यह बंगला फिल्म
- शरद जोशी
लड़कियाँ और विशेष रूप से सुंदर लड़कियाँ बी.ए. करें, यह पुरानी और घर–घर
की समस्या है. इस समस्या पर एक फ़िल्म भी तानकर खड़ी की जा सकती है, इसका हमें अनुमान न था. मगर बंगालियों की बात ही अलग. क्या कहने!
उस सिनेमा हाल में, जाने क्यों, हम अनफिट लग रहे थे. फ़िल्म
की विशेषता थी कि वह बंगला में थी और हमारी विशेषता थी कि हम बंगला नहीं जानते. रहा
कलाप्रेमी होने का सवाल तो कलाप्रेमी कोई मोर का पंख नहीं, जिसे
सिर में खोंस लिया जाए. चारों ओर चटर्जी, मुखर्जी और भट्टाचार्य
किस्म के लोग बैठे थे, धोती, कुर्ता पहने.
और उनके सामने बैठे मैं और नरेंद्र दोनों गँवार लग रहे थे. हमें बंगला नहीं आती. जब
तक हाल में अँधेरा नहीं हुआ यही हालत बनी रही. हम चुपचाप सिर झुकाए बैठे रहे. अँधेरा
हुआ, तो हमारा गँवारापन विलीन हो गया और एक बंगला फ़िल्म पूरी
गरिमा के साथ दिखाई जाने लगी.
वह बंगला लेखक की बंगला कहानी पर बनी बंगाली फ़िल्म थी जिसे बंगाल के एक प्रोड्यूसर
ने बंगाली अभिनेता और अभिनेत्रियों की मदद से बंगाल में ही बनाया था. कहानी बंगाल के
एक छोटे से क़स्बे में रहनेवाले बंगाली परिवार की थी. यानी उसमें सबकुछ बंगाली था, नरेंद्र जो थोड़ा–बहुत
संगीत समझता है, बता रहा था कि पृष्ठभूमि में जो संगीत बज रहा
है, वह भी बंगाली है. इतने सबके बावजूद हमने पूर्ण कोशिश की कि
चित्र को समझा जाए.
और हम बड़ी जल्दी समझ गए कि फ़िल्म सामान्य प्रेमकथा नहीं है. हीरोइन (आह, क्या भरी–पूरी हीरोइन
थी!) इंटर कर चुकी है और उसके बी.ए. करने की समस्या है. पूरा ताना–बाना इस छोटी–सी
समस्या को लेकर बुना गया था. हीरो भी इसी समस्या से ग्रस्त था. हीरोइन से पहली मुलाकात
में ही पूछा, तोमार बीए होये गे छे?
हीरोइन ने इस प्रश्न पर कुछ उड़ता–उड़ता–सा जवाब दिया, आमार बीए कोरबार दोरकार
नेई.
हम समझ गए कि लड़की इंटर कर चुकी है, मगर फिलहाल बी.ए. करने कै मूड में नहीं
है, मगर हीरो चाहता था कि हिरोइन बी.ए. कर ले. वह जब मिलता,
हीरोइन से एक ही प्रश्न घुमा–फिराकर करता, बीए,
कोरबे ना कोरबे?
हीरो शायद उसी वर्ष बी.ए. में बैठ रहा था और चाहता था कि हीरोइन भी साथ ही बी.ए.
कर ले, परीक्षा में बैठ जाए.
झरने के पासवाले सीन में, जिसमें काफ़ी सारे बादल दिखाए गए थे
और बड़ा सुरीला बेकग्राउण्ड म्यूज़िक बज रहा था, उसने उस भरी–पूरी
हीरोइन का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा था, आमार शोंगे बीए कोरबे?
हीरोइन लजा गई. हमें लगा, वह वास्तव, में पढ़ना चाहती
है, मगर चाहकर भी आगे पढ़ नहीं पा रही है.
पिक्चर में एक अदद विलेन भी था, जो ज़मींदार किस्म का शख़्स था और हाथ
में डंडा रखता था. वह भी चाहता था कि हीरोइन ग्रेज्युएट हो जाए. जब हीरोइन अपने घर
पर जल प्रदाय की शाश्वत समस्या का हल खोजने कमर में घड़ा दाब झरने की तरफ़ जाती,
विलेन पगडंडी काट खड़ा हो जाता और कहता, शुंदोरी!
आमी तोमार शोंगे बीए कोरबोई कोरबो!
हमें आश्चर्य हुआ कि यह मुछंदर विलेन बी.ए. करने से अभी तक सिर्फ़ इसीलिए रुका
हुआ है, क्यों कि यह हीरोइन
शुंदोरी के साथ बी.ए. करना चाहता है! इसी नज़ारे के आसपास इंटरवल हो गया और हम समोसों
की दिशा में लपके.
हमें समझ नहीं आ रहा था कि कमबख़्त हीरोइन बी.ए. क्यों नहीं कर लेती? इतने समय में तो वह
बी.ए. छोड़ एम.ए. कर सकती थी. और अगर वह बी.ए. नहीं करना चाहती तो न करे. इसमें खुद
इतना परेशान होने या पब्लिक को बोर करने की क्या बात है? और वह
हीरो सिर्फ़ इतनी-सी बात के लिए उस हीरोइन के पीछे क्यों लगा रहता है! दुनिया में और
भी ग़म है बी.ए. करने के सिवा.
यार मुझे तो इस हीरोइन के इंटरमीडिएट होने में भी शक है. नरेंद्र बोला, जिस तरह यह लड़की दिन–भर
पानी भरती रहती है, कपड़े सुखाती रहती है, खाली बैठी रहती है, मैं नहीं समझता इसने कॉलेज की शक्ल
भी देखी है.
तुम समझते नहीं, नरेंद्र, बंगाल की परिस्थितियाँ हमारे मध्यप्रदेश
से बिल्कुल भिन्न हैं. वहाँ पिछले वर्षों शिक्षा का तेज़ी से विकास हुआ हैं,
गाँव–गाँव में कालेज खुल गए हैं और युवकों तथा युवतियों पर चारों तरफ़
से यह प्रेशर आ रहा है कि वे बी.ए., एम.ए. करें. युवक–युवती यह
निर्णय नहीं ले पा रहे हैं कि वे बी.ए. करें या न करें. चारों तरफ़ बेकारी और असंतोष
है. बंगाल की आज जो हालत है, हम अच्छी तरह जानते हैं. फ़िल्म
इसी पृष्ठभूमि पर तैयार की गई है कि आज किसी युवती के लिए बी.ए. करना ज़रूरी है या
नहीं? बंगाल की दृष्टि से यह एक गंभीर समस्या है. मैंने नरेंद्र
को समझाया.
इंटरवल समाप्त हो चुका था. हम हाल के अंदर घुस गए और उसी गंभीरता से आगे देखने
लगे.
समझ नहीं आ रहा था कि हीरोइन यूनिवर्सिटी डिग्री लेने के मामले में गंभीर है, अथवा नहीं. वह हीरो
के सामने मान लेती कि वह बी.ए. कर लेगी, जो ज़रूरी भी है,
मगर जब विलेन उससे कहता तो वह साफ़ इनकार कर देती. एक बार तो उसने विलेन
को कसकर डाँट दिया, जेटा आमी भावी, शेटा
आमी कोरबो. अर्थात मुझे जैसा जँचेगा वैसा करूँगी. विलेन बिचक गया और उसने अपने निश्चित
“देख लूँगा, जाती कहाँ है” वाले अंदाज़ में गरदन हिलाता, डंडा घुमाता पगडंडी से
चला गया.
एक दृष्य में विलेन ने गाँव के कतिपय स्नेही मित्र टाइप के गुंडों को एकत्र किया
और शराब पिलाकर यह शैक्षणिक समस्या सामने रखी थी कि हीरोइन बी.ए. करने को तैयार नहीं, बोलो क्या करें. गुंडों
को आश्चर्य हुआ कि विलेन के इतने आग्रह के बावजूद वह लड़की बी.ए. करने से इनकार करती
है. उन्होंने शराब पी और प्रश्न की गंभीरता को समझा. बाद में उन्होंने लपलपाते छुरे
और फरसे चमकाकर यह कसम खाई कि उनके होते यह संभव नहीं होगा कि हीरोइन बी.ए. न करे.
उन्होंने विलेन को वचन दिया और पैर पटकते चले गए.
एक और दृश्य में हीरोइन की सहेली ने हीरोइन को इसी विषय में समझाते हुए कहा कि
तुम बी.ए. क्यों नहीं कर लेतीं. हीरोइन ने कुछ कहा जिसका अर्थ शायद था कि “ठीक है, मैं कर लूँगी!”
मेरे ख़याल से इसके बाद फ़िल्म समाप्त हो जानी चाहिए थी. आख़िरी सीन में लड़की को
बी.ए. कक्षा में बैठा दिखाकर “दी एंड” किया जा सकता था,
मगर ऐसा नहीं हुआ. विलेन के स्नेही मित्रों ने हीरो को डंडे से पीटा.
जवाब में हीरो ने भी हाथ दिखाए. शैक्षणिक प्रश्न का अंतत: इस स्तर पर निपटारा होगा,
इसकी उम्मीद नहीं थी. हीरोइन ने हीरो की बाँह पर पट्टी बाँधी और कड़े
शब्दों में अपने बाप से बी.ए. करने का ऐलान करते हुए कहा, आमा
के बीए कोरते केऊ थामाते पारबे ना.
और सच भी है. इस स्वतंत्र भारत में यदि कोई बी.ए. का अध्ययन करना चाहे तो उसे कौन
थाम सकता है?
चित्र के अंत में हीरो हीरोइन का हाथ पकड़ पब्लिक और कैमरामैन की तरफ़
पीठ किए एक ओर चला गया. शायद कालेज उसी ओर रहा होगा.
बाहर आकर नरेंद्र ने कहा, मेरे ख़याल से मूलत: यह फ़िल्म दो प्राइवेट
कालेजों की लड़ाई पर बनी है. एक कालेज से हीरो संबद्ध है और दूसरे से विलेन. प्रतियोगिता
इस बात की है कि वह सुंदरी कहाँ से बी.ए. करेगी. वह विलेन के कालेज से बी.ए. करना नहीं
चाहती, क्यों कि वहाँ गुंडागर्दी ज़्यादा है, इसलिए वह अस्वीकार कर देती है. हीरो का विद्यापीठ शायद बेहतर है.
“बंगालवाले भी कमाल कर रहे हैं. कितनी नई थीम उठाकर फ़िल्में बना रहे हैं.”
मैंने कहा.
पान की दुकान पर भट्टाचार्य बाबू मिल गए.
“क्यों जोशी साहब, इधर कैसा आया?”
“फ़िल्म देखने आया था, दादा, बंगाली
फ़िल्म.”
“अरे तुमको बंगाली समझता?”
“समझता तो नहीं, दादा, फिर भी हमने
सोचा, अच्छा फ़िल्म है, देखना चाहिए.”
“अच्छा है, अच्छा है.”
“एंड समझ नहीं आया, दादा!”
“क्या नहीं समझा?”
“हीरोइन ने ग्रेजुएशन कर लिया कि नहीं, दादा?”
“कैसा ग्रेजुएशन?” भट्टाचार्य आश्चर्य से बोले.
“हीरोइन कहती थी ना कि मैं बी.ए. करूँगी, मुझे कोई रोक
नहीं सकता.”
भट्टाचार्य “हो–हो” कर ज़ोर से हँसे और बोले, खूब समझा तुम लोग. अरे, बीए मतलब बैचलर ऑफ आर्टस् नहीं.
बीए यानी ब्याह, शादी, मैरेज. – और वे फिर
ज़ोर–ज़ोर से हँसने लगे.
5 comments:
:D
daarun :)
Funny..could not stop laughing at few places
पहले पढ़ी नहीं थी. सही है. जय हो जोशी साहेब.
Gazab ..
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