(जारी)
-प्रभु जोशी
बहरहाल, युवा गायक अमीर खाँ के लिए यह एक तरह से संगीत के अनंत में अपनी निजता को आविष्कृत करने के अत्यन्त गहरे आत्म-संघर्ष का समय था. निश्चय ही प्रकारान्तर से यह एक ऐसी ‘नादोपासना‘ थी, जिसमें परम्परा के पार्श्व में उन्हें अपने लिए यथोचित जगह बनाने पर विचार करना था. वे जहाँ एक ओर उस्ताद नसीरुद्दीन खाँ डागर की गायकी और उनकी ध्रुपद-परम्परा की तरफ देख रहे थे, दूसरी तरफ उनके समक्ष भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद छज्जू-नज्जू खाँ के ‘मेरुखण्ड‘ की तानों की तकनीक और सौंदर्य भी था, जो आसक्त करता चला आ रहा था. लेकिन, यह विवेक अमीर खाँ जैसे युवा गायक में आ चुका था कि ‘अनुकरण‘ से पहचान तो बन सकती है लेकिन संगीत की मारा-मारी से भरी निर्मय दुनिया में जगह नहीं. नतीजतन उनमें अपने लिये भारतीय संगीत में जगह बनाने की कोई अदृश्य सृजनात्मक-जिद पैदा हो गई थी, जिसने उन्हें घर और अंततः ‘घराना‘ बनाने के निकट लाकर छोड़ दिया.
निश्चय ही इसके लिए एक व्यापक और गहरी संगीत-दृष्टि की दरकार थी. उन्होंने यों तो सांस्थानिक रूप से कोई बहुत औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी, लेकिन उन्हें उर्दू-फारसी का अच्छा ज्ञान हो चुका था. काफी हद तक उन्होंने संस्कृत की संभावनाएँ उलीच कर अपनी सृजनात्मक के लिए आवश्यक ‘समझ‘ अर्जित कर ली थी. कदाचित् इसी के चलते उन्होंने पाया कि ‘संगीत’ और ‘अध्यात्म’ के मध्य एक ऐसा अदृश्य-सेतु है, जिसके दोनों ओर आवाजाही की जा सकती थी. यह उनकी रचनात्मक-बैचेनी से भरी प्रकृति के काफी अनुकूल भी था.
हालाँकि, अमीर खाँ साहब के निकट सम्पर्क में रहे लोगों कि अलग-अलग राय है, लेकिन काफी हद तक यह बात एक तर्कदीप्त आधार हमारे सामने रखती है कि उनकी इस तरह की प्रकृति की निर्मिति में बचपन से ही ‘पुष्टि मार्ग’ से रहे आये उनके परिचय की बड़ी भूमिका है. पद्मश्री गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज कहते हैं कि ‘उनका सांगीतिक-साहचर्य पुष्टिमार्गीय से इसलिए भी रहा कि वे बाल्यावस्था से ही रामनाथजी शैल (इण्डिया टी होटल वालों) के साथ हमारे यहाँ आया करते थे. मंदिर की संगीत-सभाओं में भी वे नियमित आत थे. लोगों का गाना-बजाना भी सुनते ही थे. जिन ‘मेरुखण्ड‘ की तानों के लिए अमीर खाँ साहब की प्रशंसा होती है, वह उन्हें हमारे इन्दौर स्थित मंदिर से ही मिली थी. हमारी ही परम्परा की एक पुस्तक में ‘मेरुखण्ड’ की तानों का विधिवत् विवरण दिया गया है.‘ आगे वे कहते हैं ‘आकार लगाने का जो तरीका उस्ताद अमीर खाँ साहब के पास था, वह सामवेद की स्वरोच्चार पद्धति ही है. यानी मुँह खोल कर ‘अकार‘ उच्चारण नहीं किया जाना चाहिए.‘ ....खाँ साहब ने मिया की सारंग की बंदिश ‘प्रथम प्यारे‘ राग शुद्ध वसंत की ‘उड़त-बंधन‘ और हमारी वंश-परम्परा में गोस्वामी हरिराय महाप्रभु की ‘राग दरबारी‘ में ‘ऐ मोरी अली, जब तें भनक परी पिया आवन की‘ तथा ‘वल्लभाचार्य जी के पुत्र गुंसाई विट्ठलनाथ जी के प्रति रचना ‘लाज राखो तुम मोरी गुंसैंया‘ (राग-चारुकेशी): आदि बंदिशें खाँ साहब ने गायी हैं.‘
कहने की जरूरत नहीं कि गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज के पास लगभग एक हजार घण्टे की अमीर खाँ साहब की रिकॉर्डिंग्स हैं. और उनकी गायकी की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचना कर सकने में वे अत्यन्त समर्थ भी हैं. क्योंकि ‘स्वर‘ और ‘लयकारी‘ की जो नाद-स्थिति है, वही अपने ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ की विशिष्टता में ‘घरानों‘ की एक निश्चित पहचान बनाती है. और उस्ताद अमीर खाँ साहब ने अपनी गायकी से यही किया कि वे ‘लय और स्वर‘ के बीच के अन्तरसंबंधों में ‘गान की आध्यात्मिकता’ के अनुसार ‘खयाल‘ को ‘मेलोडिक‘ बनाने पर स्वयं को एकाग्र करने लगे. यह प्रकारान्तर से ‘समाधिस्तता‘ की ओर जाना था.
संगीतज्ञ जानते हैं कि प्रत्येक गायक की अपनी अन्तःप्रकृति गाते समय उसकी मुद्राओं को तय करती है. उस्ताद अमीर खाँ अपनी प्रकृति से गहन ‘आध्यात्मिक’ थे शायद यही कारण था कि गाते समय वे ‘विनिमीलक‘ रहते थे. अर्थात् एक समाधिस्थ योगी की तरह आँखें मूंदे हुए गाते थे. ध्यानावस्था की तरफ शनैः शनैः बढ़ते हुए उनकी गहरी और पाटदार आवाज जो कि शास्त्रीय गायकों में बहुत कम ही मिलती है, ने भी उन्हें एक रास्ता दिखाया, जो उन्होंने उस्ताद बाबू खाँ की ‘बीनकारी‘ से आत्मस्थ किया था, ‘आलापचारी‘ में ‘अति-विलम्बित’ लय का चयन. स्वर के नैरतर्य को ‘लयकारी‘ से नाथ कर रखने का अनुशासन, शायद उन्हें अपने आरंभिक वर्षों के सारंगी-वादन ने सिखा दिया था. इसलिए उन्होंने तय किया कि संगीत में सारंगी को अनुपस्थित रखा जाये तो शायद ‘स्वर‘ को अपने ‘आत्म से ही संतुलित‘ किया जाये. वही स्वर-साहचर्य की युक्ति होगी. यही वजह थी कि उनके साथ तबला सिर्फ धीमा और सादा ठेका देता है. यहाँ इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि वे अपने गायन में ‘नाद की प्रवहमानता‘ को पूरी तरह नैसर्गिक बनाये रखने के लिए तालांे में केवल ‘झूमरा‘ या ‘तिलवाड़ा‘ को ही जगह देते हैं. हालाँकि विलम्बित ‘खयाल‘ के अस्थायी में ‘छन्दोग‘ तानों का किंचित् दिग्दर्शन कराते भी थे, जिसमें अपने स्वर के गांभीर्य के अनुरूप ‘गमक‘ ‘लहक‘ या ‘धनस‘ की उपस्थिति भी अत्यन्त नैसर्गिकता के साथ आ जाती थी. यदि हम उनके द्वारा गाये गये परम्परागत राग, मसलन ‘तोड़ी‘, ‘भैरव‘, ‘ललित‘, ‘मारवा‘, ‘पूरिया‘, ‘मालकौंस‘, ‘केदारा‘, ‘दरबारी‘, ‘मुल्तानी‘, ‘पूरवी‘, ‘अभोगी‘, ‘चन्द्रकौंस‘ आदि देखें तो यह बहुत स्पष्ट हो जायेगा कि इसमें वे अपनी ‘गांभीर्यमयी स्वर-सम्पदा से ‘मन्द्र’ का जिस तरह दोहन करते हैं, वह एकदम विशिष्ट है.
बहरहाल, उनकी गायकी के दो दशकों का अध्ययन करके यह बहुत साफ तौर से बताया जा सकता है कि उन्होंने, जिस तरह स्वयं का एक ‘आत्म-आविष्कृत‘ मार्ग शास्त्रीय गायकी की दुनिया बनाया, उसमें उनका शुरू से रहा आया आध्यात्मिक रुझान और बीन तथा सारंगी जैसे वाद्यों की नाद-निर्मिति को, तथा जिस तीन ‘शक्ति-त्रयी’ के शैलीगत वैशिष्ट से जोड़ा, वे थे- देवास के उस्ताद रजबअली खान, भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल करीम खाँ. हालाँकि, उस्ताद अमीर खाँ की गायकी के अध्येता अपने विश्लेषणों में यह भी कहते हैं कि बहरे वाहिद खाँ साहब की ‘गायकी‘ की कुछ खासियत और खसूयितों को भी उन्होंने निःशक होकर अपनाया है. ‘मेरुखण्ड‘ तानों के अभ्यास ने उन्हें ’सरगम’ और ’पलटों’ के प्रति इतना सहज कर दिया था कि उनकी गायकी से रसिकों के बीच एक अलग ही आनंद की सृष्टि हो जाती है.
महान गायक उस्ताद अमीर खाँ - 2
-प्रभु जोशी
बहरहाल, युवा गायक अमीर खाँ के लिए यह एक तरह से संगीत के अनंत में अपनी निजता को आविष्कृत करने के अत्यन्त गहरे आत्म-संघर्ष का समय था. निश्चय ही प्रकारान्तर से यह एक ऐसी ‘नादोपासना‘ थी, जिसमें परम्परा के पार्श्व में उन्हें अपने लिए यथोचित जगह बनाने पर विचार करना था. वे जहाँ एक ओर उस्ताद नसीरुद्दीन खाँ डागर की गायकी और उनकी ध्रुपद-परम्परा की तरफ देख रहे थे, दूसरी तरफ उनके समक्ष भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद छज्जू-नज्जू खाँ के ‘मेरुखण्ड‘ की तानों की तकनीक और सौंदर्य भी था, जो आसक्त करता चला आ रहा था. लेकिन, यह विवेक अमीर खाँ जैसे युवा गायक में आ चुका था कि ‘अनुकरण‘ से पहचान तो बन सकती है लेकिन संगीत की मारा-मारी से भरी निर्मय दुनिया में जगह नहीं. नतीजतन उनमें अपने लिये भारतीय संगीत में जगह बनाने की कोई अदृश्य सृजनात्मक-जिद पैदा हो गई थी, जिसने उन्हें घर और अंततः ‘घराना‘ बनाने के निकट लाकर छोड़ दिया.
निश्चय ही इसके लिए एक व्यापक और गहरी संगीत-दृष्टि की दरकार थी. उन्होंने यों तो सांस्थानिक रूप से कोई बहुत औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी, लेकिन उन्हें उर्दू-फारसी का अच्छा ज्ञान हो चुका था. काफी हद तक उन्होंने संस्कृत की संभावनाएँ उलीच कर अपनी सृजनात्मक के लिए आवश्यक ‘समझ‘ अर्जित कर ली थी. कदाचित् इसी के चलते उन्होंने पाया कि ‘संगीत’ और ‘अध्यात्म’ के मध्य एक ऐसा अदृश्य-सेतु है, जिसके दोनों ओर आवाजाही की जा सकती थी. यह उनकी रचनात्मक-बैचेनी से भरी प्रकृति के काफी अनुकूल भी था.
हालाँकि, अमीर खाँ साहब के निकट सम्पर्क में रहे लोगों कि अलग-अलग राय है, लेकिन काफी हद तक यह बात एक तर्कदीप्त आधार हमारे सामने रखती है कि उनकी इस तरह की प्रकृति की निर्मिति में बचपन से ही ‘पुष्टि मार्ग’ से रहे आये उनके परिचय की बड़ी भूमिका है. पद्मश्री गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज कहते हैं कि ‘उनका सांगीतिक-साहचर्य पुष्टिमार्गीय से इसलिए भी रहा कि वे बाल्यावस्था से ही रामनाथजी शैल (इण्डिया टी होटल वालों) के साथ हमारे यहाँ आया करते थे. मंदिर की संगीत-सभाओं में भी वे नियमित आत थे. लोगों का गाना-बजाना भी सुनते ही थे. जिन ‘मेरुखण्ड‘ की तानों के लिए अमीर खाँ साहब की प्रशंसा होती है, वह उन्हें हमारे इन्दौर स्थित मंदिर से ही मिली थी. हमारी ही परम्परा की एक पुस्तक में ‘मेरुखण्ड’ की तानों का विधिवत् विवरण दिया गया है.‘ आगे वे कहते हैं ‘आकार लगाने का जो तरीका उस्ताद अमीर खाँ साहब के पास था, वह सामवेद की स्वरोच्चार पद्धति ही है. यानी मुँह खोल कर ‘अकार‘ उच्चारण नहीं किया जाना चाहिए.‘ ....खाँ साहब ने मिया की सारंग की बंदिश ‘प्रथम प्यारे‘ राग शुद्ध वसंत की ‘उड़त-बंधन‘ और हमारी वंश-परम्परा में गोस्वामी हरिराय महाप्रभु की ‘राग दरबारी‘ में ‘ऐ मोरी अली, जब तें भनक परी पिया आवन की‘ तथा ‘वल्लभाचार्य जी के पुत्र गुंसाई विट्ठलनाथ जी के प्रति रचना ‘लाज राखो तुम मोरी गुंसैंया‘ (राग-चारुकेशी): आदि बंदिशें खाँ साहब ने गायी हैं.‘
कहने की जरूरत नहीं कि गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज के पास लगभग एक हजार घण्टे की अमीर खाँ साहब की रिकॉर्डिंग्स हैं. और उनकी गायकी की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचना कर सकने में वे अत्यन्त समर्थ भी हैं. क्योंकि ‘स्वर‘ और ‘लयकारी‘ की जो नाद-स्थिति है, वही अपने ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ की विशिष्टता में ‘घरानों‘ की एक निश्चित पहचान बनाती है. और उस्ताद अमीर खाँ साहब ने अपनी गायकी से यही किया कि वे ‘लय और स्वर‘ के बीच के अन्तरसंबंधों में ‘गान की आध्यात्मिकता’ के अनुसार ‘खयाल‘ को ‘मेलोडिक‘ बनाने पर स्वयं को एकाग्र करने लगे. यह प्रकारान्तर से ‘समाधिस्तता‘ की ओर जाना था.
संगीतज्ञ जानते हैं कि प्रत्येक गायक की अपनी अन्तःप्रकृति गाते समय उसकी मुद्राओं को तय करती है. उस्ताद अमीर खाँ अपनी प्रकृति से गहन ‘आध्यात्मिक’ थे शायद यही कारण था कि गाते समय वे ‘विनिमीलक‘ रहते थे. अर्थात् एक समाधिस्थ योगी की तरह आँखें मूंदे हुए गाते थे. ध्यानावस्था की तरफ शनैः शनैः बढ़ते हुए उनकी गहरी और पाटदार आवाज जो कि शास्त्रीय गायकों में बहुत कम ही मिलती है, ने भी उन्हें एक रास्ता दिखाया, जो उन्होंने उस्ताद बाबू खाँ की ‘बीनकारी‘ से आत्मस्थ किया था, ‘आलापचारी‘ में ‘अति-विलम्बित’ लय का चयन. स्वर के नैरतर्य को ‘लयकारी‘ से नाथ कर रखने का अनुशासन, शायद उन्हें अपने आरंभिक वर्षों के सारंगी-वादन ने सिखा दिया था. इसलिए उन्होंने तय किया कि संगीत में सारंगी को अनुपस्थित रखा जाये तो शायद ‘स्वर‘ को अपने ‘आत्म से ही संतुलित‘ किया जाये. वही स्वर-साहचर्य की युक्ति होगी. यही वजह थी कि उनके साथ तबला सिर्फ धीमा और सादा ठेका देता है. यहाँ इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि वे अपने गायन में ‘नाद की प्रवहमानता‘ को पूरी तरह नैसर्गिक बनाये रखने के लिए तालांे में केवल ‘झूमरा‘ या ‘तिलवाड़ा‘ को ही जगह देते हैं. हालाँकि विलम्बित ‘खयाल‘ के अस्थायी में ‘छन्दोग‘ तानों का किंचित् दिग्दर्शन कराते भी थे, जिसमें अपने स्वर के गांभीर्य के अनुरूप ‘गमक‘ ‘लहक‘ या ‘धनस‘ की उपस्थिति भी अत्यन्त नैसर्गिकता के साथ आ जाती थी. यदि हम उनके द्वारा गाये गये परम्परागत राग, मसलन ‘तोड़ी‘, ‘भैरव‘, ‘ललित‘, ‘मारवा‘, ‘पूरिया‘, ‘मालकौंस‘, ‘केदारा‘, ‘दरबारी‘, ‘मुल्तानी‘, ‘पूरवी‘, ‘अभोगी‘, ‘चन्द्रकौंस‘ आदि देखें तो यह बहुत स्पष्ट हो जायेगा कि इसमें वे अपनी ‘गांभीर्यमयी स्वर-सम्पदा से ‘मन्द्र’ का जिस तरह दोहन करते हैं, वह एकदम विशिष्ट है.
बहरहाल, उनकी गायकी के दो दशकों का अध्ययन करके यह बहुत साफ तौर से बताया जा सकता है कि उन्होंने, जिस तरह स्वयं का एक ‘आत्म-आविष्कृत‘ मार्ग शास्त्रीय गायकी की दुनिया बनाया, उसमें उनका शुरू से रहा आया आध्यात्मिक रुझान और बीन तथा सारंगी जैसे वाद्यों की नाद-निर्मिति को, तथा जिस तीन ‘शक्ति-त्रयी’ के शैलीगत वैशिष्ट से जोड़ा, वे थे- देवास के उस्ताद रजबअली खान, भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल करीम खाँ. हालाँकि, उस्ताद अमीर खाँ की गायकी के अध्येता अपने विश्लेषणों में यह भी कहते हैं कि बहरे वाहिद खाँ साहब की ‘गायकी‘ की कुछ खासियत और खसूयितों को भी उन्होंने निःशक होकर अपनाया है. ‘मेरुखण्ड‘ तानों के अभ्यास ने उन्हें ’सरगम’ और ’पलटों’ के प्रति इतना सहज कर दिया था कि उनकी गायकी से रसिकों के बीच एक अलग ही आनंद की सृष्टि हो जाती है.
(जारी)
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