Tuesday, September 25, 2012

संभले हुए तो हैं, पर ज़रा डगमगा तो लें


एक प्रिय कवि अख़्तर-उल-ईमान की एक नज़्म प्रस्तुत करता हूँ. उर्दू से लीना नियाज़ ने लिप्यान्तरण किया है.

आख़िरी मुलाक़ात

आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ हम

आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अंजुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ितनासर गए जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे

अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ हम

सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आए
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं, पर ज़रा डगमगा तो लें

(जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत - प्यार की मौत का उत्सव, गुदाज़ – पिघलता हुआ, वलवले – उत्साह, फ़ितनासर – पागल, उल्फ़त-ए-देरीना – पुरानी मोहब्बत.)

1 comment:

Amrita Tanmay said...

बेहतरीन नज़्म पढवाने के लिए शुक्रिया..