दिल्ली में जन्मे प्राण सिकंद (१९२०-२०१३) देश के हर कोने को
बिलॉन्ग करते थे, जहां छः दशकों से अधिक समय तक उन्होंने स्वतंत्रता से ताज़ा समृद्ध
हुए एक युवा भारत की चिंताओं और दुर्बलताओं को क़ैद किया जो ख़ुद को ऐसी कहानियां
सुनाना चाहता था जिनके नैतिक सन्देश को मुकम्मल बनाने के लिए दुष्टता के विश्वसनीय
चरित्र चित्रण की ज़रुरत थी. प्राण आपको यक़ीन दिलाते थे कि दुष्टता का अस्तित्व था
और कभी-कभी यह अस्तित्व अच्छाई से अधिक सुनिश्चित हुआ करता था. उन्होंने एक नायक
के तौर पर आग़ाज़ किया और बाद में एक डरावनी इंटेंसिटी के साथ खलनायकत्व को मूर्त
रूप बख्शा. बाद के सालों में परम्परा को तोड़ते हुए कई यादगार फिल्मों की धुरी बनने
वाले फ़राख़दिल चरित्रों जीवंत करने से पहले वे हमारे आयागो, ड्रैकुला और
फ्रैन्केनश्टाइन बन चुके थे. वे एक ऐसा भारत छोड़कर गए हैं स्क्रीन पर जिसके नायक
ज़्यादातर कैरीकेचर होने तक सीमित हैं और किसी भी सिनेमाई अवधारणा से अधिक अजनबी
जिसके खलनायक यथार्थ और ‘मेक बिलीव’ के संसारों की सवारी गांठा करते हैं और
ऐसी अकड़ और ढिठाई के साथ तबाही मचाते फिरते हैं जिसे उन्होंने संभवतः प्राण साहब
के निभाए असंख्य किरदारों में से किसी एक से उधार लिया होता है. कितना विचित्र हो
सकता है सिनेमाई प्रभाव भी.
रेस्ट इन पीस.
(मित्र अभिनव कुमार की फेसबुक वॉल
से साभार. अनुवाद की खामियों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ.)
1 comment:
शत शत नमन
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