Thursday, November 1, 2012

हमारी इस मौत को आत्महत्या कहा जाता है – शुभा का गद्य – २


असद ज़ैदी के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका ‘जलसा’ के पहले अंक में छपे शुभा के शानदार गद्य का अगला हिस्सा -


उत्पीड़ितों की दुनिया

हमें अपने उत्पीड़कों के साथ रहना पड़ता है. हम बचपन से ही उनके बीच होते हैं. हमें उत्पीड़कों की देखभाल करना सिखाया जाता है. उत्पीड़क के आगे सम्पूर्ण समर्पण के अनेक सिद्धान्त हैं. पतिव्रत घर्म और एकनिष्ठता उनमें सबसे प्रमुख हैं. चूंकि हम जिसे प्यार करती हैं वह हमारा उत्पीड़क होता है इसलिए हम उससे डरती हैं. असल में यह पता करना मुश्किल है कि हम प्यार कर रही हैं या डर रही हैं. डर और प्यार का प्रवाह एक दूसरे से गुज़रता रहता है. उत्पीड़न सहने और उत्पीड़क को प्यार करने की ट्रेनिंग के दौरान ही हमें अपनी सच्ची भावनाओं, विचारों और इच्छाओं को छिपाना सिखाया जाता है, उनका दमन करना सिखाया जाता है. लेकिन जिन चीज़ों का दमन किया जाता है उनके बार बार सिर उठाने की संभावनाएं होती हैं और जिन चीज़ों को छिपाया जाता है उनके घूमकर सामने आने की संभावना होती है. हम अपनी इच्छाओं, विचारों और भावनाओं को इस तरह छिपा सकती हैं कि वे हमसे भी छिप जाती हैं और बहुत समय तक छिपी रह सकती हैं.

जैसे वे हैं ही नहीं जैसे उनका होना एक भ्रम है. यह भ्रम अक्सर हमारे आस-पास मंडराता है. हमारे भ्रम कभी-कभी हमारे अन्दर ऐसे एकान्त की रचना करते हैं जिसे हमारे उत्पीड़क नहीं जानते. इस एकान्त में हमारे भ्रम ख़ामोशी से पलते रहते हैं. इन भ्रमों के अन्दर एक सार चुपचाप पोषित होता रहता है. हमारा एकान्त बड़े रहस्यमय तरीक़ों से यात्रा करता है. सदियों से हमारा एकान्त एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में समा जाता है. ये रहस्यमय तरीक़े इसलिए रहस्यमय हैं क्योंकि ये गोपनीय हैं, इनकी कोई सर्वसम्मत सामाजिक भाषा नहीं है जैसे जानवरों के बीच संकेतों से एक विमर्श रहता है वैसे ही हमारे एकान्तों के बीच रहता है. एक उत्पीड़ित दूसरे उत्पीड़ित की बात किसी भी तरह समझ लेता है. मसलन ख़ामोश रहने से, बहुत बोलने से, पलक उठाने से या गिराने से, सामने देखने से या नीचे देखने से, हंसने से या न हंसने से, रोने से या न रोने से, हमारी त्वचा कड़ी पड़ने से या कोमल होने से, हमारी आँखों से गुज़रती हवा की ध्वनि से, हमारे चेहरे की किसी झांई से, किसी ज़ख़्म से, किसी श्रृंगार से, हमारे बालों की किसी गति से, हमारे सांस की लय से या उसके टूटने से, टूटे हुए नाखून से, किसी झुर्री से, पैर की बिवाइयों से, हमारे आँचल के कोनों से, कांपने से, गिरे हुए कन्घों से, हमारी दबी हुई आहों से जो आँखों में उतर आती हैं. इस तरह प्रकृति की एक भाषा हमारा अनुभव - एक उत्पीड़ित जाति का अनुभव - गुपचुप बचाये रखती है. फिर बहुत समय बाद कोई स्त्री हृदय उसे सामाजिक भाषा में लिखता है, हमारी बातें जब सामाजिक भाषा में आती हैं तो यह वर्चस्व हिलता है.

उत्पीड़ित लोगों को अक्सर ज्ञान से वंचित रखा जाता है इसलिए उनके अन्दर एक प्रतिज्ञान पनपता है. इसकी शक्ल ज्ञान से बिल्कुल नहीं मिलती इसमें न पाण्डित्य होता है न कला, इसमें न तर्क होता है, न सटीकता, एक पद्धति का अभाव ही इसकी पद्धति होती है. इस तरह यह प्रतिज्ञान पण्डितों की नज़र से छिपा-छिपा विकसित होता रहता है.

चूंकि उत्पीड़क उत्पीड़ित के एकान्त को नहीं जानता. जबकि उत्पीड़ित उत्पीड़क के बारे में लगभग सबकुछ जानता है, वास्तव में उत्पीड़कों के कोई रहस्य नहीं होते. उत्पीड़ित जो कुछ जानता है उसके प्रति कभी भी सचेत हो सकता है, जबकि उत्पीड़क सचेत होने का समय ही गंवा चुके होते हैं.

उत्पीड़ित का रुदन बहुत लोग सुनते हैं और जब वह चुप हो जाता है तो लोग सोचते हैं रुदन समाप्त हो गया लेकिन रुदन एक स्मृति बनकर संचित होता जाता है. इस स्मृति में उत्पीड़क की अनेक छवियाँ होती हैं, उसकी भाषा होती है. ये बन्दी छवि और भाषा उत्पीड़ित में न्याय की चेतना जगाती हैं. इस न्याय चेतना को उत्पीड़क जब तक भांपता है बहुत देर हो चुकी होती है.

उत्पीड़क की आत्मछवि धूमिल पड़ जाती है और उत्पीड़ित द्वारा प्रक्षेपित छवि अपना वर्चस्व कायम करती है. यही वजह है कि गुलामों के मालिक क्रूर और जाहिल लोगों के रूप में जाने जाते हैं, बहुत से राष्ट्रवादीफ़ासिस्टों के रूप में जाने जाते हैं - बहुत से प्रेमीघोखेबाज़ों के रूप में और ज्ञानीषडयन्त्रकारियों के रूप में जाने जाते हैं.

चूंकि हमें उत्पीड़कों की देखभाल और उन्हें प्यार करने का काम लम्बे समय से दिया गया है इसलिये हमें लगातार उनकी ओर से देखना पड़ता है, हम उनसे बढ़कर उनकी ओर से देखती हैं और इस तरह उनके देखने की सीमा पर पहुँच जाती हैं फिर भी हमें अपना काम करना होता है. इस तरह उत्पीड़क को प्यार करते-करते हमारे लिए अपना भावनात्मक ढाँचा बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, हम उसे इसलिए बचाना चाहती हैं कि उत्पीड़क को प्यार कर सकें, हम असल में अपने भावनात्मक ढाँचे को प्यार करने लगती हैं, उसे बचाती हैं, पोषित करती हैं, उसके संरक्षण के लिए आतुर हो उठती हैं, हमें इसके आगे उत्पीड़क बहुत छोटा मालूम पड़ता है. इसीलिए हमारे उत्पीड़क अनेक बार एकान्त में हमारे सामने रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, किसी बात के लिए माफ़़ी मांगते हैं. उत्पीड़क को प्यार करना प्रकृति के खि़लाफ़़ है, इसलिए बहुत मुश्किल है हमारे लिये यह मुश्किल काम जब दुष्कर हो जाता है तो हम एक इच्छित मनुष्य की कल्पना करती हैं और उसे उत्पीड़क पर आरोपित कर देती हैं. यह मुनष्य छवि हमें जीवित रखती हैं और हम इसे जीवित रखती हैं फिर यह रहस्यमय ढंग से हमारे गर्भों में समा जाती है. और हमारे उत्पीड़कों के बीच हमारे पक्षघरपैदा हो जाते हैं. ये पक्षघर कुछ दूर तक हमारा साथ देते हैं.

ये बातें वैसे तो सभी गुलामों की ओर से हैं लेकिन फिर भी ख़ास तौर से स्त्री गुलाम की ओर से है. हमारे उत्पीड़कों में गुलाम भी होते हैं, वास्तव में उत्पीड़कों की एक ही जाति होती है. उत्पीड़कों से प्यार करने वाली हमीं कह सकती हैं कि पुरुष उत्पीड़क होते हैं. उत्पीड़ितों की कमअक्ली और उनका निहत्थापन सभी सदियों से जानते हैं.

हम उत्पीड़कों को अपने दुख सुनाते रहते हैं, हम अपने दुख केवल उत्पीड़कों से कह सकते हैं बाक़ी किसी से भी अपने दुख कहना हमें निषिद्ध है. हमारे दुख निवेदन, बड़बड़ाना, कोसना और फ़़ुसफ़़ुसाने के रूप में सामने आते हैं. कोसने और बड़बड़ाने का काम हम अक्सर अकेले करती हैं, हमारे दुख अनेक बार क्षमा याचना की तरह सामने आते हैं और कई बार उन्हें हमारी ग़लतियों की तरह रखा जाता है. यह बहुत अघिक करना पड़ता है क्योंकि हम अपने उत्पीड़कों से हमदर्दी की उम्मीद रखते हैं. जितना हम अपना दुख सुनाते हैं उतनी हमारी उम्मीद बढ़ती जाती है. एक दिन हम पाते हैं कि हम एकालाप कर रहे थे. जब हम अपने को अपने दुख के साथ अकेला देखते हैं तो वह हमारी शक्ति बन जाता है. वह हमारा आत्मपक्ष होता है और हम आत्मपक्ष को ख़ामोशी से सहेजे रखती हैं. लोग समझते हैं हम कोख में सिफ़ऱ् गर्भ घारण करती हैं. हमारी कोख़ पर उत्पीड़कों का नियन्त्रण है लेकिन वे उसके बारे में कुछ नहीं जानते.

उत्पीड़कों के अनेक शौक़ होते हैं जिसमें एक शौक है आदर्शऔर न्याय का. वे काफ़़ी न्यायकरते हैं और काफ़़ी आदर्शरखते हैं. न्याय अन्याय के बारे में वे बहुत बहस करते हैं. हम रेडियो, अख़बारों और टी वी में चलने वाली इन बहसों के आधार पर राय नहीं बनाते, हम अपने जीवन के अन्दर यह राय बनाते हैं. हम देखते हैं कि न्याय के बटखरों में खोट मिली है, हम इन बटखरों को देखती रहती हैं और न्याय अन्याय की बहस से आम तौर पर परे रहती हैं. हमारे अन्दर चोरी-चोरी दूसरे बटखरे बनते रहते हैं उसी तरह जैसे कई बार हमें छिपकर खाने की आदत पड़ जाती है क्योंकि हम अक्सर भूखी रहती हैं.

चूंकि हमारी रोटी-रोज़ी ही नहीं हमारा आस्तित्व भी उत्पीड़क की कृपा पर निर्भर करता है, इसलिए हमें उत्पीड़क की कृपा के पात्र के रूप में अपने को ढालना पड़ता है. अगर हम सुरक्षित और आत्मविश्वासपूर्ण दिखाई तो उत्पीड़क की कृपा उड़नछू हो जाती है इसलिए हमें एक आत्महीनता लगातार पोषित करनी पड़ती है. हम अकेली, अरक्षित, आत्महीन बनी रहकर ही अपने अस्त्तिव की रक्षा कर पाती हैं. इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि हमारे ऐसा बनने पर हमारा उत्पीड़क हमें अपनाए रखेगा वह हमें विसर्जित भी कर सकता है ऐसी हत्याएं आजकल बहुत बढ़ गई हैं. हमारे उत्पीड़कों में यह परिवर्तन आया है कि वे हमें अकारण मार सकते हैं. जब वे हमारी हत्या करते हैं उससे पहले तक हम उनके कपड़े तह कर रही होती हैं, उनके बिस्तर लगाती हैं और उन्हें मनाये रखने की कोशिश कर रही होती हैं. हम हत्यारे के कमरे में उसके साथ सोती हैं. हमें मारने से पहले वह कितनी ही रातें हमें मारने का विचार छोड़ देता है. हमारे पास विश्वास करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. हम उस आदमी पर विश्वास कर रही होती हैं जो हमारी हत्या के बारे में सोच रहा है.

कई बार हमारे उत्पीड़क बड़े उदार होते हैं. वे हमारी बातें ध्यान से सुनते हैं और फिर बड़े प्यार और आसानी से हमारे फ़़ैसलेबदल देते हैं. वे हमें गुस्सा करने की इज़ाजत भी देते हैं. उन्हें कभी कभी हमारा गुस्सा अच्छा लगता है, हमारे विचार अच्छे लगते हैं लेकिन अगर हम निष्कर्ष निकालने लगें तो उन्हें क्रोध आ जाता है. वे ख़ामोश हो जाते हैं. ख़ामोश रहकर वे हमें डराते हैं और इस तरह हमें हमारी जगह पर छोड़ आते हैं. ऐसे उत्पीड़क हमें इनाम भी देते हैं ओर हमें प्यारभी करते हैं इस तरह हमारी वफ़़ादारी सुनिश्चित करते रहते हैं.

इस बात की मनाही है कि हम अपने दुखों को देखें, हमें उत्पीड़क के कष्ट देखने होते हैं. उसके संभावित कष्ट भी देखने होते हैं. क्योंकि हमें उसे हर तरह आराम पहुँचाना होता है. हम अपने कष्ट नहीं देखतीं लेकिन फिर भी किसी समय हमारे दुख अनाथ, भूखे बिलखते बच्चों की तरह हमें घेर लेते हैं. कई बार हम इनमें घँस कर मारी जाती हैं. हमारी इस मौत को आत्महत्या कहा जाता है.  

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