अधूरी बातें – ३
-शुभा
स्वतः
प्रेरित काम का अवमूल्यन प्रायः होता है क्योंकि उसमें ‘श्रम’ की दृश्यमानता कम, प्रेरणा
की गति अघिक होती है. श्रम को अनिवार्यतः बोझिल माना जाता है इसलिए ‘ख़ुद ब ख़ुद’ हुए कामों को कम महत्व दिया जाता है. यह मामला काफ़़ी गहरा और फैला हुआ
है. मसलन उन चीज़ों को जो बहुत ‘सम्प्रेषणीय’ होती हैं अक्सर ‘बौद्धिक’
विमर्श से बाहर मान लिया जाता है क्योंकि ऐसे विमर्श
के साथ एक अत्यन्त औपचारिक,
वितण्डावादी या निष्प्राण भारी शब्दों से बोझिल
भाषा को प्रायः अनिवार्य मान लिया गया है. इस घारणा के कारण जीवन्त, मर्मस्पर्शी, बिम्बमयी भाषा में कही जाने वाली बातों की गम्भीरता को कम करके आँका जाता
है. जनपदीय भाषा,
महिलाओं और वंचित तबक़ों की भाषा के प्रति इसीलिए
एक अवहेलनात्मक रुख़ बना रहता है. बच्चों की बातों में छिपी गम्भीरताओं पर तो हमारे
यहाँ हँसने का रिवाज सा बन गया है. बौद्धिक श्रम का यह एक पुरुषवादी कन्सट्रक्ट है
जिसमें ‘बोझ’ की अवघारणा मौज़ूद है. प्रवाहित होने की धारणा मौजूद नहीं. इस बात को यूँ
भी कहा जा सकता है कि बौद्धिक श्रम से उसके संगीत और लय को छीन लिया गया है और उसे
केवल ताल में बाँघ दिया गया है. श्रम का संगीत छिनने से उसकी ‘ध्वनि’ और ‘सौंदर्य’ धूमिल पड़ गया है. श्रम में उल्लास नहीं बचा और उससे निकले गीत नहीं बचे.
बौद्धिक श्रम की दुनिया में तो वे अपनी जगह ले ही नहीं पाए.
(‘जलसा’
पत्रिका से साभार)
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