है : स्पेस का चाक्षुष निरूपित करना। ब्रेसां की स्थापनाएं सिनेमा के एक नए व्याकरण का सूत्रपात करती हैं। ब्रेसां सिनेमा के भरतमुनि हैं।

किंतु सिनेमा में अभिनय के बारे में ब्रेसां के जो विचार हैं, उनके बारे में क्या कहा जाए? वास्तव में ब्रेसां जिन्हें ‘मॉडल’ कहते हैं, उनके लिए हमारी रंगपरंपरा में एक सुंदर शब्द है : ‘व्यक्ति-व्याकरण’। यूरोपीय परंपरा में इसका समानार्थी शब्द होगा : ‘परसोना’।

यानी किसी व्यक्ति के अंतर्निहित गुण-तत्वों का ऐसा वैशिष्ट्य, जो उसके प्रभाव को अद्वितीय बना देता है। रंगमंच का काम पेशेवर अभिनेताओं के बिना नहीं चल सकता, लेकिन सिनेमा में यदि अभिनेता का ‘परसोना’ अनुरूप है, तो नॉन एक्टर्स भी पेशेवर अभिनेताओं से बेहतर साबित हो सकते हैं।

यही कारण है कि कुछ निर्देशक हमेशा कुछ खास अभिनेताओं के साथ काम करना पसंद करते रहे हैं, क्योंकि उनकी भौतिक उपस्थिति के कारण उनके सिनेमा में एक विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न होता था। ‘जंजीर’ के लिए अमिताभ बच्चन का चयन अनायास था, लेकिन यही वह फिल्म थी, जिसने ‘एंग्री यंग मैन’ का ‘परसोना’ रचा और फिर अमिताभ को लेकर ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’, ‘काला पत्थर’ जैसी फिल्में बनाई गईं। यह मिथक-रचना की तरह है। व्यक्तित्व का विग्रह।

कपोला ने जब ‘गॉडफादर’ बनाई तो उनके जेहन में दो नाम साफ थे : दोन वीतो के लिए मार्लन ब्रांडो और माइकल कोर्लिओन के लिए अल पचीनो। यह कपोला का मास्टर स्ट्रोक था। ब्रांडो और पचीनो को साइन करते ही उन्होंने आधी बाजी मार ली। इसके बाद उन्हें महज फिल्मांकन ही करना था। बिमल रॉय दिलीप कुमार के बिना ‘देवदास’ नहीं बना सकते थे। देवदास का किरदार दिलीप कुमार की नियति थी।


वर्नर हरसोग क्लॉस किन्स्की के बिना ‘अगिरे’ और ‘फिट्जकाराल्डो’ नहीं बना सकते थे। हरसोग के नायकों की आत्महंता महत्वाकांक्षा के लिए किन्स्की से बड़ा व्यक्ति-रूपक कोई दूसरा न हो सकता था। टॉम हैंक्स के बिना ‘फॉरेस्ट गम्प’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मिलोश फोरमैन ने जैक निकलसन को ध्यान में रखकर ही ‘कुक्कूज नेस्ट’ में मैकमर्फी का यादगार किरदार रचा। सत्यजित राय और सौमित्र चटर्जी, अकिरा कुरोसावा और तोशीरो मिफूने, यासुजिरो ओजू और चिशू रियू, इंगमार बर्गमैन और मॅक्स वान सिडो, मार्टिन स्कोर्सीजे और रॉबर्ट डी नीरो, निर्देशकों-अभिनेताओं के ये युग्म अकारण नहीं हैं।


सिनेमाई ‘परसोना’ का एक बेहतरीन उदाहरण हैं गुरुदत्त। ‘प्यासा’ में दिलीप कुमार होते तो बड़ा मार्मिक अभिनय करते, किंतु गुरुदत्त अभिनय नहीं करते, उनका गुंथा हुआ व्यक्तित्व इस फिल्म को एक अर्थवत्ता दे जाता है। अगर इस फिल्म के लिए गुरुदत्त को कभी कोई पुरस्कार दिया जाता तो उन्हें कुछ यूं पुकारा जाता : ‘और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जाता है गुरुदत्त को, जिन्होंने ‘प्यासा’ में अभिनय ‘नहीं’ किया था!’

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सच है, कुछ पात्र लिखते ही निश्चित हो जाते हैं..

मुनीश ( munish ) said...

बड़ा ही सुन्दर, अर्थवान विश्लेषण है । हिन्दी में ऐसी जानकारियाँ भला कहाँ । धन्यवाद ।