आज पेश है उनकी एक नज़्म-
ड्राईंग रुम
ये सीनरी है, ये ताजमहल, ये कृष्ण हैं और ये राधा हैं
ये कोच है, ये पाइप है मेरा, ये नाविल है, ये रिसाला है
ये रेडियो है, ये कुमकुमे हैं, ये मेज़ है, ये गुलदस्ता है
ये गांधी हैं, टैगोर हैं ये, ये शहंशाह, ये मलिका हैं
हर चीज़ की बाबत पूछती है, जाने कितनी मासूम है ये
हाँ इस पर रात को सोने से मीठी मीठी नींद आती है
हाँ इसको दबाने से बिजली की रौशनी गुल हो जाती है
समझी कि नहीं ये कमरा है, हाँ मेरा ड्राईंग रुम है ये
इतनी जल्दी मज़दूर औरत आखिर गले में बाँहें क्यों?
ले देर हुई अब भाग भी जा, बस इतनी मेहनत काफ़ी है
इस मुल्क के भूखे-प्यासों को पैसे की हाज़त काफ़ी है
इतनी हंसमुख ख़ामोशी क्यों, इतनी मानूस निगाहें क्यों?
मैं सोच रहा हूँ कुछ बैठा पाइप के धुएं के बादल में
मैं छुप सा गया हूँ इस नाज़ुक तख़ईल के मैले आँचल में
(मानूस - परिचित, तख़ईल - कल्पना)
1 comment:
ऊँचे लोग । शानदार । क्या बात है ।
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