उत्तराखंड
में आए हुए सैलानियो, आपका शुक्रिया.
देवभूमि की
तीर्थयात्रा पर आए श्रद्धालुओ, आपका भी शुक्रिया. आप सभी का शुक्रिया कि, आपकी मौजूदगी
से ही सही, हमारा दर्द दुनिया को दिखने तो लगा है.
कुछ महीनों
के बाद यात्रा सीजन खत्म हो जाएगा. उसके बाद, हम भी इन तबाह खेतों के बीच फिर से अपने सपनों की फसलें रोपेंगें,
बर्बाद हो चुके अस्पतालों में जिंदगी की उम्मीद खोजेंगे और खंडहरनुमा
स्कूलों में बच्चों के मासूम सवालों के जवाब सोचेंगे. क्योंकि, आप सभी के लौटने के साथ ही ये तमाम तामझाम और चमकते कैमरे भी यहां से विदा
ले लेंगे, हमेशा की तरह.
यहां उपजे
इस अंधेरे को दूर करना कुछ मुश्किल जरूर होगा, क्योंकि रोशनी के लिए पहाड़ों की देह को छलनी कर सुरंगों का जाल
बनाने की औकात हमारी नहीं है. हमारे पास दैत्याकार मशीनें नहीं, बल्कि मामूली सी कुदालें ही हैं.
पहाड़ों को
सीढ़ीनुमा खेतों में बदलने में ही हमारी कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं. इससे पहले कि वहां
से दो मुट्ठी अनाज हमारे घरों तक पहुंचे, सब कुछ मलबे के ढेर में बदल जाता है. ... और ऐसा यहां कभी-कभी
नहीं बल्कि अक्सर होता है.
अब आप ये
ना कहना कि, फिर भी यहीं
रहना क्यों जरूरी है. बस यूं समझ लो कि ये हमारा घर है, ठीक वैसा
ही घर जहां पहुंचने का आप सभी को बेसब्री से इंतजार है. ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ
आपका एक बार फिर से शुक्रिया.
(- हिलवाणी
के पास ये मार्मिक भावनाएं संदेश के रूप में भेजी हैं युवा लेखक पत्रकार और अब शिक्षक
श्रीनिवास ओली ने जो दिल्ली नोएडा छोड़कर अब उत्तराखंड के लोहाघाट में रहते हैं, उनका और हिलवाणी के शिवप्रसाद जोशी का आभार.)
5 comments:
रहना बहुत कठिन है वहाँ, यह बात तो सबको समझ में आनी चाहिये।
"फिर भी यहीं रहना क्यों जरूरी है." यह मूर्खतापूर्ण सवाल मेरे मन में अब से पहले तक उठता रहा। पर आज सीधा-सरल जवाब मिल गया-- बस यूं समझ लो कि ये हमारा घर है। अगर मुझमें जरा भी समझ है, संवेदनशीलता है, तो मुझे यह सवाल फिर नहीं पूछना चाहिए।
aap ka hilvani aur yahan kabadkhana men chhapa aalekh padha. Apki soch ke liye sadhuvad !
aapda kee asal trasdi to vahan ke nivaasi jhelenge.. jaise ki raahat sirf teerthyatriyon ko hee chahiye thi..
Marmik !
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