Thursday, September 6, 2012

सलाम मछलीशहरी का क़लाम – १

उत्तरप्रदेश में जौनपुर के मछलीशहर में १९२१ में जन्मे इंतख़ाब सलाम उर्फ़ सलाम मछ्लीशहरी ने ऑल इण्डिया रेडियो की नौकरी करते हुए तीन संग्रह शाया किए – ‘मेरे नग़मे’, ‘वुसअतें’ और ‘पायल’. उर्दू ज़बान में उनकी शायरी को एक नई और बेझिझक आवाज़ के बतौर याद किया जाता है. उनकी कुछेक ग़ज़लों को जगजीत सिंह ने भी आवाज़ दी थी. वे प्रगतिवादी लेखक आन्दोलन से गहरे जुड़े रहे थे और फैज़, साहिर, मजाज़ और जज़्बी जैसे शायरों के साथ उर्दू काव्य की प्रगतिशील धारा के मुख्य रचनाकारों में शामिल थे. १९७३ में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. उसी बरस उनका इंतकाल भी हुआ.

आज पेश है उनकी एक नज़्म- 



ड्राईंग रुम

ये सीनरी है, ये ताजमहल, ये कृष्ण हैं और ये राधा हैं
ये कोच है, ये पाइप है मेरा, ये नाविल है, ये रिसाला है
ये रेडियो है, ये कुमकुमे हैं, ये मेज़ है, ये गुलदस्ता है
ये गांधी हैं, टैगोर हैं ये, ये शहंशाह, ये मलिका हैं

हर चीज़ की बाबत पूछती है, जाने कितनी मासूम है ये
हाँ इस पर रात को सोने से मीठी मीठी नींद आती है
हाँ इसको दबाने से बिजली की रौशनी गुल हो जाती है
समझी कि नहीं ये कमरा है, हाँ मेरा ड्राईंग रुम है ये

इतनी जल्दी मज़दूर औरत आखिर गले में बाँहें क्यों?
ले देर हुई अब भाग भी जा, बस इतनी मेहनत काफ़ी है
इस मुल्क के भूखे-प्यासों को पैसे की हाज़त काफ़ी है
इतनी हंसमुख ख़ामोशी क्यों, इतनी मानूस निगाहें क्यों?

मैं सोच रहा हूँ कुछ बैठा पाइप के धुएं के बादल में
मैं छुप सा गया हूँ इस नाज़ुक तख़ईल के मैले आँचल में

(मानूस - परिचित,  तख़ईल - कल्पना)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

ऊँचे लोग । शानदार । क्या बात है ।