Tuesday, July 16, 2013

रामदास को मरना ही था

संकलनबाज़ी के अलक्षित परिणाम

-संजय चतुर्वेदी

प्रतिष्ठान के यश-विलास में
सत्ता के इस हौज़-ख़ास में
रामदास का साथ छोड़कर
कविताओं ने डुबकी ली है
वामपंथ के श्रेष्ठिवर्ग का क्रान्तिकलश जो चमक रहा है
उसकी भी आभा है इसमें
पैसे की क़ुव्वत के पीछे
लाभतंत्र का मकड़जाल है
उसके मधुर सूरमाओं  से सन्धि भिड़ाकर
जनता से जन्नत माँगी थी
जन्नत हमको नहीं मिल सकी

रामदास को मरना ही था
रचना उम्रदराज़ हो सके
इसी नाम पर चलनेवाले कूटकुम्भ में
इतने महारथी एकत्रित
उसे पता था काम यहाँ संपन्न
उसी की हत्या से होने वाला है
जिस प्रवृत्ति में जनता, कविता अलग हो गए
आज उसी लावण्य मंच पर
कृतिकारों की सफ़ें खड़ी हैं
रामदास इस कविता की बाबूगीरी में
कभी सहज हो नहीं सका था
शायद उसे शुरू से डर था
अपने ऊपर लिखी जा रही कृतियों से पिछले दशकों में
इसीलिये वह उदासीन था
शायद उसने देख लिया था
कृतिकारों के माथे पर ही लिखा हुआ है
आख़िर उसकी हत्या होगी.

1 comment:

Amrita Tanmay said...

सुन्दर रचना..