-राजेश सकलानी
लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गए
पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का
उनका छोड़ दिया रोना फैला
फ़र्श पर एक तीखी गंध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।
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