Wednesday, September 12, 2012

तुम अनायास, तुम लगातार - तुम छियालीस, तुम शानदार



यह कविता (महामना लोग इसे कविता कहें तो) मुझे मेरे अनन्य मित्र आशुतोष बरनवाल ने भेजी है. आशुतोष कविता नहीं लिखते (शुक्र है) अलबत्ता कविता समझते खूब हैं. कविता और संगीत की उनकी उम्दा समझ ही हमारे बीच पुल का काम करती है.

कविता आशुतोष के मित्र मुनेश कुमार 
की लिखी हुई है. यह एक तरह का ‘एक्स्टेम्पोर एकालाप’ है जिसे आधुनिक या पुरानी किसी भी कविता के किसी भी बने-बनाए फॉर्मेट में फ़िट नहीं किया जा सकता. साहित्यकार इसे न पढ़ें क्योंकि यह साहित्य भी नहीं है. यह फ़क़त एक कविता है जिसकी भाषा संभवतः पूरी तरह से ‘आउट ऑफ़ फ़ैशन’ हो चुकी है पर कुछ चीज़ें कभी भी ‘आउट ऑफ़ फ़ैशन’ नहीं हो सकतीं जैसे कि प्रेम, सम्वेदना ... वगैरह वगैरह ... 

इसके पहले कि मैं कुछ और लिखूं, कविता प्रस्तुत करता हूँ. कविता से पहले मुनेश ने यह प्रस्तावना बांधी है. प्रस्तावना क्या है एक निराग्रह, ईमानदार स्वीकारोक्ति है जिसमें कहीं भी अपने आपको बड़ा बुद्धिजीवी साबित करने की कोई मूर्खतापूर्ण जिद नहीं सिर्फ़ एक भले आदमी की बातें हैं जिन्हें वह संसार से साझा करना चाहता है. सच तो यह है कि इस कविता को कहीं छपाने की नीयत से लिखा ही नहीं गया था. फिलहाल मुझे बहुत पसंद आया यह अंदाज़. खैर ...  –


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यह कविता एक प्रस्तावना की भी दरकार रखती है ! बात तो सामान्य सी थी. पत्नी ने कहा “जीवन में रोमांस कुछ कम है”. मैंने कह दिया “चलो, कविता लिख देते हैं” पत्नी के लिए कभी लिखी भी नहीं. संयोग से जन्मदिन भी पास ही था

मुझे पत्नी के लिए लिखा गया साहित्य पढने का अवसर नहीं मिला. कविता तो प्रेमिका के लिए ही लिखी जाती है. ऐसी मान्यता है शायद. पति- पत्नी संबंधों के एस एम एस बहुत पढ़े हैं ! हँसा भी खूब हूँ ... पत्नी और दोस्तों के साथ उन्हें साझा भी किया है.

खैर, लिखना शुरू किया तो अहसास हुआ कि इतने आयाम हैं इस सम्बन्ध में ... मैं खुद भौंचक, में खुद अवाक्! सामाजिक अनुबंध, आर्थिक परस्परता या वयस्क सहमतियों से इतर कितनी सतहों पर - ‘पति-दृष्टि’ की एक नयी चेतना का अगर एहसास दिलाये तो ये कविता सफल. वर्ना पत्नी तो खुश हो ही गयी.

रोमांस किसी पेड़ के आस-पास हल्की गति से चक्कर लगाने या कश्मीर की डल लेक में चप्पू पकड़कर फोटो खिंचाने का मोहताज नहीं है. रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में, मेरी बात पर जब वो आँख उठाकर देख लेती है तो रोमांस पैदा होता है. अनुभव करना हम पतियों के हाथ में है. जहाँ, पत्नी - जैसी है, वैसी है - के लिए (समर्पण न हो , प्यार न हो ) सम्मान है. वहां रोमांस ही रोमांस है. पत्नी को मेरा नमस्कार!

लिखने को अभी बहुत कुछ घुमड़ रहा है पर फिलहाल इतना ही! 

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सगुण-संधि का महागान

विस्तृत अतृप्त भटकावों में
तुम रूप, गंध, रस की लीला -
मेरी पतंग की चरखी हो

तुम मुक्त गगन के पक्षी को खींचकर अवनि पर बार-बार,
करती प्रगाढ़ चिर बंधन को, अभिनंदित करती चिंतन को…

अनिवार गुरुत्वाकर्षण हो
अस्तित्व -बोध का दर्पण हो 

शाश्वत भटकन में लघु विराम,

तुम विस्तारों की आख्या हो,
अद्वैतवाद की व्याख्या हो,
तुम तरल-तूलिका सरगम की, सन्दर्भों का सुन्दर कलरव,

जीवन की सकल विमाओं के संकलित स्वरों पर अनुस्वार
क्या पिछले जन्मों का प्रतिफल ? या, अगले जन्मों को उधार?

या ... सत्कर्मों का पुरस्कार?
तुम छियालीस, तुम शानदार !

***

तुमसे परिचय के तीस साल,
कितने बवाल, कितने सवाल !

व्याकुल-संशय, दुःसह-प्रवाह, सहमे-आशंकित विश्लेषण ,
पर खेल खेल में कटी राह… तुम स्वीकृतियों का संश्लेषण,
संतुष्ट-समन्वय की आशा, विश्वास-प्रेम की परिभाषा,

लेकर जीवन में आई हो,
सकुचाई हो, शरमाई हो, मुस्काई हो, घबराई हो,
भरमाई हो, इठलाई हो, दिल-ओ-दिमाग पर छाई हो-
गरमायी हो, दुःखदायी हो-
तुम जैसी हो, तुम वैसी ही, अंततः हमेशा भायी हो -

संगिनी-सरल दुर्गम-पथ की
सारथी-सफल जीवन-रथ की

तुम प्रेम-पंथ में पागल भी,
तुम चिर-विजयी, नित-घायल भी,

सम्यक जीवन की बाग़डोर,
सब मंतव्यों का ओर-छोर,
जग की उबड़-खाबड़ता में, सार्थकताओं की वास्तुकार.

तुम स्वप्न-जगत का चित्रहार
तुम छियालीस, तुम शानदार!

***

तुम गुण- अवगुण से ओत- प्रोत,
प्रासंगिकता का प्रथम स्रोत -

हो भावों की उर्वरा धरा-
जनती इच्छा- आशा- विचार
तुम दृढ-निश्चय की वसुंधरा-
पालती सृजन-कर्त्तव्य-प्यार

आवश्यकता की शुरुआत, तुम उदय-रश्मि कर्तव्यों की,
सुगठित प्रयास का जल-प्रपात, तुम सृजन-शक्ति भवितव्यों की,
तुम प्रेरक हो बलिदानों की,
तुम कारक हो सम्मानों की
तुम जिज्ञासा सम्बन्धों की,
तुम संवाहक अनुबंधों की

तुम संतति की पालक-पोषक, जीवनी-शक्ति की संरक्षक,
तुम घोर व्याधियों का उपाय

तुलसी अदरक की एक चाय देकर कर देती पल भर में,
तुम निश्छल, तत्पर, सावधान,
मर्यादाओं का सजग ज्ञान

तुम दूर्वा-दल जैसी विनीत, अति क्षमाशील, अतिशय उदार !
तुम अनायास, तुम लगातार
तुम छियालीस, तुम शानदार

***

उच्छ्रंखल घोड़े पर लगाम,
समवेत डरों का एक नाम

आतुर-चिंता से अस्त-व्यस्त अंतर्द्वंद्वों का सूत्रपात
कितने प्रकार के अस्त्र- शस्त्र ! वर्चस्वेच्छा की कुटिल-घात
सांसारिकता में अति प्रवीन, सक्षम-समर्थ, फिर क्यों मलीन?
क्यों संप्रभुता की आकांक्षी?

अज्ञेय जटिल सा मोहपाश, तुम व्यंग्य-गरल का अट्टहास
तुम मायावी लय- ताल- बंद, निष्ठुर प्रश्नों का मुक्तछंद

अनुशासन की दम्भित प्रहरी-

तुम मीन-मेख, तुम नाप-तोल,
गणनाओं का विस्तृत खगोल,
तुम अंकुश भी, तुम चाबुक भी,
तुम कटु-कर्कश, तुम भावुक भी,

रक्तिम नयनों का आर्तनाद,
उलझा देता सारे विवाद,

तुम रक्तजनित उन्मादों पर, भीषण अटैक - निर्मम प्रहार!
तुम चतुर-नार, बडि-होशियार
तुम छियालीस, तुम शानदार!

***

तुम रमणी हो, मनमोहक हो,
संपर्क-सुधा की दोहक हो-

तुम मौन-स्वरों का आमंत्रण, उत्तप्त-शिराओं की पुकार,
तुम सुप्त-वन्हि का आवाहन, तुम विपुल-तृषा का उष्ण-ज्वार,
सान्निध्य-सूत्र का परिष्कार,

सामीप्य-सुखों का स्पंदन, दैहिक-घर्षण का मृदु-परिचय,
तुम मृदुल-तरल-आनंदित लय,

आनंदलोक में चिर विचरण,
आसक्त-समर्पण का विस्मयकारी-उन्मुक्त-विसर्जन-क्षण,

तुम रोमांचित-क्षण का प्रमेय,
पूर्णत्व-बोध का अवलंबन, रेखांकित-श्रम का मुग्ध ध्येय

तुम श्रुति ! उमंग संवादों की,
तुम जलतरंग उन्मादों की,

तुम लीन-समागम की महिमा,
हर सूर्योदय की प्रथम बाँग

तुम गिरा-ज्ञान-गोतीत गीत
तुम सगुण-संधि का महागान

तुम हर धड़कन में विद्यमान चेतनता की मधुमय-पुकार!
तुम द्रवित-प्रीति, मादक-खुमार
तुम छियालीस, तुम शानदार!

***

तुम ईगो की संपूर्णाहुति,
तात्विक-चिंतन की भगीरथी I

तुम अटल-प्रेम की सचल-रीति, तुम प्रबल-प्रज्ञ, तुम परम-यज्ञ,
तुम सरल-तरल-संपन्न प्रीति. मैं सदा ऋणी, मैं चिर कृतज्ञ

सुविचारी हो, हितकारी हो, या विकल वेदनाकारी हो,
अपनी दुनिया को गढ़ने में, सम्पूर्ण सृष्टि पर भारी हो
बलिहारी हो, दुखियारी हो, मूलतः-अंततः नारी हो

तुम रूप-वर्ण से परे परिष्कृत-नवल-दृष्टि का आलंबन,

अदृश-अमूर्त का सम्मोहन,
तेरी वाणी का सुराचमन,
तेरी नज़रों का आस्वादन,
तेरे मन में निस्तब्ध शयन करने की ललक नहीं जाती
क्षण- प्रतिक्षण-हर क्षण, बार-बार

तुम माता भी, तुम आर्या भी,
तुम भगिनी भी, तुम भार्या भी,

वेदना -- सकल मानवता की,
कामिनी -- जगत में समता की
धारिणी-- ह्रदय के आंगन में,
अक्षय करुणा की - ममता की

ईश्वर की महिमामय कृति हो,
मेरे जीवन की सदगति हो तुम विश्व-चेतना का प्रसार!

विधि के विधान का चमत्कार
तुम छियालीस, तुम शानदार!

7 comments:

Pradeep said...

"लेकर जीवन में आई हो,
सकुचाई हो, शरमाई हो, मुस्काई हो, घबराई हो,
भरमाई हो, इठलाई हो, दिल-ओ-दिमाग पर छाई हो-
गरमायी हो, दुःखदायी हो-
तुम जैसी हो, तुम वैसी ही, अंततः हमेशा भायी हो "
जैसा कि आपने फरमाया ... पत्नी के लिए लिखी गयी इतनी सुन्दर श्रृंगार रस से ओत-प्रोत कविता मैं भी पहली बार ही पढ़ रहा हूँ ...
शायद कैफ़ी आज़मी ने "उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे" जीवनसंगिनी पत्नी के लिए ही कहा हो !
आपकी व्याख्या लाजवाब है ..
सच कहा आपने .. "रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में, मेरी बात पर जब वो आँख उठाकर देख लेती है तो रोमांस पैदा होता है. अनुभव करना हम पतियों के हाथ में है. जहाँ, पत्नी - जैसी है, वैसी है - के लिए (समर्पण न हो , प्यार न हो ) सम्मान है. वहां रोमांस ही रोमांस है"
... रोमांस बना रहे :)

जीवन और जगत said...

कविता लगती यह शानदार।

पढता हूँ इसको बार-बार।


प्रेम और संवेदना की अभिव्‍यक्ति का अनोखा अंदाज है। 'मेरी पतंग की चरखी हो' रूपक का प्रयोग पहली बार पढा है। कुछ नयापन भी है और अनोखापन भी।

Mridula Ujjwal said...

bahut bahut bahut hi sunder Munesh....

this piece will make any wife go speechless

regards

naaz

pranay krishna said...

मुनेश की क्या गज़ब तस्वीर दी है, गुरु. लगता ही नहीं, यह मनुष्य पिछले बीस साल में जिस्मानी और रूहानी तौर पर कहीं बदला है. इतनी सुन्दर कविता साले ने अलग से लिख मारी है. आशुतोष और मुनेश, दोनों अव्वल नंबर के बदमाश हैं, इन्होने अपनी हरकतों से हैरान कर देना अब तक नहीं छोड़ा है. 'बदमाश' न लिखता, वही लिखता जो इलाहाबादी अपने प्राचीनतम मित्रों के लिए लिखते, बोलते हैं, लेकिन 'संसदीय' नहीं होना चाहता. बेइन्तहा खुशी हुई है मुनेश को देखकर 'कबाड़खाने' पर. कविता जिन पर है, उनकी भी तस्वीर होनी चाहिए. -प्रणय कृष्ण

Ashok Pande said...

प्रणय दादा की आखिरी बात से मेरी भी सहमति.

Boundaryless world said...

प्रणय दादा ... क्या छुट्टल तारीफ ! अहोभाग्य !!
दिल्ली प्रवास पर दर्शन दें... किसी शाम का काम तमाम किया जाए!!

thanks Pradeep , Ghanshyam and Mridula ...

Boundaryless world said...

Hin