कल रात
अंतिका प्रकाशन द्वारा जारी एक सूचना ने दिल ख़ुश कर दिया. अपनी तरह के इकलौते कवि कृष्ण
कल्पित का दीवान ‘बाग़-ए-बेदिल’ छप गया है.
तुरंत इसे
हासिल करने की जुगत में लगता हूँ. आप भी लगिए.
फ़िलहाल
उन्हें बधाई देता हुआ मैं अंतिका प्रकाशन द्वारा जारी सूचना में निहित इस किताब की
अरुण कमल द्वारा लिखी गयी भूमिका प्रस्तुत करने की जुर्रत किये ले रहा हूँ. आशा है
गौरीनाथ जी, कल्पित जी और अरुण कमल जी इसे अन्यथा नहीं लेंगे.
जब तक
बेदिल का केवल नाम सुना था तब तक जानता न था कि तज्र-ए-बेदिल
में रेख्ता क्या है? जब तक बाग़-ए-बेदिल को
दूर से, बाहर से देखा था तब तक जानता न था कि वहाँ खुशबू क्या है? जब तक कल्ब-ए-कबीर उर्फ़ कृष्ण कल्पित
का यह पूरा संग्रह पढ़ा न था तब तक जानता न था कि यहाँ कौन सा खज़ाना गड़ा है.
हममें से
बहुतों ने कृष्ण कल्पित के ये छोटे-छोटे पद अपने मोबाइल के
पर्दे पर पढ़ रखे हैं और आपस में कई बार इन पर चर्चा भी की है. लेकिन उस क्षणभंगुर
लोक में ये दोहे एक स्फुलिंग की तरह उठे और फिर गुम हो गए. इन्हें दुबारा, तिबारा एक दूसरे से मिलाकर, ठहर-ठहर कर
पढऩे गुनने का मौका शायद ही किसी को मिला. कहते हैं, बूँद बूँद से तालाब भरता है. यहाँ तो इन छोटे-छोटे
पदों से, पाँच सौ से भी ज़्यादा पदों से, एक पूरा वज़नी दीवान बन चुका है.
इस दीवान
ने मुझे कई हफ्तों से बेचैन कर रखा है. मानव जीवन का कोई भी भाव ऐसा नहीं जो यहाँ
न हो. हिन्दी, उर्दू, राजस्थानी, ब्रज, अवधी, फारसी और संस्कृत की सात
धाराओं से जरखेज यह भूमि हमारी कविता के लिए एक दुर्लभ खोज की तरह है. एकरस, एक सरीखी, इकहरी, निहंग कविताओं के सामने यह
संग्रह एक बीहड़, सघन वन प्रांतर की तरह है. समुद्र से उठती भूमि की तरह. ऐसी
कविताएँ आज तक लिखीं न गईं. एक साथ रूलाने, हँसाने, क्रोध से उफनाने वाली कविताएँ, घृणा और प्यार को एक साथ गूँथने वाली कविताएँ किसी समकालीन के यहाँ मुश्किल से
मिलेंगी. सबकी आवाज़—भर्तृहरि, धरणीदास, राजशेखर, कालिदास, व्यास, कबीर, मीर, गालिब, निराला, बेदिल और बहुत से, बहुत-बहुत से
कवियों की आवाज़ें यहाँ एक ही ऑर्केस्ट्रा में पैबस्त हैं. मीर तकी मीर ही नहीं, ख़ुद यह संग्रह ग़रीब-गुरबों, मज़लूमों, वंचितों के लिए चल रहा एक विराट् राहत शिविर है. समकालीन
कविता ने इसके पहले कभी भी इतनी सारी प्रतिध्वनियाँ एकत्र न की थीं. लगता है जैसे
सरहप्पा, भर्तृहरि, शमशेर और केदारनाथ सिंह एक
ही थाल में जीम रहे हों. परम्परा यहाँ जाग्रत है. यह हमारे पुरखे कवियों के जागरण
और पुनरागमन की रजत रात है.
और
कल्पित ने इतनी-इतनी धुनों, लयों, छंदों में रचा है. कौन सा ऐसा समकालीन है जिसकी तरकश में इतने छंद हैं, इतने पुष्प-बाण? आवाज़ और स्वर के इतने
घुमाव, इतने घूर्ण, इतने भँवर, इतनी रंगभरी अनुकृतियाँ हैं. कई बार
तो इनमें से कुछ पदों को पढ़कर मैं ढूँढता हुआ क्षेमेन्द्र या राजशेखर या मीर या
शाद तक पहुँचा. ये कविताएँ हमारे अपने ही पते हैं—खोये हुए, उन घरों के पते, जहाँ हम अपनी पिछली साँसें छोड़ आये हैं. इन्हें पढ़ कर
लगता है कि हिन्दी कवि के पास ख़ुद अपनी कितनी बड़ी और चौड़े पाट वाली परम्परा है.
दिलचस्प यह है कि कल्पित ने उन छंदों, धुनों, ज़मीनों की अनुकृति नहीं की है, बल्कि उन प्राचीन नीवों पर
नयी इमारतें खड़ी की हैं.
कल्पित ने 'मैं’ को 'सब’ से जोड़ा है. जो गुज़रते
थे दाग़ पर सदमे अब वही कैफियत सभी की है. ये कविताएँ एक साथ पुर्नरचना हैं, पुनराविष्कार हैं, पुर्ननवा सृजन है. कैसे थेर भिक्षुणी हमारे आँगन में आकर
खड़ी हो जाती है, यह देखते ही बनता है. कल्पित ने अतीत को वत्र्तमान में ढाल
दिया है और वर्तमान को अतीत में ढाल कर उसे व्यतीत होने से रोका है. इसीलिए हर
कविता एक साथ कई कालों में प्रवाहित होती है.
कल्पित
ने अनेक कविताएँ आज के साहित्य समाज और साहित्यकारों को लक्ष्य कर लिखी है. बेहद
बेधक, तेज़, कत्ल कर देने वाली कविताएँ.
आज के लगभग शालीन, सहिष्णु, सर्वधर्मसमभाव वाले
साहित्य समाज में इनकी छौंक बर्दाश्त करना कठिन है. लेकिन कल्पित ने फिक्र न की, अपना स्वार्थ न ताका, किसी का मुँह न देखा. कई
बार मुझे भी लगा कि भई कुछ ज़्यादा हो रहा है, लेकिन कल्पित ने परवाह न की. ऐसी कविताओं का चलन हर भाषा में रहा है. ख़ुद
हिन्दी में. खासकर छायावाद काल में. अब यह कम दिखता है. कल्पित ने इसे भी साधा और
जगाया है. देखना है, ख़ुद कल्पित के करीबी दोस्त क्या कहते हैं. क्योंकि सच कहना
मतलब अकेला होना है. हुज़ूर बेदिल फरमाते हैं—याद रख
कि सुन्दरता को शर्म और लज्जा पसंद है. अप्सरा अपना तमाशा दिखाने के लिए चाहती है
कि आँखें बंद रखो.
कृष्ण कल्पित
बाग़-ए-बेदिल का बुलबुल है. सूफी
मिज़ाज के महान कवि बेदिल, जो बिहार के होकर भी सारी
दुनिया की आवाज़ बन गए, हमारे साथी कवि कल्पित के
लिए खानकाह से कम नहीं. बेदिल कहते हैं—इतनी दूर न जाओ कि रास्ता
भूल जाओ और फिर फरियाद करते फिरो. हमारा वुज़ूद खयाल के दश्त से गुज़रता हुआ
काफिला है जहाँ कदम की चाप भी सुनाई नहीं देती, केवल रंग की गर्दिश का आभास होता है. कृष्ण कल्पित का यह संग्रह खयाल के दश्त
से गुज़रता हुआ काफिला है. आमीन!
- अरुण कमल
कालाढूंगी, उत्तराखंड में जिम कॉर्बेट के घर पर जिम की मूर्ति के साथ कृष्ण कल्पित - (दोनों अपने अपने इलाक़ों में कई आदमखोर शेरों के शिकार के लिए विख्यात) |
कृष्ण कल्पित - एक औपचारिक परिचय
कवि-गद्यकार कृष्ण कल्पित का जन्म 30 अक्टूबर, 1957 को रेगिस्तान
के एक कस्बे फतेहपुर शेखावाटी, राजस्थान में हुआ.
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हिन्दी साहित्य में प्रथम
स्थान लेकर
एम. ए. (1980). फिल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे से फिल्म
निर्माण पर अध्ययन.
अध्यापन, पत्रकारिता के बाद 1982 में भारतीय प्रसारण
सेवा में प्रवेश. आकाशवाणी व दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों के बाद सम्प्रति
उपमहानिदेशक, दूरदर्शन केन्द्र, पटना-राँची.
कविता की चार पुस्तकें प्रकाशित— 'भीड़ से गुज़रते
हुए’ (1980), 'बढ़ई का बेटा’ (1990), 'कोई
अछूता सबद’ (2003) और 'एक शराबी की सूक्तियाँ’ (2006).
मीडिया/सिनेमा समीक्षा पर बहुचर्चित पुस्तक 'छोटा परदा,
बड़ा परदा’ (2003).
'राजस्थान पत्रिका’, 'जनसत्ता’, 'रविवार’ में बरसों तक मीडिया/सिनेमा पर स्तम्भ लेखन.
मीरा नायर की अन्तरराष्ट्रीय ख्याति की फिल्म 'कामसूत्र’ में
भारत सरकार की ओर से सम्पर्क अधिकारी के रूप में कार्य.
ऋत्विक घटक के जीवन पर एक वृत्त-चित्र 'एक पेड़ की कहानी’
का निर्माण (1997).
साम्प्रदायिकता के खिलाफ 'भारत-भारती कविता यात्रा’ के अखिल
भारतीय संयोजक (1992).
कविता-कहानियों के अंग्रेज़ी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में
अनुवाद.
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1 comment:
wakai lajawab bhoomika hai jo kitaab padhne ke liye aamantrit karti hai.........kavi ko hardik badhai aur shubhkamnayein.
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