Sunday, August 4, 2013

घर जाना था, एक हरियाली उनींदी की ओट में खुले छत में सोना था


पुनश्च

-प्रमोद कौंसवाल

जीवन कथा लिखने का समय आ गया
और ऐसे वक़्त में जब मेरा जीवन है ही कितना
सालों में गिनो तो पैंतीस के आसपास और लोगों
को गिनो तो उनसे ज़्यादा नहीं जो मेरी तीन-चार
टेलीफ़ोन डायरियों में लिखे नंबरों के पीछे हैं
या ज़्यादा से ज़्यादा वे तमाम मेरे घर और रिश्तों में
आते हैं और जिनका उल्लेख डायरियों में नहीं
है. वे तो ज़ुबानी याद रहते हैं ज़्यादा. यह मुझे
भलिभांति पता है कि जीवन कथा लिखने की
ख़बर सुनकर अधिकतर लोग चौकेंगे क्योंकि मुझे
आख्यान लिखने थे, करने थे कई समझौते और
नौकरियां भी. अपने घर जाना था एक हरियाली
उनींदी की ओट में खुले छत में सोना था. एक
रोज़ रात के बारह बजे उठकर जैसे सनक जाना
था घर से चलकर एक तालाब दो नाले
चढ़ाई एक पार करके शहर जाना था

घर के पिछवाड़े में देखना था जहां
मैंने दादा की खाई थी पिटाई
हुक्के के पाइप से वहां एक स्मृति को जीवित
करना था. और उगी घास के एक तिनके
को तोड़कर आशाओं की कोंपल उगने का
स्वप्न देखना था. मुझे एक हल्क़े
लाल रंग की लकड़ी की अलमारी में
रखीं चटख़ लाल किताबों की बचपन में
देखी ज़िल्दें देखनी थीं. करने थे कुछ प्रहसन
कुछ नाटक, कुछ कविताएं, कुछ शूरवीरों की
गाथाएं लिखनीं थीं. मुझे कमियों के बारे में
एक कॉलम लिखना था या इनसे इतर
मुझे भूले-भटके मारे जा रहे बच्चों के बारे में सोचकर
अपने बच्चों को भूल जाने के बारे में लिखना था
शायद. जीवन कथा लिखने के बारे में
सोचकर पहले अपने सुख दुख के कारणों को
जानना था. यही सोचकर मैंने जीवन कथा
लिखने के बारे में सोचा था

लेकिन मैं लिख बैठा फिर कभी.

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

जीवन कहने का समय आ गया,
दूसरा छोर गहने का समय आ गया है।