शिक्षक दिवस के अलावा
५ सितम्बर का दिन मेरे लिए बहुत सारी यादें ले कर आता है. उनमें सबसे यादगार है १९८३
के साल की यही तारीख़. बारहवीं क्लास में मेरे अंग्रेज़ी के अध्यापक हुआ करते थे
श्री एम. डी. जोशी. बहुत शानदार अध्यापक और उत्कट खेलप्रेमी.
जूनियर स्कूल में भी कक्षा
आठ में वे हमारे अंग्रेज़ी अध्यापक रहे थे. मुझे अंग्रेज़ी बोलने में खासी झेंप लगती
थी और वैसे भी बहुत ज़्यादा आती नहीं थी. उन्होंने एक दिन यूं ही बातों बातों में
क्रिकेट का ज़िक्र छेड़ दिया और इस खेल के बारे में ऐसी ऐसी बातें बताईं. क्रिकेट के
इतिहास और उसकी बारीकियों पर उनका जैसा अधिकार मैंने किसी में नहीं देखा. और हज़ारों
आंकड़े उन्हें ज़बानी याद थे. क्लास ख़त्म होने पर वे जाने लगे. अचानक उन्हें कुछ याद
आया और वे पलट कर बोले – “जिन बच्चों को बढ़िया अंग्रेज़ी लिखना-बोलना सीखना हो उसने
बीबीसी की क्रिकेट कमेंट्री सुननी चाहिए.”
यह बात मन में बसी रह
गयी. सख्त कानूनों वाले जिस बोर्डिंग स्कूल में मैं रहता था वहां रेडियो सुनना
जैसी चीज़ हमारी दिनचर्या का हिस्सा नहीं थे. मेरे वार्डन मुझ पर अतिरिक्त स्नेह
रखते थे क्यूंकि मेरा पैतृक गाँव उन्हीं के गाँव के आसपास था. उसी शाम को इत्तफाकन
उन्होंने शाम की प्रेप के बाद डाइनिंग हॉल की तरफ जाते हुए मुझ से पूछा कि दिन में
क्लास में क्या-क्या पढ़ाया गया. मैंने एम. डी. जोशी गुरूजी की बीबीसी सम्बंधित
हिदायत के बारे में उन्हें बताया.
“हमम्म...” कहते हुए
वे चुप हो गए.
इस घटना के कुछ ही दिनों
बाद कुछ ऐसा हुआ जिसकी हम बच्चों को कतई उम्मीद नहीं थी. हमारे हॉस्टल में साढ़े आठ
बजे बत्ती बंद हो जाती थी और आठ करीब बज चुके थे. अपने जूते पोलिश करके और
यूनीफ़ॉर्म तमीज से टांग कर हम अपने अपने बिस्तरों में दुबकने ही जा रहे थे जब हमारे
वार्डन (उनका कमरा हमारी बैरक से जुड़ा हुआ था) बाहर आये और अत्यंत उत्तेजित आवाज़
में बोले “जिस बच्चे को क्रिकेट की कमेंट्री सुननी हो मेरे कमरे में आ जाए. बहुत
ग़ज़ब हो रहा है. हिस्ट्री इज़ बीइंग मेड ...” और तेज़ी से अपने कमरे में घुस गए.
ज़ाहिर है मैं सबसे
पहले उस तरफ लपका. मेरे पीछे पीछे चार-छः लडके और आये. बीबीसी पर कमेंट्री चल रही
थी. कमेंटेटर की आवाज़ में उत्तेजना थी और वार्डन सर ने हमें मैच का संक्षिप्त
इतिहास बताया ताकि हम कमेंट्री से ख़ुद को रिलेट कर सकें. यह चार सितम्बर १९७९ का दिन
था और भारत-इंग्लैण्ड के बीच ओवल में हो रहे टेस्ट मैच के अंतिम दिन का खेल जारी
था. भारत को चौथी पारी में जीतने को ४३८ रन चाहिए थे (इतने रन टेस्ट क्रिकेट के
इतिहास में न कभी बने थे न आज तक बन पाए हैं). भारत के ३५० से ऊपर रन बन चुके थे और
नौ विकेट गिरना बाकी थे. सुनील गावस्कर ने एक छोर सम्हाला हुआ था. ३६६ पर वेंगसरकर
के आउट होने पर कपिल देव की एंट्री हुई और
हमें लगा दस ओवर में मैच जीत कर भारत इतिहास रच देगा. पर ३६७ पर कपिल देव जीरो पर
आउट. गावस्कर अभी खेल रहा था और २०० से ऊपर रन बना चुका था. अभी भी विश्वनाथ ने
आना बाकी था.
वार्डन सर बेचैनी से
चहलकदमी कर रहे थे और हर रन बनने पर ताली बजाने लगते (कभी न देखा गया उनका यह रूप
भी हमारी दिलचस्पी को और बढ़ा रहा था). ३८९ के स्कोर पर गावस्कर के रूप में भारत का
चौथा विकेट जब गिरा, टेस्ट क्रिकेट की सबसे यादगार पारियों में से एक खेली जा चुकी
थी. अपना सर थमते हुए गुरूजी धम्म से नीचे बैठ गए. जब मैच ड्रा पर ख़त्म हुआ तो
भारत अपनी मंजिल से फकत नौ रन दूर रह गया था. काफ़ी देर हो गयी थी और छोटी क्लासेज़
के बच्चे गहरी नींद सो चुके थे. वार्डन सर ने हम पांच-सात बच्चों कल सुबह की पीटी
से छुट्टी देते हुए देर तक सोते रहने की हिदायत दी. गम उनके चेहरे पर खुदा हुआ था.
अगले दिन शिक्षक दिवस
था. असेम्बली में हमें इस बात की जानकारी दी गयी. अंग्रेज़ी की क्लास में घुसते ही
एम.डी. जोशी गुरूजी ने पहला सवाल दागा “कल के क्रिकेट मैच के बारे में कौन कौन
जानता है?” क्लास में सिर्फ़ मेरा हाथ उठा. मुझसे उन्होंने खेल की तफसील पूछीं तो जो
याद था मैंने उन्हें बता दिया. “वैरी गुड” वे बोले और क्लास शुरू हो गयी.
१९८३ में भारत ने
वर्ल्ड कप जीत लिया था और इन चारेक सालों में क्रिकेट के आंकड़ों और इतिहास का
ठीकठाक जानकार बन चुका था. और हां अंग्रेज़ी भी थोड़ा दुरुस्त हो गयी थी.
५ सितम्बर १९८३ को
शिक्षक दिवस के दिन लंच की घंटी बजने पर जब हम डाइनिंग हॉल की तरफ जा रहे थे, एम.डी.
जोशी गुरूजी ने स्टाफ रूम से मुझे बुलाया. “ऑफ़ ऑल द स्टूडेंट्स यू डिज़र्व दिस”
निर्विकार भाव से उन्होंने मुझे एक मोटी सी किताब थमाई. मैंने उनके पैर छूने के
बाद एक जल्दबाज़ निगाह किताब के कवर पर डाली – विज़डन १९८२.
मुझे लगा मेरे पास
दुनिया का सबसे बड़ा खज़ाना आ गया है. मैं डाइनिंग हॉल की ओर भागने को ही था कि वे
मेरे पास आकर बोले – “दिस ग्रेट मैन वॉज़ आल्सो बोर्न टुडे – जॉन विज़डन.”
आज आपमें से जिस जिस
ने गूगल का डूडल देखा होगा उस पर क्लिक करेंगे तो विज़डन महाशय के बारे में बीसियों
साईट खुल जाएँगी.
हैप्पी टीचर्स डे!
हैप्पी बड्डे जॉन विज़डन!
2 comments:
रोचक अनुभव । मैं तो अंग्रेज़ी और क्रिकेट का घोर विरोधी था लेकिन जब हिन्दी साहित्य से बीए पूरी करने से पहले भविष्य अंधकारमय दिखने लगा तो भारतीय वायुसेना के शिक्षा कोर के एक रिटायर्ड अधिकारी की शरण में गया जो शौकिया ट्यूशनें पढ़ाते थे और उन्होंने इस दिशा में मेरी मदद की
और मैं थोड़ी अंग्रेज़ी सीख गया । उनकी सोहबत ने जहाँ मुझे दस अच्छी चीज़ें दीं वहीं अन्ध राष्ट्रवादी भी अनजाने में ही बना डाला और अब तक वही चला आता हूँ ।
ग़लत बात, मुनीश, अन्ध राष्ट्रवादी पथ से वापस आओ, पूरी दुनिया हमारी है के जज्बे को एक ज़रा सा घोंसले में थाम रहे हो..
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