Sunday, April 15, 2012

बस भात खाओ फुस्सैन मारो...


कल के अमर उजाला के हल्द्वानी से निकलने वाले संस्करण में स्थानीय संपादक जनाब सुनील शाह का ये लेख छपा है. मन में आया काश ऐसी बातें हफ्ते में एक बार ही सही देश के हर स्थानीय अखबार में छपा करतीं. आपसे बांटने का मन हुआ -




बस भात खाओ फुस्सैन मारो...

ईश्वर है या नहीं। इसका ठोस जवाब किसी के पास नहीं। लेकिन एक और सवाल है जो इसका जवाब है - सरकार है या नहीं। जो जवाब ईश्वर के होने या न होने का है, वही जवाब सरकार पर सवाल का है। दोनों नीली छतरी के इस या उस पार रहते हैं। कभी किरपा कर दी तो रियाया (यानि भक्तजन ) धन्य। ये भक्त या रियाया हमेशा दुखी ही रहते हैं, रुऊंटे हैं, कलपते रहते हैं। रोते-रोते आए हैं रोते-रोते जाएंगे। तूने ये नहीं दिया, तूने ये नहीं किया। पानी दे दो, गैस दे दो, बिजली दे दो, बच्चों को पढ़ा दो, फोड़े- फुंसी पक रहे हैं, डाक साब चीरा लगा दो।

जेब हमेशा खाली रहती है और पेट पीठ पर ही लगा रहता है, कभी भरता ही नहीं। चाहिए तारे, पेट में कुछ नहीं प्यारे। पीपली लाइव का नत्था याद है। नेताजी कहते हैं - बेटा इस देश में कुछ फ्री में नहीं मिलता। सरकार कैसे दे देगी। एक लाख रुपए मिलेंगे, लेकिन मरना पड़ेगा।

अरे रियाया कोई धंधा कर ले। स्कूल का चोखा है, कापी किताब ही बेच ले। काफी कट है। हर सीजन में लाखों बचते हैं। कोई महंगाई का रोना रोकर गिड़गिड़ाए तो और जोर से रोना शुरू कर देना- बचता ही क्या है, मिलता ही क्या है। तिजोरी कौन चेक कर रहा है। वैसे अब तो ये चढ़ दौड़ते हैं, लेना है तो लो नहीं तो आगे बढ़ो। सरकार कहती है कि मुक्त मंडी में ग्राहक का बाजार है वस्तु का नहीं पर, यहां तो फल वाला भी आगे बढ़ लो कहता है।

हां कुछ नहीं तो प्लाट काटो। नेता, अभिनेता, इल्लू, पिल्लू, जुल्मी, यानि हर दूसरा प्लाट काट रहा है। पहाड़ क्या प्लेन्स क्या। कौन-कौन ये धंधा कर रहा है और कौन-कौन खरीद रहा है अगर सुनोगे तो छोटे-मोटे स्विस बैंक सा पिटारा खुल जाएगा। अदने सा अदना अफसर रिजार्ट बनाने की औकात रखता है। छोड़ो सब चलता है।

सरकारी जमीन पर कब्जा भी कर सकते हो। फिक्र नहीं, अपने अब्बा ही की है। मोमो, चाउमिन एक्सपर्ट बन जाओ। कौन पूछ रहा है। हमारे पेट में इतना तेजाब है,  सब गल जाएगा। जिन पर तेजाब कम है उनके लिए सरकार ने ठेके खुलवा दिए हैं। मर मरा भी गए तो क्या फर्क। ऊधमसिंह नगर में सौ दिन में 118 लोग मर चुके हैं। एक और मर जाएगा। घर वाले भी तेरहवीं के बाद भूल जाते हैं। जो मर गया सो तर गया। अरे हां याद आया यहां तो सरकार मरने परभी कुछ नहीं दे रही। अच्छा हुआ नत्था ऊधमसिंह नगर में नहीं था।

फटे में पैर देने की आदत है तो पत्रकार बन जाओ। सड़क क्यों नहीं बनी, नहर नहीं ढकी, डाक्टर साब मर्ज पर नजर रखो जेब पर नहीं, इलाज क्यों नहीं हो रहा, कूड़ा क्यों नहीं उठ रहा। हर काम के लिए पूरा सरकारी अमला है। नहीं करता काम तो तुम क्यों दुबले हुए जा रहे हो। सरकार उसको तनखा दे तो देती ही है। पर माया तो ऊपरी की है। तनख्वाह के लिए तो गुल्लक है। ऊपरी इतनी माया भी है कि बैंक ही खोल दे।

कुछ और काम भी हैं। बड़ी तेजी से नमो नारायण आते हैं। गाड़ी- बंगला एक से बढ़कर एक, एक के बाद एक। कोई नहीं पूछता कहां से आया। कुछ दिन पहले तक तो चप्पलें चटकाता था।

वैसे चिंता न करो ऊपर वाला सब देख रहा है। बस थोड़ा कारपोरेट कल्चर आ गया है। काम का बंटवारा हो गया है । अलग अलग ठेके हैं, पहले आओ-पाओ भी है। जैसा रिश्ता वैसी मुंह दिखाई। कमीशन एजेंट भी हैं। पहले उनके पास जाओ, फिर ऊपर और ऊपर। तब भी बच गए तो सीधे ऊपर।

अच्छा रिरियाना बंद करो। तुम्हारे बस का कुछ है नहीं। आदि काल से चला आ रहा है, अनादि तक चलेगा। भात है न। तो मियां भात खाओ फुस्सैन मारो। कहीं ऐसा न हो ये भात भी मिलना बंद हो जाए।

2 comments:

राजेश उत्‍साही said...

लेखन के यह तेवर अब अखबारों में कहां मिलते हैं। बेहतर है।

मुनीश ( munish ) said...

अखबारों में अब एडिबल कंडोम के विज्ञापन छपते हैं ।