Friday, April 13, 2012

आरज़ू अपनी धुन का है पक्का - राजेश सकलानी की कविता

कल आपने राजेश सकलानी के नए कविता-संग्रह 'पुश्तों का बयान' से एक कविता पढ़ी थी. आज उस संग्रह पर हमारे कबाड़ी मित्र शिवप्रसाद जोशी की एक टिप्पणी उनकी वेबसाईट हिलवाणी से साभार प्रस्तुत है और एक कविता भी. जल्द ही इस संग्रह से कुछ और कविताएँ आपको कबाड़खाने में और पढ़ने को मिलेंगी.

राजेश सकलानी का कविता संग्रहः पुश्तों का बयान 


-शिवप्रसाद जोशी 


किसी जगह की इस तस्वीर में किसी समय की धूप है तक़लीफ़ों से निपटकर आते हैं कुछ जने भीतर से ख़ुशी आती है और त्वचा में थोड़ा सा रंग पहचान में आती हैं आंखें फिर हवा आती है किसी दिन की चिड़िया गाती है. राजेश सकलानी की कविता ऐसे ही किसी दिन की कविता की तरह आती है. 20वीं सदी की समाप्ति पर उनका पहला संग्रह आया था. यानी 2000 में. 


21वीं सदी के दस साल पूरे होने के बाद उनका दूसरा संग्रह आया है. जिसका नाम ज़रा अटपटा सा है पुश्तों का बयान. जैसे ये नाम भी ज़रा जानबूझकर चुना गया लगता है. पुश्तों के हवाले से राजेश अपनी कवि उपस्थिति की सार्थकता को भी रेखांकित करना चाहते हैं. और ये जायज़ भी है. राजेश हिंदी के समारोही और अलंकरणी वातावरण से दूर ही देहरादून में रहते आए हैं. वो ज़रा हिंदी के सत्ता विमर्शों के जहां जहां हैं उन नवकेंद्रों से भी दूरदूर ही रहते आए हैं. उनकी कविता में किसी दिन की चिड़िया गाती है. हर दिन का शोर नहीं बजबजाता रहता है. राजेश किसी दिन की शिनाख़्त में रहने वाले कवि हैं. 


वो हर दिन की चतुराई से बचे रहने का अनुशासन जानते हैं. उनकी कविता में पुश्तों का बयान है कि हम तो भाई पुश्ते हैं दरकते पहाड़ की मनमानी संभालते हैं हमारे कंधे. राजेश सकलानी की कविता के बारे में वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी का कहना है कि वो बड़े हल्के हाथ से लिखते हैं. यानी उसमें कलात्मकता बौद्धिकता और फ़लसफ़ाई शुद्धता की ऐंठन नहीं है. उनकी रचनाएं पुश्तों की तरह ही टेढे़ मेढे़ से अटपटे से एक के ऊपर एक यूं ही रखी हुई सी जान पड़ती हैं. लेकिन आंतरिक रूप से मज़बूत और बंधी हुई. मुकम्मल. कम्प्लीट. रात यूं ही नहीं जाती कविता श्रम और रोमान का एक गीत है. इस पूरी कविता में लयबद्धता है. रात के बारे में हिंदी में जो अच्छी कविताएं हैं उनमें राजेश सकलानी की ये कविता ज़रूर याद रखे जाने लायक है. 


रात को हमारे समय के साधारण संघर्षों, चिंताओं और सरोकारों से जोड़ते हैं. उनकी कविता में जो रात गुज़रती है उसमें एक आम मनुष्य का इत्मीनान भी है. जैसे जैसे रात गहराती जाती है हमारे सामने उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी खुलती जाती है. नींद खुलती है तो लगता है उजाला अपने आप आया है... राजेश की कविता में धीरज और सहनशीलता और चुप्पी का फैलाव है. उनकी ज़्यादातर कविताएं इन्हीं ख़ूबियों से जैसे बनी हैं. 


बलदेव कविता पलायन की विडम्बना का शोर नहीं मचाती वो इतने पैने ढंग से चुप कविता है कि आप उसे पूरा पढ़कर तनाव महूसस करते हैं. बलदेव उसमें चला गया बलदेव है. जाते हुए आदमी के बारे में ये कविता एक एक सिनेमाई इफ़ेक्ट भी पैदा करती है. आखिर में बलदेव की हड़बड़ी भी इतिहास के विरुद्ध एक भाषा है जिसे वह शब्दों में बयान नहीं करता और पहाड़ जैसे विषय पर चुप रह जाता है. एक कविता है अमरीकाः कोई आसान सा किस्सा अमरीका का नहीं मिलता कोई बंदा नहीं मिलता पानी पीते लापरवाही से कमीज़ भीग जाती हो कोई बात बने जिसे मैं अपनी तरह से कह डालना चाहता हूं वह चले और ज़मीन पर चलते हुए कोई याद बनती हो़ कभी वह आए मेरी तरफ और मैं भूलता रह जाऊं पिछले सारे शिकवे


राजेश सकलानी इतने शेड्स और इतनी रंगतों और इतने कथनों में अपनी कविता को ले जाते हैं कि सहसा वो पकड़ में नहीं आती. क्योंकि आप कविता को एक तैयारी से पढ़ने का उपक्रम करते हैं. राजेश ऐसी किसी तैयारी और साजसज्जा विहीन कविता के रचनाकार हैं. वहां आपको उपक्रम नहीं करने होते. वहां लापरवाही है खटके हैं, भूले हैं संकोच हैं और इन सबके समांतर एक अमेरिका है, दमन है, फ़ौज है, जबड़े हैं और हिंसा है. 


राजेश सकलानी की कविता सार्वजनिक जीवन की उन सहजताओं आम लोगों की दिनचर्या के प्रसंगों और वंचितों ग़रीबों के उस स्वाभिमान को उन मौलिकताओं को सामने लाती है, बाज़ार के उन किनारों के बारे में बताती है जहां से हर वक़्त के लंपट और ख़ुदगर्ज़ लोग भी थोड़ा सहज और मनुष्य बनकर ही गुज़रते हैं. वो डीएल रोड के एलेक्ज़ेडर की कविता है, पल्टन बाज़ार के पास पेशाब वाली गली के बारे में बताती है. वो अमरूद वाले से लेकर शेर मोहम्मद की ज़िंदगियों का मुआयना करती हुई एक आहत उद्वेलित आत्मा की तरह पूरे शहर का चक्कर काटती है. 


शहर को, उसके जीवन को, उसके आम लोगों को उसके नवधनाढ्य को इतनी बेचैनी और इतनी तीव्र अनुभूति और इतनी निष्कपटता और इतनी इमोश्नल इंटेलिजेंस से देखने वाली ये विरल कविताएं हैं. एक कवि के रूप में राजेश की ये उपलब्धि है कि वो भावुकता और निष्क्रिय क्रोध की विक्टिम होने से कविता को बचा पाए हैं. राजेश सकलानी की कविता शहर के तमाम हाशिए का रुख़ करती है जहां भाई जी ज़रा जैसा अधूरा सा वाक्य बोलना ही काफ़ी है और बोलकर कोई प्यासा पानी पी सकता है.


वहां लाचारी बेकारी भुखमरी बदहाली फैली हुई है लेकिन इन पर रोने के बजाय राजेश की कविता उन्हें प्रतिरोध के औजारों में बदल देती है. उस अन्याय की शिनाख़्त का रास्ता और उससे लड़ने की एकजुटता उस कविता के आसपास बनने लगती है. लेकिन ये काम ख़ामोशी से होता है जैसे रात गुज़रती है जैसे नल से पानी बहता है जैसे बस चलना होता है. शहरी निम्नमध्यवर्ग और ग़रीब जीवन की इस निराली एकजुटता को दिखाने वाली राजेश सकलानी की कविता हिंदी में अपनी तरह की है. 


इस कविता में सबसे अलग बात ये भी है कि भाषाई बाज़ीगरी से परहेज़ करती हुई ये जीवन की खिलंदड़ियों में भी आवाजाही करती रहती है. राजेश ने भाषा का पराक्रम नहीं गढ़ा है उन्होंने जीवन को देखने की सामर्थ्य बढ़ाई है. जो यूं इन दिनों की भाषा समाज राजनीति में कितनी क्षीण होती जाती है. 


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पेश है संग्रह से एक कविता


अमरूद वाला


लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में 
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब 
आसानी से घोंपे गए 


पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में 
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते 
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का 
उनका छोड़ दिया रोना फैला


फ़र्श पर एक तीखी गंध अपनी राह बनाती, 
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।

2 comments:

Ek ziddi dhun said...

अब जब जीवन कविता से दूर होने लगता है तब ऐसी कविताएं हमारे जीवन को फिर उसी पुराने प्रेम में ले जाती हैं। राजेश सकलानी की कविताएं जलसा में पढ़ी थीं। मैं उन्हें नहीं जानता था पर उन कविताओं ने उन्हें मेरा प्रिय कवि बना दिया। सब्जी मंडी जैसी कविताओं ने चैन छीन लिया या फिर खोया हुआ सुकून बख्श दिया। असद ज़ैदी और शिवप्रसाद जोशी दोनों का ही उन पर लिखा पढ़कर अच्छा लगा।

प्रवीण पाण्डेय said...

रोजमर्रा के जीवन में कुछ नयापन ढूढ़ लाने से कविता अपना योगदान दे देती है।