Wednesday, August 7, 2013

कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है


शत्रु के प्रवेश और दरवाजे पर दस्तक के साथ शुरुआत

-शिवप्रसाद जोशी

मंगलेश डबराल की कविताएं इधर एक तीखे मिज़ाज के साथ पाठक से रूबरू हैं, और इस बार वहां "नुकीली चीज़ें" को उठा बाहर फेंक देने का तीखा आह्वान भी है. लेकिन ये तीखापन भी असल में मंगलेश का अपना ही विशिष्ट तरीक़ा है जिसमें शोर और आवाज़ें और शौर्य प्रदर्शन नहीं हैं. ये कविताएं मानो उस लंबे समय से खाली पड़ी जगह को भरते हुए आई हैं जो प्रतिरोध की कही जाती थी और हमारे लोकतंत्र के क्रूर मज़ाकों को देखती सुनती और कहती थी और जिसे हमारे समय के बड़े कवि रघुबीर सहाय ने लगभग रिपोर्ट करते हुए अपनी कविताओं में दर्ज किया था.

प्रस्तुत कविता भी हमें एक शत्रु के प्रवेश और दरवाजे पर दस्तक के साथ शुरू होती हुई उसकी नाना क्रूरताओं, अश्लीलताओं और जघन्यताओं के बारे में बताता हुई आगे बढ़ती है, ये ब्यौरे फिर हमारे इस समय के मानो सबसे नज़दीकी नज़ारे बन जाते हैं. वहां हिंसाएं और तक़लीफ़ें और शोषण कई कई पर्दों के पीछे से सक्रिय हैं. 

और 90 के दशक के जिस ग्लोब्लाइज़ेशन की छपाक में हम लोग यानी अधिसंख्य आबादी के पानी में हलचल आ गई थी, वो कैसे फिर से अपनी जगह पर शांत स्थिर हो गया है मानो कुछ हुआ ही न हो लेकिन कैसे उसके भीतर वो सब घटित हो रहा है जिसे हम अत्यंत बुरे वक़्त की विडम्बनाएं कह सकते हैं.

यह कविता नये युग के शत्रु की शिनाख़्त की कई मिसालें देते हुए आख़िरकार उसके निर्णायक आईडेंटिफ़िकेशन का काम अपनी जनता के विवेक पर छोड़ती है. इस कविता में इतना थ्रिल, इतनी उद्विग्नता और इतनी झकझोर है कि आप उस "नये शत्रु" को अपने सामने से गुज़रता हुआ देख सकते हैं, सहसा एक छाया आपके ज़ेहन में कौंधती है और सामने से एक साया गुज़रता है.

हाल के वर्षों में अमेरिका से लेकर यूरोप और लातिन अमेरिका, पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया में जो प्रतिरोधी आवाज़ें तैयार हुई हैं और नए ख़तरों की ओर इशारे करने वाली बिरादरी बनी है, ये कविता उसी अंतरराष्ट्रीय मुखरता की प्रतिध्वनि या अनुगूंज भी है, उसकी भागीदार भी और उसके आगे रोशनी दिखाती हुई चलती हुई सी भी. बेशक हिंदी में लिखी गई लेकिन हमारे समूचे वैश्विक समकालीन समय की कविता ये है. दुनिया की किसी भी भाषा में इसे अपनी बनाया जा सकता है.  


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नये युग में शत्रु

-मंगलेश डबराल

अंततः हमारा शत्रु भी एक नये युग में प्रवेश करता है
अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ
वह एक सदी का दरवाज़ा खटखटाता है
और उसके तहख़ाने में चला जाता है
जो इस सदी और सहस्राब्दी के भविष्य की ही तरह अज्ञात है
वह जीत कर आया है और जानता है कि अभी पूरी तरह नहीं जीता है
उसकी लड़ाइयां बची हुई हैं
हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता
लेकिन हम जहां भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊंची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें

वह अपने को कंप्यूटरों टेलीविजनों मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आंतों के भीतर फैला देता है
किसी महंगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नज़र आती है
लेकिन वहां पहुंचने पर दिखता है वह वहां नहीं है
बल्कि किसी दूसरी और ज़्यादा नयी गाड़ी में बैठ कर चल दिया है
कभी लगता है वह किसी फ़ैशन परेड में शिरक़त कर रहा है
लेकिन वहां सिर्फ़ बनियानों और जांघियों का ढेर दिखाई देता है
हम सोचते हैं शायद वह किसी ग़रीब के घर पर हमला करने चला गया है
लेकिन वह वहां से भी जा चुका है
वहां एक परिवार अपनी ग़रीबी में से झांकता हुआ टेलीविजन देख रहा
जिस पर एक रंगीन कार्यक्रम आ रहा है

हमारे शत्रु के पास बहुत से फोन नंबर हैं ढेरों मोबाइल
वह लोगों को सूचना देता है आप जीत गये हैं
एक विशाल प्रतियोगिता में आपका नाम निकल आया है
आप बहुत सारा कर्ज़ ले सकते हैं बहुत सा सामान ख़रीद सकते हैं
एक अकल्पनीय उपहार आपका इंतज़ार कर रहा है
लेकिन पलट कर फोन करने पर कुछ नहीं सुनाई देता

हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए हम एक ही थाली में खायें एक ही प्याले से पियें
वसुधैव कुटुंबकम् हमारा विश्वास है
धन्यवाद और शुभरात्रि.

(चित्र: स्पानी सर्रियल कलाकार होआन मीरो की कृति 'पर्सन थ्रोइंग अ स्टोन एट अ बर्ड', १९२६)

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