Tuesday, July 10, 2012

गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने की सामर्थ्य - उस्ताद अमीर खां का संस्मरण - ३


(जारी)

महान गायक उस्ताद अमीर खाँ - ३

-प्रभु जोशी

मुझे याद आता है, स्वर्गीय पंडित कुमार गंधर्व हमेशा कहा करते थे कि ’आलाप’ गायक का पुरुषार्थ बताता है. ऐसा गायक कभी बूढ़ा नहीं होता. उस्ताद रजब अली खाँ साहब के बारे में, जिनका सानिध्य उस्ताद अमीर खाँ को आरंभ से मिला था, कहा जाता है कि जब उन्हें आकाशवाणी पर गाने के लिए आमंत्रित किया जाता था तो वे बहुत वृद्ध हो चुके थे. उनकी दोनों बाहों को दो लोग अपने-अपने कंधों पर रखकर पकड़ते और बहुत शाइस्तगी के साथ स्टूडियो का कॉरीडोर पार करवा कर माइक्रोफोन के सामने बिठाते थे. लेकिन, ज्यों ही वे ‘आलाप‘ पर आते और कोई आँख मूँद सुने तो उस आवाज के आधार पर कोई उनकी उम्र का अनुमान नहीं लगा सकता था.

यहाँ मैं थोड़ा-सा ‘आलाप’ की आधुनिकता का उल्लेख करना चाहता हूं कि आधुनिक-संगीत में प्राचीन ‘निबद्ध-अनिबद्धगान’ के अन्तर्गत ’अनिबद्ध’ गान का एक ही ’प्रकार’ प्रासंगिक रहा आया है. और वह है, ‘आलाप‘. पहले ‘आलाप‘ करने वाले ध्रुपदिये होते थे, जिनका स्वर एवम् राग-ज्ञान ही ’आलाप’ को विशिष्ट सौंदर्य देता था. अब तो खयाल गायक भी सुंदर आलाप करते हैं.

’आलाप’ के दो ढंग है, एक ‘नोम-तोम‘ द्वारा तथा दूसरा ‘अकार‘ द्वारा. ‘अकार‘ का ‘आलाप‘ ‘आऽऽ‘ के उच्चारण द्वारा होता है, जबकि ‘नोम-तोम‘ का त-ना-न-रीनों-नारे-नेनेरी-तनाना-नेतोम आदि शब्दों के द्वारा किया जाता है. उस्ताद अमीर खाँ साहब दोनों तरह से करने में समर्थ थे, लेकिन ’अकार’ की अपेक्षया नोम्-तोम‘ में किसी स्थान पर ‘सम‘ दिखाने की सुविधा रहती है. ये वो समय था, जब धु्रपद गाने वाले ‘तराने‘ पर स्वयं को एकाग्र करने वाले गायकों के बारे में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा करते थे, ‘ये हमारी तरह क्या स्वर लगायेंगे, ये तो ‘नोम-तोम‘ करते-करते ही मर जायेंगे.‘

लेकिन, जब उस्ताद अमीर खाँ साहब ने स्वयं को तराने पर एकाग्र किया तो उनकी अप्रतिम मेधा ने उसका लगभग ’नवोचार’ ही कर दिया. उनका वह काम आज भारतीय शास्त्रीय-संगीत की मौलिक धरोहर में बदल गया है. तराने में प्रचलित ‘नादिर दानी तुम दिरदानीं‘, जिसे पूर्व में मात्र निरर्थक शब्द-समूह माना जाता था, उसे उस्ताद अमीर खाँ ने अपने गहन अध्ययन के आधार-पर सूफी-सम्प्रदाय का जाप-मंत्र सिद्ध किया. इसी के चलते खाँ साहब ने कई तराने के अंतरे में महान सूफी संत अमीर खुसरो की रुबाइयों का जो कायान्तरण किया, वह अद्भुत है. हालाँकि इसके पूर्व भी कुछेक संगीतज्ञों का विवेचन ऐसा रहा आया कि ये निरर्थक से जान पड़ने वाले शब्द ‘ईश्वरोपासना‘ का बिगड़ा हुआ रूप ही हैं, चूंकि पूर्वगायक संस्कृत पंडित हुआ करते थे, तो शब्दोच्चारण भी स्पष्ट था, लेकिन ‘राग‘ से आसक्ति के बाद मुस्लिम गायकों के लिए शब्दोच्चारण सहज नहीं था, नतीजतन, उन्होंने राग तो पकड़े, शब्द छोड़ दिये और जो शब्द पकड़े वे उन्होंने अपने ‘सूफी-चिंतन‘ की भाषा से उठा कर रख दिये.

यहाँ उस्ताद खाँ साहब के ‘आलाप’ को प्रक्रियागत एवम् संरचना के बारे में स्पष्ट है कि वे बहुत ही नैसर्गिकता के साथ अपनी पाटदार आवाज से स्थायी में पहले ’षड्ज’ लगा कर वादी स्वर का ऐसा महत्व दिखा देते थे कि पूर्वांग में ‘राग‘ चलता और आरंभ में कुछ मुख्य-स्वर समुदायों को लेकर फिर एक नया स्वर अपने स्वर-समुदायों में जोड़ जोड़़कर वे मध्य-स्थान के पंचम ’धैवत’ और ‘निषाद’ तक जाते हैं फिर ‘तार-षड्ज’ को बहुत खूबसूरती से छूते हुए ’मध्य-षड्ज’ पर ’स्थायी’ समाप्त करते. ‘स्थायी’ भाग का ‘आलाप’ अधिकतर ’मन्द्र’ और कभी-कभी ’मध्य-सप्तकों’ तक भी चलता. बाद इसके वे अधिकांशतः ’मध्य-सप्तक’ के स्वर से ’अंतरा’ का भाग शुरू करते और तार-सप्तक के ‘षड्ज’ पर पहुँच कर वे अपने स्वर कौशल की द्युति का भास कराते हैं. स्मरण रहे कि अपनी विशिष्ट तानों को वहीं लेकर वे वहीं समाप्त करते हैं फिर शनैः शनैः अपनी पाटदार आवाज के स्वर की आध्यात्मिक दिव्यता के साथ ‘मध्य-षड्ज’ पर आकर मिल जाते हैं. यहीं मोड़ और ‘कम्पन’ के काम के लिए पर्याप्त अवकाश होता है. उस ‘स्पेस‘ का दोहन करने में उनकी तन्मयता अलौकिक-सी जान पड़ती है. जैसे एक समाधिस्थ योगी अपनी दैहिकता के पार चला गया है.

यही वह उम्र और उनकी गायकी का पड़ाव था, जहाँ पहुँच कर उनके स्वर-सामर्थ्य ने परम्परा को नवोन्मेष से जोड़ा. मसलन ‘मार-वा‘ मूलरूप से वीर-रस का राग है. क्योंकि इस राग में ‘निषाद’ कई स्थानों पर वक्र-गति से प्रयुक्त होता है. खासकर जब इस राग में ‘अवरोह’ में ऋषभ-वक्र होता है, तो राग की अन्तर्द्युति बढ़ जाती है. इसी ’चमक’ को खाँ साहब ने कुछ इस तरह अपने स्वर से व्यक्त किया कि यह अपने ‘रसोद्रेक‘ में शांत और सौम्यता के निकट आ गया, जो कि बुनियादी रूप से आध्यात्मिकता की विशिष्टता है. दूसरे ‘मालकौंस‘ को लें. यह राग अमूमन शृंगारिक-अभिव्यक्तियों में बहुत खिलकर रूपायित होता है, लेकिन उन्होंने अपनी ख्याल गायकी के सामर्थ्य से उसमें भी आध्यात्मिक गांभीर्य पैदा कर दिया.

(जारी)

1 comment:

naveen kumar naithani said...

मुझ जैसे शास्त्रीय संगीत के लिये अयोग्य कान वाले व्यक्ति को भी अमीर खां साहब की मार्फत आह्लादकारी संगीत की आध्यात्मिकता से परिचित कराने के लिये धन्यवाद!
वैसे मैं प्रभु जोशी के लेखन का मुरीद हूं और उन्हें खोज-खोज कर पढना अच्छा लगता है.