अभी
कुछ दिन बीते,
अज़ीज़ रामजी भाई यानी 'समकालीन जनमत' के सम्पादक जनाब रामजी राय ने अपनी फेसबुक वॉल पर मिर्ज़ा ग़ालिब की इस
ग़ज़ल का एक शेर शेयर किया था –
“किस
रोज़ तोहमते न तराशा किये अदू
किस
दिन हमारे सर पे न आरे चला किये”
मैंने
कुछेक बचकाने कमेन्ट भी उस पर किये. लेकिन रामजी भाई ने न सिर्फ़ माफ़ी दी बल्कि
ग़ज़ल के कुछेक शेर और लिख भेजे.
यह
ग़ज़ल रामजी राय की ख़िदमत में ख़ास तौर पर पेश की जा रही है. आवाज़ तलत महमूद की
है. तलत साहब ने ग़ज़ल के यही चार शेर गाये हैं -
उस
बज्म मे मुझे नहीं बनती हया किए
बैठा
रहा अगरचे इशारे हुआ किये
किस
रोज़ तोहमते न तराशा किये अदू
किस
दिन हमारे सर पे न आरे चला किये
ज़िद
की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले
से उस ने सैकड़ों वादे-वफ़ा किये
‘ग़ालिब’ तुम्हीं कहो के मिलेगा जवाब क्या
माना
कि तुम कहा किये और वो सुना किये
नोट-
यह रही पूरी ग़ज़ल –
उस
बज़्म मे मुझे नहीं बनती हया किए
बैठा
रहा अगरचे इशारे हुआ किये
दिल
ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
मैं
और जाऊं दर से तेरे बिन सदा किये
रखता
फिरूं हूँ ख़िरक़ा-ओ-सज्जादा रहन-ए-मै
मुद्दत
हुई है दावत-ए-आबो-ओ-हवा किये
बे-सरफ़ा
ही गुज़रती है,
हो गर्चे उम्रे-ख़िज़्र
हज़रत
भी कल कहेंगे कि हम क्या किया किये
मक़दूर
हो तो ख़ाक से पूछूँ कि अय लईम
तूने
वो गंजा-हाए गिराँ-माया क्या किये
किस
रोज़ तोहमतें न तराशा किए अदू
किस
दिन हमारे सर पे न आरे चला किये
सोहबत
में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने
लगा है बोसा बग़ैर इल्तिजा किये
ज़िद
की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले
से उस ने सैकड़ों वादे-वफ़ा किये
‘ग़ालिब’ तुम्हीं कहो के मिलेगा जवाब क्या
माना
कि तुम कहा किये और वो सुना किये
No comments:
Post a Comment