(पिछली क़िस्त से आगे)
क्या
यह सच है कि उन दिनों एक तरह का गिरोह जैसा काम करता था कि संगीत निर्देशक ख़ास गायकों
को ही लेते थे और बाकी लोगों को मौका नहीं मिल पाता था?
मुझे
गिरोहों के बारे में कुछ नहीं मालूम पर स्ट्रगल करने में मुझे कोई बुराई नज़र नहीं
आती. मेरे ख़याल से हम सब का अपना-अपना कोटा होता है और ऐसा नहीं है कि संगीत
निर्देशकों ने जितना सब कम्पोज़ किया उसे मैंने ही गाया या किसी एक ने. हाँ अपने
अपने पसंदीदा होते ही थे सबके और उसे मैं ‘पार्ट ऑफ़ द गेम’ ही मानता हूँ.
आपने
इतने सारे महान संगीत निर्देशकों के साथ गाया है. क्या आप हमारे साथ कुछ यादें
साझा करना चाहेंगे?
हां,
मैंने सभी के लिए गाया. एस. डी. बर्मन अपनी तरह के अकेले थे. मैं उन्हें बचपन से
जानता था क्योंकि वे भी मेरे चाचा से संगीत सीखते थे. मैं बर्मनदा से सदा आकर्षित
रहता था क्योंकि वे किसी चीनी जैसे दिखाई देते थे और उनकी बगल में बैठकर मैं
उन्हें गाते हुए देखा करता. मुझे उनकी नाक से गाने की शैली पसंद आती थी और कॉलेज
के दिनों में मैं उन्हीं की गाने की शैली की नक़ल किया करता. उनके गाने की शैली
टिपिकल पूर्वी बंगाल की थी और उन्होंने हिन्दी गानों में भी उस शैली को नहीं छोड़ा.
उनकी आवाज़ बिलकुल अलहदा थी और वे एक ट्रेंडसेटर बने. “वहां कौन है तेरा” को जिस
तरह बर्मनदा गाते थे वैसे कोई नहीं गा सकता. वे मुझ से बहुत प्यार करते थे और हम
अक्सर साथ साथ टेनिस खेलते थे. यह कहने में वे बड़े दयालु थे कि अगर कोई अपने दिल
से किसी गाने को कम्पोज़ करे तो उन कम्पोजीशंस में आत्मा डालने का काम लता मंगेशकर
और मन्ना डे ही कर सकते हैं. उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने की बात हमेशा मेरे मन में
रहती थी. एक बार उन्होंने ज़िक्र किया था कि मेरे गाए जिन दो गीतों ने उन्हें हिलाकर
रख दिया थे वे थे – “पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई” और ‘काबुलीवाला’ का “ऐ मेरे
प्यारे वतन”.
हम
लोग उस गाने की रिहर्सल कर रहे थे जब मेरे एक नज़दीकी दोस्त शर्मा जी ने उसे सुना
तो वे बोले कि मन्ना तुम्हारी आवाज़ में ज़रा भी उत्साह नहीं है. न कोई जीवन. तुम गा
क्या रहे हो? मेरी जगह बर्मनदा ने जवाब दिया कि गाने को ठीक इसी तरह गाया जाना है.
उस का पिक्चराइज़ेशन अफगानिस्तान से आए एक गरीब काबुलीवाले पर होना था जो दिन भर
काम करने के बाद थका मांदा भीड़ भाड़ वाले अपने डेरे में पहुँचता है जहां बाकी लोग
सो चुके हैं. उसके बाद वह अपना रबाब बाहर निकालकर दुखी मन से उस देश के बारे में
गाता है किसे वह अपने पीछे छोड़ आया है. मैं उसे उत्साह के साथ नहीं गा सकता था. इस
गाने को सुनने के बाद सलिल चौधरी रोने लगे थे.
सलिल
मेरे व्यक्तिगत दोस्त थे. वे न सिर्फ़ एक म्यूजिकल जीनियस थे, उनके लिखे गीतों की
तब भी बहुत मांग रहती थी और इतने सालों बाद अब भी, हालांकि उन्हें गुज़रे ज़माना बीत
चुका. वे सच्चे अर्थों में एक इंटेलेक्चुअल थे. आप उनके साथ कभी भी थोडा समय
बिताकर आते तो इतनी चीज़ों के बारे अपने ज्ञान को सम्पन्नतर बनाकर लौटते थे. शंकर
जयकिशन ने मुझे गाने के लिए शानदार गीत दिए. मैं शंकर के ज़्यादा नज़दीक था और वे
सच्चे अर्थों में मेरी आवाज़ के प्रशंसक थे और बीस सालों तक इस जोड़ी ने मुझे ऐसे
गाने दिए जो सालों साल सदाबहार बने रहेंगे. उनका वैविध्य और उनकी रचनात्मकता
अविश्वसनीय थी. मुझे याद है जब भारत भूषण एक स्टार बन चुके थे मोहम्मद रफ़ी उनके
सारे गाने गाया करते थे. शंकर ने ‘बैजू बावरा’ के लिए एक सुन्दर गाना रचा जिसे
भारत भूषण के भाई शशि भूषण प्रोड्यूस कर रहे थे. जब शशि को पता ;आगा कि गाना मैं
गाने वाला हूँ तो उन्होंने इस बात का विरोध किया. वे चाहते थे कि गाना रफ़ी से
गवाया जाए. शंकर ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि या तो गाना मन्ना डे गाएगा या वे कोई
दूसरा संगीत निर्देशक खोज लें. मेरे “सुर ना सजे” गाने की यह कहानी है, और कहना न
होगा गाना ज़बरदस्त हिट हुआ. बाद में जब शशि भूषण ने गाना सुना तो अभिभूत होकर मुझे
गले से लगा लिया और बोले कि गाने को मुझ से बेहतर कोई नहीं ग़ा सकता था.
शंकर
ने ही आपको शास्त्रीय गायन के पुरोधा भीमसेन जोशी के साथ “केतकी गुलाब जूही” जैसा डूएट
गाने का अवसर दिया था. कितना मुश्किल था वह?
भगवान
जानता है कितना मुश्किल था. एक पूरी दास्तान है. शंकर ने कहा कि मन्ना कमर कस लो;
अगली कम्पोज़ीशन तुम्हारे जीवन की कम्पोज़ीशन बनने वाली है. तुम्हें किसी के साथ एक
क्लासिकल डुएट गाना है. किसके साथ गाना है यह नहीं बताया गया. मैंने कहा ठीक है और
रियाज़ शुरू कर दिया. कुछ दिनों बाद मुझे बताया गया कि धुन बन चुकी है और मुझे
तुरंत स्टूडियो पहुंचना है. वहां जा कर पता लगा कि पंडित भीमसेन जोशी के साथ गाना
है. डुएट को नायक और उसके प्रतिद्वंद्वी पर फ़िल्माया जाना था. मुझे नायक के लिए
गाना था जिसकी जीत होनी थी. मुझे कंपकंपी छूट गयी और मैंने कहा कि मैं उनके साथ गा कर जीत नहीं सकता. असंभव बात है.
सो
मैं घर चला गया और अपनी पत्नी से कहा कि हमें कुछ दिन के लिए कहीं चले जाना चाहिए
और तब तक नहीं लौटना चाहिए जब तक कि शंकर जयकिशन किसी और से उस गाने को गवा न लें.
मेरी
पत्नी ने मुझ पर निगाह डालते हुए कहा कि तुम पर शर्म है. ऐसी बात तुम सोच भी कैसे
सकते हो? और इसके अलावा तुम नायक के लिए गा रहे हो और तुमने उसे जिताना है. गाना
बहुत मुश्किल था पर मैंने अपना सारा कुछ उसमें झोंक दिया और बाद में भीमसेन जोशी
जी ने मुझसे कहा कि मन्ना साहब आप वाकई बहुत अच्छा गाते हैं. आप क्लासिकल गाना
शुरू क्यों नहीं करते? मैं ने उनसे कहा कि मैं उनकी प्रेरक उपस्थिति के कारण शायद
वैसा गा सका. बस इस से आगे नहीं! अनिल बिस्वास भी मेरे लिए उम्दा कम्पोजीशंस लाए
पर असल चुनौती मुझे रोशन से मिली. अगर आप “न तो कारवाँ की तलाश है” सुनेंगे तो
शायद समझ सकेंगे मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूँ. रोशन ने मुझे सावधान करते हुए
कहा कि देखो मन्ना, रफ़ी नायक के लिए गा रहे हैं लेकिन तुम उस्ताद के लिए. फर्क नज़र
आना चाहिए. जब मैंने आलाप लिया तो ख़ुद रोशन भी भौंचक्के रह गए. बोले तुमने ख़ुद को साबित
कर दिखाया है.
ज़्यादातर
संगीत निर्देशक मुझे इम्प्रोवाइज़ कर लेने देते पर नौशाद साहब कत्त्तई नहीं. या तो
उनके बताए तरीके से गाइए या गाइए ही मत! सी. रामचंद्र बहुत नियमबद्ध थे लेकिन उनसे
मैंने बहुत कुछ सीखा. उन्होंने मुझे बतलाया कि डिक्शन और उच्चारण कितने महत्वपूर्ण
होते हैं. वे किसी भी शब्द को ग़लत उच्चारित होते बर्दाश्त नहीं करते थे. वैसे भी
मैं उच्चारण को लेकर बहुत सावधान रहता हूँ और इस बात को आप मेरे क्षेत्रीय गीतों
में भी देख सकते हैं लेकिन इस मामले में सी. रामचंद्रन सबसे ज़्यादा मशक्कत करते
थे.
(जारी. अगली क़िस्त में समाप्य)
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