प्रभु जोशी का लिखा यह संस्मरण "अभिव्यक्ति" से साभार लिया गया है-
महान गायक उस्ताद अमीर खाँ - १
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प्रभु जोशी
स्त्राविन्स्की ने अपने समकालीनों की प्रतिभा की परख में संगीत-समीक्षकों के द्वारा होने वाली सहज-भूलों और इरादतन की गई उपेक्षाओं के प्रति टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘ज्यों ही हमारा महानता से साक्षात्कार हो, हमें उसका जयघोष करने में होने वाली हिचकिचाहटों से जल्द ही मुक्त हो लेना चाहिए.‘ लेकिन बावजूद इसके दुर्भाग्यवश कलाओं के इतिहास में उपेक्षा के आयुधों से की गयी हिंसा में हताहतों की एक लम्बी फेहरिस्त है. कहना न होगा कि भारतीय समाज में ऐसा खासतौर पर अ-श्रेणी की प्रतिभाओं के साथ कहीं ज्यादा ही हुआ है. बीसवीं शताब्दी के शास्त्रीय-संगीत के क्षेत्र में जिन कलाकारों के साथ में ऐसा हुआ, निश्चय ही उनमें महान् गायक उस्ताद अमीर खाँ का भी नाम शामिल है, जिनकी एक लम्बे समय तक उपेक्षा की गई.
उनकी प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के वलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खाँ, फैयाज खाँ और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे.
हालाँकि इन वरिष्ठ गायकों ने समुदाय से आग्रह करके उनको सुने जाने की ताकीद भी की लेकिन असंयत-श्रोता समुदाय ने उनके उस निवेदन की सर्वथा अनसुनी कर दी. इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर खाँ के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से नाथ दिया. वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता‘, उसके ‘स्वर‘ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना‘ भी है. नतीजतन, वे अपने गृह नगर इन्दौर लौट आये, जहाँ उनकी परम्परा और पूर्वजों की पूँजी दबी पड़ी थी. उनके पिता उस्ताद शाहगीर खाँ थे, जिनका गहरा सम्बन्ध भिण्डी बाजार घराने की प्रसिद्ध गायिका अंजनीबाई मालपेकर के साथ था. वे उनके साथ सारंगी पर संगत किया करते थे. पिता की यही वास्तविक ख्वाहिश भी थी कि उनका बेटा अमीर खाँ अपने समय का एक मशहूर सारंगीवादक बन जाये. उन्हें लगता था, यह डूबता इल्म है. क्योंकि, सारंगी की प्रतिष्ठा काफी क्षीण थी और वह केवल कोठे से जुड़ी महफिलों का अनिवार्य हिस्सा थी, लेकिन वे यह भी जानते थे कि मनुष्य के कण्ठ के बरअक्स ही सारंगी के स्वर हैं. और उनके पास की यह पूँजी पुत्र के पास पहुँच कर अक्षुण्ण हो जाएगी.
बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले. लेकिन, युवा गायक ‘अमीर‘ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था. वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था. बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था. नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया.
शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खाँ साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज्यादा नुकसान हो जायेगा.‘ नियमित रियाज उनका दैनंदिन आध्यात्मिक कर्म थी. कहते हैं कि वे सुबह से शाम तक केवल अपनी रियाज को समर्पित रहते थे. यह ‘गले‘ को नहीं, ‘स्वर‘ को साधने की निरन्तर निमग्नता थी. जाने क्यों मुझे यहाँ सहज रूप से सहसा देवास के महान् गायक उस्ताद रजब अली खाँ के एक कथन की स्मृति हो आयी. वे कहा करते थे ‘अमां यार, धक्का खाया, गाया-बजाया, भूखे रहे गाया बजाया, अमानुल-हफीज क्या कहें जूते खाये और गाया बजाया.‘ बाद इसके वे अपन वालिद की डांट-फटकार का हवाला दिया करते थे. ‘ तो मियाँ यही वजह है कि जब हम सुरलगाते हैं तो इस जिस्म में जिगर-गुर्दा एकमेक हो जाता है.’
कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर खाँ साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज‘ इतना बड़ा अभीष्ट बन गयी हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहाँ याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, खाँ साहब का कण्ठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहाँ अखण्ड आवाजाही कर रहा है.’
बहरहाल, जब पिता उस्ताद शाहगीर के पास देवास से उस्ताद रजबअली खाँ और उस्ताद बाबू खाँ बीनकार आया करते थे. तब पूरे समय घर में ही एक संगीत समय बना रहता था. हरदम गहरे सांगीतिक-विमर्श की गुंजाइशें बनती रहती थीं. अमीर खाँ साहब को उस्ताद बाबू खाँ बीनकार के गुरु उस्ताद मुराद खाँ के उस प्रसंग की याद थी, जिसमें उस्ताद मुराद खाँ इतनी गहरी निमग्नता से बीन बजाते थे कि लगने लगता था, जैसे सब कुछ जो इस समय दृष्टिगोचर है, वह विलीन और विसर्जित हो गया है, बस केवल एक नाद स्वर रह गया है. उन्हें उनके बीन वादन की तन्मयता एक किस्म की आध्यात्मिकता-निमग्नता लगती थी. कहते हैं एक बार वे ठाकुर जी के सामने गिरधर लालजी महाराज की हवेली में ‘बीन-वादन‘ कर रहे थे कि अचानक उनके उस निरन्तर प्रवाहमान-स्वर को किसी के अचानक द्वारा रोक दिया गया. तभी बीन वादन के रुकते ही अचानक ठाकुरजी की मूर्ति के समस्त आभूषण और शृंगार गिर गये.‘ यह स्वर और ईश्वर को अंतरंगता का प्रमाण था. पंडित गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज ने एक दफा बातचीत में बताया था कि ‘उस्ताद अमीर खाँ साहब अपनी दस वर्ष की अवस्था से लेकर सत्रह वर्ष की अवस्था तक, उनके पिताश्री महाराज श्री के पास आया करते थे. उन दिनों वाद्यों की साज-संभाल के लिए उस्ताद बाबू खाँ साहब को चाँदी के दो कलदार दिये जाते थे, और बालक अमीर खान को चवन्नी मिलती थी.‘ बालक अमीर को उस्ताद बाबूखाँ बहुत प्यार करते थे.
युवा गायक अमीर खाँ को संवेदना के स्तर एक और प्रसंग ने ठेस पहुँचायी थी, जिसने भी उन्हें ‘स्वयं को स्वयं पर‘ एकाग्र करने की रचनात्मक-विवशता पैदा की. प्रसंग यों है कि जब एक बार अमीर खाँ, उस्ताद नसीरुद्दीन डागर के ध्रुपद गायन को सुनने गये तो खाँ साहब ने गाते अपना गाना रोक दिया. इस आशय से कि कहीं अमीर खाँ उनकी ध्रुपद की गायन शैली के रहस्यों को ग्रहण न कर ले. युवा अमीर खाँ को इस घटना के भीतर ही भीतर कई दिनों तक अन्तरात्मा में आहत किया. कारण कि तब वे अधिकांशतः संगीत-संसार के अत्यन्त उदार और अवढरदातियों के बीच रह रहे थे, जो उनके वालिद उस्ताद शाहगीर खाँ साहब के पास मित्रता के कारण अक्सर ही आते रहते थे. क्योंकि, उस्ताद शाहमीर खाँ साहब होल्कर रियासत के दरबार से जुड़े हुए थे. उनके यहाँ ‘किराना-घराना‘ के उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ (जिन्हें बहरे वहीद खाँ के नाम से भी चिह्नित किया जाता है) तथा अंजनी बाई मालपेकर भी आती थीं. लेकिन, उन्हें वाद्य के स्तर पर लिये जाने वाले ‘आलाप’ से आसक्ति थी और गायन के लिए वे उसे ही कहीं अपने लिए ज्यादा बड़ी और सृजनात्मक चुनौती मानते थे. बाद में उन्होंने अपनी ‘आलापी‘ के लिए उस्ताद मुराद खाँ के ‘बीन वादन‘ की शैली को ‘आत्मस्थ‘ किया. क्योंकि, उनकी बीन ‘अति-विलम्बित‘ का वह रहस्यात्मक-स्वर उत्पन्न करती थी, जो गले में बैठकर और अधिक रहस्यात्मक बन सकता था. उस्ताद मुराद खाँ ने अपने वाद्याभ्यास से सामान्य बीन-वादन में ‘आलापचारी‘ का ऐसा चमत्कार पैदा किया था कि संगीतज्ञ विस्मय से भर जाते थे कि यह कैसा मुसलसल-आलाप है?
(जारी)
स्त्राविन्स्की ने अपने समकालीनों की प्रतिभा की परख में संगीत-समीक्षकों के द्वारा होने वाली सहज-भूलों और इरादतन की गई उपेक्षाओं के प्रति टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘ज्यों ही हमारा महानता से साक्षात्कार हो, हमें उसका जयघोष करने में होने वाली हिचकिचाहटों से जल्द ही मुक्त हो लेना चाहिए.‘ लेकिन बावजूद इसके दुर्भाग्यवश कलाओं के इतिहास में उपेक्षा के आयुधों से की गयी हिंसा में हताहतों की एक लम्बी फेहरिस्त है. कहना न होगा कि भारतीय समाज में ऐसा खासतौर पर अ-श्रेणी की प्रतिभाओं के साथ कहीं ज्यादा ही हुआ है. बीसवीं शताब्दी के शास्त्रीय-संगीत के क्षेत्र में जिन कलाकारों के साथ में ऐसा हुआ, निश्चय ही उनमें महान् गायक उस्ताद अमीर खाँ का भी नाम शामिल है, जिनकी एक लम्बे समय तक उपेक्षा की गई.
उनकी प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के वलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खाँ, फैयाज खाँ और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे.
हालाँकि इन वरिष्ठ गायकों ने समुदाय से आग्रह करके उनको सुने जाने की ताकीद भी की लेकिन असंयत-श्रोता समुदाय ने उनके उस निवेदन की सर्वथा अनसुनी कर दी. इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर खाँ के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से नाथ दिया. वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता‘, उसके ‘स्वर‘ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना‘ भी है. नतीजतन, वे अपने गृह नगर इन्दौर लौट आये, जहाँ उनकी परम्परा और पूर्वजों की पूँजी दबी पड़ी थी. उनके पिता उस्ताद शाहगीर खाँ थे, जिनका गहरा सम्बन्ध भिण्डी बाजार घराने की प्रसिद्ध गायिका अंजनीबाई मालपेकर के साथ था. वे उनके साथ सारंगी पर संगत किया करते थे. पिता की यही वास्तविक ख्वाहिश भी थी कि उनका बेटा अमीर खाँ अपने समय का एक मशहूर सारंगीवादक बन जाये. उन्हें लगता था, यह डूबता इल्म है. क्योंकि, सारंगी की प्रतिष्ठा काफी क्षीण थी और वह केवल कोठे से जुड़ी महफिलों का अनिवार्य हिस्सा थी, लेकिन वे यह भी जानते थे कि मनुष्य के कण्ठ के बरअक्स ही सारंगी के स्वर हैं. और उनके पास की यह पूँजी पुत्र के पास पहुँच कर अक्षुण्ण हो जाएगी.
बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले. लेकिन, युवा गायक ‘अमीर‘ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था. वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था. बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था. नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया.
शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खाँ साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज्यादा नुकसान हो जायेगा.‘ नियमित रियाज उनका दैनंदिन आध्यात्मिक कर्म थी. कहते हैं कि वे सुबह से शाम तक केवल अपनी रियाज को समर्पित रहते थे. यह ‘गले‘ को नहीं, ‘स्वर‘ को साधने की निरन्तर निमग्नता थी. जाने क्यों मुझे यहाँ सहज रूप से सहसा देवास के महान् गायक उस्ताद रजब अली खाँ के एक कथन की स्मृति हो आयी. वे कहा करते थे ‘अमां यार, धक्का खाया, गाया-बजाया, भूखे रहे गाया बजाया, अमानुल-हफीज क्या कहें जूते खाये और गाया बजाया.‘ बाद इसके वे अपन वालिद की डांट-फटकार का हवाला दिया करते थे. ‘ तो मियाँ यही वजह है कि जब हम सुरलगाते हैं तो इस जिस्म में जिगर-गुर्दा एकमेक हो जाता है.’
कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर खाँ साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज‘ इतना बड़ा अभीष्ट बन गयी हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहाँ याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, खाँ साहब का कण्ठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहाँ अखण्ड आवाजाही कर रहा है.’
बहरहाल, जब पिता उस्ताद शाहगीर के पास देवास से उस्ताद रजबअली खाँ और उस्ताद बाबू खाँ बीनकार आया करते थे. तब पूरे समय घर में ही एक संगीत समय बना रहता था. हरदम गहरे सांगीतिक-विमर्श की गुंजाइशें बनती रहती थीं. अमीर खाँ साहब को उस्ताद बाबू खाँ बीनकार के गुरु उस्ताद मुराद खाँ के उस प्रसंग की याद थी, जिसमें उस्ताद मुराद खाँ इतनी गहरी निमग्नता से बीन बजाते थे कि लगने लगता था, जैसे सब कुछ जो इस समय दृष्टिगोचर है, वह विलीन और विसर्जित हो गया है, बस केवल एक नाद स्वर रह गया है. उन्हें उनके बीन वादन की तन्मयता एक किस्म की आध्यात्मिकता-निमग्नता लगती थी. कहते हैं एक बार वे ठाकुर जी के सामने गिरधर लालजी महाराज की हवेली में ‘बीन-वादन‘ कर रहे थे कि अचानक उनके उस निरन्तर प्रवाहमान-स्वर को किसी के अचानक द्वारा रोक दिया गया. तभी बीन वादन के रुकते ही अचानक ठाकुरजी की मूर्ति के समस्त आभूषण और शृंगार गिर गये.‘ यह स्वर और ईश्वर को अंतरंगता का प्रमाण था. पंडित गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज ने एक दफा बातचीत में बताया था कि ‘उस्ताद अमीर खाँ साहब अपनी दस वर्ष की अवस्था से लेकर सत्रह वर्ष की अवस्था तक, उनके पिताश्री महाराज श्री के पास आया करते थे. उन दिनों वाद्यों की साज-संभाल के लिए उस्ताद बाबू खाँ साहब को चाँदी के दो कलदार दिये जाते थे, और बालक अमीर खान को चवन्नी मिलती थी.‘ बालक अमीर को उस्ताद बाबूखाँ बहुत प्यार करते थे.
युवा गायक अमीर खाँ को संवेदना के स्तर एक और प्रसंग ने ठेस पहुँचायी थी, जिसने भी उन्हें ‘स्वयं को स्वयं पर‘ एकाग्र करने की रचनात्मक-विवशता पैदा की. प्रसंग यों है कि जब एक बार अमीर खाँ, उस्ताद नसीरुद्दीन डागर के ध्रुपद गायन को सुनने गये तो खाँ साहब ने गाते अपना गाना रोक दिया. इस आशय से कि कहीं अमीर खाँ उनकी ध्रुपद की गायन शैली के रहस्यों को ग्रहण न कर ले. युवा अमीर खाँ को इस घटना के भीतर ही भीतर कई दिनों तक अन्तरात्मा में आहत किया. कारण कि तब वे अधिकांशतः संगीत-संसार के अत्यन्त उदार और अवढरदातियों के बीच रह रहे थे, जो उनके वालिद उस्ताद शाहगीर खाँ साहब के पास मित्रता के कारण अक्सर ही आते रहते थे. क्योंकि, उस्ताद शाहमीर खाँ साहब होल्कर रियासत के दरबार से जुड़े हुए थे. उनके यहाँ ‘किराना-घराना‘ के उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ (जिन्हें बहरे वहीद खाँ के नाम से भी चिह्नित किया जाता है) तथा अंजनी बाई मालपेकर भी आती थीं. लेकिन, उन्हें वाद्य के स्तर पर लिये जाने वाले ‘आलाप’ से आसक्ति थी और गायन के लिए वे उसे ही कहीं अपने लिए ज्यादा बड़ी और सृजनात्मक चुनौती मानते थे. बाद में उन्होंने अपनी ‘आलापी‘ के लिए उस्ताद मुराद खाँ के ‘बीन वादन‘ की शैली को ‘आत्मस्थ‘ किया. क्योंकि, उनकी बीन ‘अति-विलम्बित‘ का वह रहस्यात्मक-स्वर उत्पन्न करती थी, जो गले में बैठकर और अधिक रहस्यात्मक बन सकता था. उस्ताद मुराद खाँ ने अपने वाद्याभ्यास से सामान्य बीन-वादन में ‘आलापचारी‘ का ऐसा चमत्कार पैदा किया था कि संगीतज्ञ विस्मय से भर जाते थे कि यह कैसा मुसलसल-आलाप है?
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