फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – १
मेरा जन्म उन्नीसवीं सदी के एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति के घर में हुआ था जिसकी ज़िंदगी मुझसे कहीं ज़्यादा रंगीन अंदाज़ में गुज़री. मेरे पिता सियालकोट के एक छोटे से गाँव में एक भूमिहीन किसान के घर पैदा हुए, यह बात मेरे पिता ने बताई थी और इसकी तस्दीक गाँव के दूसरे लोगों द्वारा भी हुई थी . मेरे दादा के पास चूँकि कोई ज़मीन नहीं थी इसलिए मेरे पिता गाँव के उन किसानों के पशुओं को चराने का काम करते थे जिनकी अपनी ज़मीन थी. मेरे पिता कहा करते थे कि पशुओं को चराने गाँव के बाहर ले जाते थे जहाँ एक स्कूल था . वह पशुओं को चरने के लिए छोड़ देते और स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते, इस तरह उन्होंने प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी की . चूँकि गांव में इससे आगे की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, वह गाँव से भाग कर लाहौर पहुँच गए. उन्होंने लाहौर की एक मस्जिद में शरण ली . मेरे पिता कहते थे कि वह शाम को रेलवे स्टेशन चले जाया करते थे और वहाँ कुली के रूप में काम करते थे . उस ज़माने में ग़रीब और अक्षम छात्र मस्जिदों में रहते थे और मस्जिद के इमाम से या आस-पास के मदरसों में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे . इलाक़े के लोग उन छात्रों को भोजन उपलब्ध कराते थे .
जब मेरे पिता मस्जिद में रहा करते थे तो उस ज़माने में एक अफ़गानी नागरिक जो पंजाब सरकार का मेयर था, मस्जिद में नमाज़ पढ़ने आया करता था. उसने मेरे पिता से पूछा कि क्या वह अफ़ग़ानिस्तान में अँग्रेज़ी अनुवादक के तौर पर काम करना पसंद करेंगे, तो मेरे पिता ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए अफ़ग़ानिस्तान जाने का इरादा कर लिया. यह वह समय था जब अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में आए दिन परिवर्तन होता रहता था . अफ़ग़ानिस्तान और इंग्लैंड के बीच डूरंड संधि की आवश्यकता का अनुभव भी उसी समय में हुआ और इसीलिए अफ़ग़ानिस्तान के राजा ने मेरे पिता को अँग्रेज़ों के साथ बात-चीत करने में सहायता करने के उद्देश्य से दरबार से अनुबंधित कर लिया. इसके बाद वह मुख्य सचिव और फिर मंत्री भी नियुक्त हुए. उनके ज़माने में विभिन्न क़बीलों का दमन किया गया जिसके परिणामस्वरूप हारने वाले क़बाइल (क़बीले का बहुवचन) की ख़ास औरतों को राजमहल के कारिंदों में वितरित कर दिया जाता था. ये औरतें मेरे पिता के हिस्से में भी आईं, मुझे नहीं मालूम कि उनकी संख्या तीन थी या चार .
बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में पंद्रह साल सेवा करने के बाद वह तंग आ गए और उनका ऊब जाना स्वाभाविक भी था क्योंकि राजा के अफ़ग़ानी मूल के कर्मचारियों को एक विदेशी का दरबार में प्रभावी होना खटकता था. मेरे पिता को प्रायः ब्रितानी एजेंट घोषित किया जाता और जब उस अपराध के फलस्वरूप उन्हें मृत्युदंड दिए जाने की घोषणा होती तो नियत समय पर यह सिद्ध हो जाता के वह निर्दोष हैं और उन्हें आगे पदोन्नति दे दी जाती . लेकिन एक दिन उन्होंने फ़कीर का भेस बदला और अफ़गानिस्तान के राजमहल से फ़रार हो गए और लाहौर वापस आ गए . लेकिन यहाँ वापस आते ही उन्हें अफ़ग़ानी जासूस होने के आरोप में पकड़ लिया गया . मेरे पिता की तरह फक्कड़ाना स्वभाव रखने वाली एक अँग्रेज़ महिला भी उस ज़माने में डाक्टर के रूप में दरबार से जुड़ी थी. उसका नाम हैमिल्टन था. उससे मेरे पिता की मित्रता हो गई थी .
अफ़ग़ानिस्तान के राजा से उसे जो भी पुरस्कार मिला था उसे उसने लंदन में सुरक्षित कर रखा था . इस प्रकार जब मेरे पिता अफ़ग़ानिस्तान से निकल भागे तो उसने उन्हें लिखा ‘तुम लंदन आ जाओ’. इस आमंत्रण पर मेरे पिता लंदन पहुँच गए और जब ब्रिटेन की सरकार को उनके लंदन आगमन की सूचना मिली तो मेरे पिता को यह संदेश मिला कि चूँकि अब तुम लंदन में हो तो मेरे दूत क्यों नहीं बन जाते ? मेरे पिता ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. और साथ ही उन्होंने कैंब्रिज में अपनी आगे की शिक्षा का क्रम भी जारी रखा . वहीं उन्होंने क़ानून की डिग्री भी प्राप्त की. मेरे पिता का नाम सुल्तान था इसलिए मैं फ़ारसी का यह मुहावरा तो अपने लिए दुहरा ही सकता हूं कि ‘पिदरम सुल्तान बूद’ (मेरे पिता राजा थे).
क़ानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद मेरे पिता सियालकोट लौट आए. मेरी आरंभिक शिक्षा मुहल्ले की एक मस्जिद में हुई. शहर में दो स्कूल थे एक स्कॉच मिशन की और दूसरा अमरीकी मिशन की निगरानी में चलता था. मैंने स्कॉच मिशन के स्कूल में प्रवेश ले लिया . यह हमारे घर से नज़दीक था . यह ज़माना ज़बरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल का था . प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था और भारत में कई राष्ट्रीय आंदोलन आकर्षण का केंद्र बन रहे थे . कांग्रेस के आंदोलन में हिंदू और मुसलमान दोनों ही क़ौमें हिस्सा ले रही थीं लेकिन इस आंदोलन में हिंदुओं की बहुलता थी . दूसरी ओर मुसलमानों की तरफ़ से चलाया जाने वाला खि़लाफ़त आंदोलन था .
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर परिदृश्य यह था कि तुर्क क़ौम ब्रितानी और यूनानी आक्रांताओं के विरुद्ध पंक्तिबद्ध थी परंतु उस्मान वंशीय खि़लाफ़त को बचाया नहीं जा सका और तुर्की अंततः कमाल अतातुर्क के क्रांतिकारी विचारों के प्रभाव में आ गया जिन्हें आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है . एक तीसरा आंदोलन सिक्खों का अकाली आंदोलन था जो सिक्खों के सभी गुरुद्वारों को अपने अधीन लेने के लिए आंदोलनरत था . इस प्रकार लगभग छह-सात साल तक हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख तीनों ही अंग्रेज़ के विरुद्ध एक साझे एजेंडे के तहत आंदोलन चलाते रहे .
हमारे छोटे से शहर सियालकोट में जब भी महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और सिक्खों के नेता आते थे तो पूरा शहर सजाया जाता, बड़े-बड़े स्वागत द्वार फूलों से बनाए जाते थे और पूरा शहर उन नेताओं के स्वागत में उमड़ पड़ता था. राजनीतिक गहमागहमी का यह दौर हमारे मन पर अपने प्रभाव छोड़ने का कारण बना .
इसी दौरान रूस में अक्टूबर क्रांति घटित हो चुकी थी और उसका समाचार सियालकोट तक भी पहुँच रहा था. मैंने लोगों को कहते हुए सुना कि रूस में लेनिन नाम के एक व्यक्ति ने वहाँ के बादशाह का तख़्ता उलट दिया है और सारी संपत्ति श्रमजीवियों में बांट दी है .
स्कूल की पढ़ाई का यही वह ज़माना था जब शायरी में मेरी रुचि उत्पन्न हुई. इसके पीछे दो कारण थे. हमारे घर के पास एक नौजवान किताबें किराए पर पढ़ने के लिए दिया करता था. मैंने उससे किराए पर किताबें लेनी शुरू कर दीं और धीरे-धीरे मैंने उसकी ऐसी सभी किताबें पढ़ डालीं जो क्लासिक साहित्य से संबंधित थीं. मेरा सारा जेब ख़र्च भी किताबें किराए पर लेने में खर्च हो जाता था. उस ज़माने में सियालकोट का एक प्रसिद्ध साहित्यिक व्यक्तित्व अल्लामा इक़बाल का था जिनकी नज़्मों को बड़े शौक से सभाओं में गाया और पढ़ा जाता था. वहाँ एक प्राथमिक विद्यालय भी था जिसमें मैं पढ़ता था. वहाँ मुशायरे भी होते थे, यह मेरे स्कूल की शिक्षा के अंतिम दिन थे. हमारे हेडमास्टर ने हमसे एक दिन कहा कि मैं तुम्हें एक मिसरा देता हूँ, तुम इस पर आधारित पाँच छः शेर लिखो, हम तुम्हारे क़लाम (ग़ज़ल) को शायर इक़बाल के उस्ताद के पास भेजेंगे और वह जिस क़लाम को पुरस्कार का अधिकारी घोषित करेंगे उसे ही पुरस्कार मिलेगा . इस तरह मैंने शायरी के उस पहले मुक़ाबले में पुरस्कार के रूप में एक रुपया प्राप्त किया था, जो उस ज़माने में बहुत समझा जाता था . सियालकोट में दो साल गुज़ारने के बाद मैंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश ले लिया. सियालकोट से लाहौर आना रोमांच से भरपूर था. यूँ लगा जैसे कोई गाँव छोड़ के किसी अजनबी शहर में आ गए हों . उसकी वजह यह भी थी कि उस ज़माने में सियालकोट में न बिजली थी और न पानी के नल थे . भिश्ती पानी भरते थे या फिर कुओं से पानी भरा जाता था. कुछ बड़े घरों में पीने के पानी के कुएँ उपलब्ध थे . हम सब ही उस ज़माने में मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेनों की रौशनी में पढ़ते थे. यह लालटेन बड़ी ख़ूबसूरत हुआ करती थी. सियालकोट में मोटर कभी नहीं देखी . वहाँ के सभी अधिकारी बग्घियों में आते जाते थे. मेरे पिता के पास दो घोड़ों वाली बग्घी थी . जब मैं लाहौर आया तो हैरान रह गया . यहाँ मोटरें थीं, औरतें बिना बुर्क़े के नज़र आ रही थीं . और लोग अजनबी पहनावे अपने बदन पर पहने हुए थे . हमारे कॉलेज में आधे से अधिक शिक्षक अँग्रेज़ थे. हमारे अँग्रेज़ी के शिक्षक लैंघम (Langhom) थे, जो बहुत कड़े स्वभाव के थे, लेकिन शिक्षक बहुत अच्छे थे . मैंने अँग्रेज़ी के पर्चे में 150 में से 63 नंबर लिए तो सब दंग रह गए. कॉलेज में मेरा क़द बढ़ गया. और मुझे यह सलाह दी जाने लगी कि मैं इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करूं . मैंने निश्चय कर लिया कि मैं परीक्षा में बैठूँगा लेकिन मैं इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करने के बजाय धीरे-धीरे शायरी करने लगा. इस परिस्थति के लिए कई कारण ज़िम्मेदार थे. एक यह कि डिग्री प्राप्त करने से पहले ही मेरे पिता का निधन हो गया और हमें यह पता चला कि वह जो कुछ संपत्ति छोड़ गए हैं उससे कहीं अधिक कर्ज़ चुकाने के लिए छोड़ गए थे और इस तरह शहर का एक खाता-पीता ख़ानदान हालात के झटके में ग़रीब और असहाय हो गया .
दूसरा जो मेरे और मेरे ख़ानदान की परेशानियों का कारण बना वह व्यापक आर्थिक संकट और मंदी था जिसके प्रभाव से उस ज़माने में कोई भी व्यक्ति सुरक्षित न रह सका . मुसलमानों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ा, चूँकि उनमें बहुतायत खेतिहर लोगों की थी . मंदी का प्रभाव कृषि पर अधिक पड़ा था . नतीजा यह हुआ कि गाँव से शहर की ओर पलायन आरंभ हो गया क्योंकि छोटी जगहों में रोज़गार उपलब्ध कराने वाले संसाधन नहीं थे और ऐसे संसाधन पर प्रायः हिंदुओं का क़ब्ज़ा था . सरकारी नौकरी भी एक रास्ता था लेकिन चूँकि मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी पिछडे़ हुए थे इसलिए यहाँ भी उनके लिए अधिक अवसर नहीं थे . मेरे और मेरे ख़ानदान के लिए यह ज़माना राजनीतिक और वैयक्तिक कारणों से परीक्षा और परेशानियों का था . इस तनाव और सोच-विचार को अभिव्यक्ति के माध्यम की आवश्यकता थी सो यह शायरी ने पूरी कर दी.
(जारी. उर्दू से लिप्यान्तरण और अनुवाद - मोहम्मद ज़फर इकबाल)
4 comments:
कल 25/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
Faiz is one of my favourites; esp. this couplet, which can only be from a master:
Aahkir-e-shab ke hamsafar, 'Faiz' na jaane kya huey/
Reh gayi kis jagah saba, subha kidhar nikal gayi.
Nice reading.
फैज़ के बारे में बहुत ही बढ़िया जानकारी दी आपने ! शुक्रिया !
फ़ैज़ साहब की गिनती दिग्गज शाएरो में आती है भाई
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