Monday, November 4, 2013

पहाड़ी गाँव, पर्यटक, कवि - यह दुनिया ग़लतफ़हमियों का रंगमंच है



असद ज़ैदी की एक पुरानी कविता

पहाड़ी गाँव, पर्यटक, कवि


ऐसे लोग जिनके पास तकलीफ़ उठाने की क्षमता भी हो
और कामना भी
जिनकी आदत में शुमार हो उमड़ पड़ना और सोख लेना
उन्हें ही तैनात किया जाए इस समाज का पहरेदार
कह देते हैं हम यह पर उस जगह
लगा है जहाँ शराब का पहरा

शाम होते ही ऐसी एकाग्रता से जुटते हैं पाँच छः
आठ दस लोग अहिंसक और शांत
जैसे धर्म और दाम्पत्य का विकल्प यहीं मौजूद हो
जैसे उनका पीते जाना और हँसते जाना रोते रहने का बदल हो
जो आवाज़ दें तो उनकी पुकार में
भरी हो एक सीली हुई ख़ामोशी और आश्वस्ति कि
खलनायकी भले ही अट्टहास करती रहे
मासूमियत गूँजती रहेगी अपने नशे में सदा स्वायत्त

वह खुशमिज़ाज आदमी थोड़ी सी पिए हुए था
२०१० से फिसलकर १९६२ तक गया
और बड़ी लड़ाई तक जा पहुँचा जिसमें
उसका पूर्वज लड़ा था मेसोपोटेमिया जाकर
और फिर गिनाने लगा
गोरखा राज के नुक़सान और अंग्रेज़ी राज के नफ़े
जाते जाते बोला डोंट माइंड सर गुड नाइट सर

वहीं वार्तालाप का एक टुकड़ा सुनाई देता है -
दीदी अभी शाम को ही बत्ती जलाने की क्या ज़रूरत है
मुझे तो घनी शाम तक रसोई के बर्तन
अपनी चमक के उजाले में दिखते रहते हैं
इस किफ़ायतशुआरी में -- कि चीज़ों की
अपनी रोशनी ही काफ़ी है -- भरी थी कैसी ख़ुशी
कैसा इत्मीनान

बस की सीट के ऊपर लिखा था केबल हिलाएँ
पहाड़ी रास्ते पर जगह जगह तख़्तियाँ लगी थीं
ध्वनि करें ध्वनि करें
स्कूली बच्चों से भरी उस छोटी बस में
तीस या पैंतीस बच्चे थे पर ध्वनियाँ साठ-पैंसठ होंगी
बस लहराती चली जाती थी
पीछे पीछे जाती थी पुरानी हवा

एक और बस
मील के पत्थर -- मंसूरी १३ मिलीमीटर... नैनबाग़ २६ लीटर...
चकराता ६५ किलोग्राम... तीव्र मोड़...
आगे तीव्र गाड़ है
सावघान अत्यंत तीव्र गाड़ ...
गाड़ क्या होता है पूछता है कोई उत्सुक मैदानी भाई
दो अधेड़ पहाड़ी यात्री हँसते हैं
उनमें एक अध्यापक है कहता है जी ऊधमी लड़कों की शरारत है
नालायक़ चंद्रबिन्दु लगाना भूल गए

यह मार्मिकता भी क्या इसलिए अनदेखी रह जाएगी
कि कैमरे की बैटरी हो गयी है ख़त्म

बूढ़े लोग बच्चों को हमेशा जेब से
खाने की चीज़ निकालकर देते हैं
और बुदबुदाते हुए आगे बढ़ जाते हैं

स्कूल से लौटते छोटे छोटे लड़के और लड़कियाँ
अलग अलग चलते हैं अपनी धुन में मग्न
एक दूसरे से वाजिब और लगभग जैविक दूरी बनाते हुए
ऊपर से देखने पर वे दिखाई देते हैं छोटे छोटे कीड़ों से
उनके ऊपर मंडरा रहा है काला बादल
जो जल्द ही उन्हें तरबतर कर देगा

यह दुनिया ग़लतफ़हमियों का रंगमंच है लिपियाँ
बदल जाती हैं संकेत भी बदलते हैं
पर एक भाषा बची रहती है
जगमगाते बाज़ार के बग़ल ही तो बहता है
मृत्यु का नाला

यहाँ खाना पहले बना लिया जाता है
असली शोकगीत पहले लिख लिए जाते हैं
बाद का लिखा या तो लेटलतीफ़ी है या
अगले दुःख की तैयारी.

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

भयंकर । लगता है हम खुद उस बस में सफ़र कर रहे हों । इलाक़ा भी देखा है इसलिए हर शब्द तस्वीर बन कर तैरता है । अच्छा हुआ कैमरे की बैटरी चली गई वरना तस्वीर तो आती उसमें दर्द ऐसा न होता । बहुत ही जानदार एक्सप्रेशन है साब ।