Tuesday, November 6, 2012

प्रीत पुराणी रै कारणे वो चुग चुग कंकर खाय - नए कबाड़ी मृत्युंजय के स्वागत में एक बार पुनः मुख्तियार अली


राजस्थान की उत्तर पश्चिमी सरहद पर स्थित एक छोटे से गाँव पूगल में १ अगस्त १९७२ को जन्मे मुख्तियार अली की गायकी से मेरा परिचय पहले पहल शबनम विरमानी द्वारा कबीरदास जी पर बनी डोक्युमेंटरी ‘हद अनहद’ से हुआ. थार के रेगिस्तान के अर्ध घुमंतू मीरासी समुदाय के मुख्तियार सूफ़ियाना क़लाम गायन की परम्परा को जीवित बचाए रखने वाली छब्बीसवीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं और ‘हद अनहद’ में उनके आठ-दस साल के बच्चों को उनके साथ ‘सानूँ इक पल चैन नी आवे’ के साथ संगत करते हुए देखना सुनिश्चित करने वाला था कि सत्ताइसवीं पीढ़ी भी तैयार हो रही है.

मुख्तियार ने अपने राज्य और गाँव-परिवार की हदों को पार कर अफ्रीकी गायक अमेथ मेली और मोरक्को की गायिका सोफिया चराई के साथ दो अल्बम तैयार करने के साथ साथ कुछेक और अलबम भी तैयार किये हैं. उन्होंने दो फिल्मों में भी अपनी आवाज़ दी है.

कल आपने उनका गाया ‘झीनी झीनी चदरिया’ सुना था. मुख्तियार अली के स्वर में आज प्रस्तुत है कबीरदास जी की एक और रचना. कबीर किसी एक भाषा या सरहद के भीतर समेटे जा सकने वाली शख्सियत नहीं हैं. जैसा कि पिछली कई शताब्दियों से होता आ रहा है, कबीर की वाणी को हर इलाक़े में वहीं की ख़ास बोली में ढाला गया. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि किस पद का मूल संस्करण कौन सा है. इस प्रस्तुति में कबीर के शब्दों को राजस्थानी रंग दिया गया है जो बहुत मीठा लगता है और अंदर तक छूने वाला होता है.

मुख्तियार अली की कल वाली पोस्ट के कारण आज सुबह सुबह मेरी दुर्लभ नींद में ख़लल डालने वाले मृत्युंजय की कबाड़खाने में एंट्री लम्बे समय से अनजान वजहों से टलती जा रही थी. आज से वे भी कबाड़खाने से जुड़ रहे हैं और “आशा ही जीवन है” के सतत सिद्धांत पर यकीन करने वाला यह कबाड़ी एक बार फिर से उम्मीद करता है कि मृत्युंजय भी बाकी के कबाडियों की तरह चुप नहीं बैठ जाएंगे और जल्दी ही कुछ लेकर हाज़िर होंगे.

आशा है बाकी कबाड़ी सुन रहे हैं -   


 


(जोधपुर में रहने वाले भाई संजय व्यास क्या इस कम्पोजीशन के शब्द उपलब्ध करा सकेंगे? या और कोई साहब! )

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पोस्ट पर मैंने भाई संजय व्यास से जो निवेदन किया था, उसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया और इस भजन का पाठ आप के वास्ते भेजा है. शुक्रिया संजय भाई. आपके बने रहने से बहुत कुछ बना रहता है.

हंसला पाळ न छोड़िये 
जे जळ खारा होय 

झील र झील र भटकता 
तनै भलो न कैसी कोय.

पाळ पुराणी र 
जळ नुवो 
तो हंसला बैठो आय 
प्रीत पुराणी रै कारणे 
वो चुग चुग कंकर खाय.

अरे आज तो हजारी हंसो पावणो ए 
हे मारे आज तो काया रो राजा पावणो ए 
अरे आज तो गायड मल पावणो ए 

हेली कुण  तो देसां सूं हंसां आविया ए हेली
कुण  तो देसां सूं हंसां आविया ए साथण
कुण  तो देसां नै जाय हे साथण सुण, कुण तो देसां नै जाय.

हे नाभ नगर सूं हंसां आविया ए हेली
हे नाभ नगर सूं हंसां आविया ए हेली
तिरवेणी नगर नै जाय साथण सुण 
आज तो काया रो राजा पावणो रे

गिगन मण्डल बाजा बाजिया हेली
गिगन मण्डल बाजा बाजिया हेली
हे बिन झालरै झलकारे साथण सुण
हे बिन झालरै झलकारे साथण सुण
पतली पडे ती पान सिये हेली मारी
पतली पडे ती पान सिये हेली मारी
आजु आना आयो पियो देस साथण सुण 
आज तो गायड मल पावणो ए हेली 
आज तो काया रो रजा पावणों हे

हेली जिण घर उगे न ओ आथमे हेली
जिण घर उगे न ओ आथमे हेली
बे तो मालक जी रा देस साथण सुण
बे तो मालक जी रा देस साथण सुण

कुरिया री सान पलानिया हेली
कुरिया री सान पलानिया हेली
आज तो काया रो राजा पावणो ए हेली 
आज तो हजारी हंसो पावणों ए हेली 

हेली जाय उतारो कुण  घराँ ए हेली
जाय उतारो कुण  घराँ ए हेली
जा घर आवै न जाय साथण सुण
जा घर आवै न जाय साथण सुण

कै'त कबीरो धरमी दास नै ए हेली 
कै'त कबीरो धरमी दास नै ए हेली 
हे जाखो जावां पाय साथण सुण 

आज तो काया रो राजा पावणों हेली 
आज तो  माया रो लोभी पावणों हेली 
आज तो हजारी हंसो पावणों ऐ राज. 
             
(हेली राजस्थानी लोक भजनों की एक विधा है जिसमें हेली को संबोधन  कर कई भजन गाये गए हैं. हेली संभवतः आत्म संबोधन प्रतीत होता है जिसमें सामने कोई नहीं है. हंस यहाँ आत्मा या आत्म तत्व है जो काया का राजा है.उसे कई उपमाएं दी गयी है जैसे ऊंट की शान उसका पलाण यानी उसकी काठी है वैसे ही आत्मा हंस है. उसका गंतव्य उस घर है जहां न तो सूरज उगता है न आथमता यानी अस्त होता है जहां जन्म या मृत्यु भी नहीं होती. हेली गीतों में दार्शनिक चिंतन का पुट रहता है. इस पर मैं स्वयं बहुत अधिकारपूर्वक ज्यादा कह नहीं पाऊंगा संभवता कुछ और जानकारी जुटाने पर बता पाऊं.)  

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