अधूरी बातें – ५
-शुभा
एक ऐसा
समाज जहाँ क़बीलाई ढांचे बचे हुए हों जहाँ अभी तक बंघुआ प्रथा हो, जहाँ जातिवाद और घर्म के सबसे रंगीन रूप मनुष्य
गरिमा को कुचल रहे हों,
जहाँ स्त्री-पुरुष के बीच स्वस्थ सामाजिक संबंघ
अवरुद्ध हों, जहाँ इस सम्बन्घ को फ़़ूहड़ रूप में पेश करके मुनाफ़़ा कमाया जाता हो, जहाँ वेश्यावृत्ति और औरतों की ख़रीद फ़़रोख़्त चलती
हो,
जहाँ अस्सी प्रतिशत लोग भुखमरी के कगार पर खड़े हों, जहाँ सामान्य नागरिक अघिकार निरर्थक हो चले हों
प्रेम पर बात करना कितना मुश्किल है. जहाँ एक मनुष्य व्यक्ति के रूप में विकसित ही
नहीं हो पाता और आत्मदमन ही जिस जीवन का सार हो वहाँ प्रेम पर बात करने लायक जगह निकालनी
भी मुश्किल है. भले ही यह समाज एक लोकतंत्र और संवैघानिक समानता का मुलम्मा क्यों न
रखता हो. मुझे आश्चर्य होता है इस बात पर कि हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में
साहित्य पढ़ाया जाता है. ऐसा समाज जहाँ सती का समर्थन किया जाता हो और पतिव्रत घर्म
के मुकाबले सच्चे प्रेम को पाप समझा जाता हो, किस तरह आधुनिक साहित्य को समझ सकता है. ऐसे समाज में घर्मशास्त्र, नैतिकशास्त्र और कानून की पढ़ाई होना स्वाभाविक है.
लेकिन साहित्य और वह भी आधुनिक साहित्य वहाँ कभी भी असंगत जान पड़ता है. जहाँ बिजली
पानी जैसी नागरिक सुविघाओं को लोग अपने हक़ में शामिल न कर पाये हों भला प्रेम के अघिकार
को कैसे पहचान सकते हैं?
आज यह
कहना काफ़़ी नहीं है कि मनुष्य पर हृदय है और भाव है इसलिए प्रेम उसका हक़ है. नहीं, आज तो फिर से पहले ये प्रमाणित करना होगा कि मनुष्य
पर हृदय है और भला यह ‘हृदय’ भी क्या है?
इसे समझे बिना काम कैसे चलेगा क्योंकि हमारे बाज़ार
ने अपने माल के लायक ‘हृदय’ भी बाक़ायदा मैन्यूफ़़ैक्चर किये हैं. यह हृदय अपने को बहुत बार किसी ख़ास
घी,
चाकलेट, कपड़े या प्रसाघन आदि के रूप में प्रकट करता है. यह हृदय तो ख़ुद एक जिन्स
है,
तरह-तरह की उपभोक्ता सामग्री के बीच मसलन किसी ख़ास
चाय की पत्ती,
पेन किलर, तरह तरह के जूतों और टायरों आदि में दबा पड़ा है. क्या दुनिया है इसकी.
यहाँ एक सिगरेट,
एक स्कूटर या एक गोरा बनाने वाली क्रीम के बदले
प्रेम प्राप्त हो जाता है. इज़्ज़त, सफलता तो ख़ैर क़दमों में ही पड़ी होती है. ऐसी विवेकवान बुद्धिमति जो अपनी
साड़ी की सफ़़ेदी से सारी दुनिया को ईर्ष्या के गर्त में धकेलती स्वयं सफल एक्ज़ीक्यूटिव
बन जाती हो जो गृहणियाँ मैले होते कपड़े देखकर बड़ी ख़ुश हों और एक ख़ास साबुन पर हाथ फ़़ेरती
हों भला किसलिये प्रेम जैसी चीज़ की ज़रूरत महसूस करेंगी? और भला प्रेम उनका बिगाड़ भी क्या सकता है! हमारे
समाज के लड़के जो जन्म लेते ही मर्दानगी का ऐसा पाठ पढ़ते हैं कि हर किस्म की संवेदनशीलता
को ही तिरस्कृत करने लगते हैं, जो केवल
हासिल करना और छीन लेना ही जानते हों, कुछ नया रचने में, रचना
करते हुए कुछ बनाने में जिनका विश्वास ही न हो भला वो प्रेम का क्या करेंगे. और प्रेम
ऐसी जोख़िम वाली चीज है जिसमें तथाकथित ‘हार-जीत’
दोनो में ही नुक़सान है.
(‘जलसा’
पत्रिका से साभार)
No comments:
Post a Comment