Tuesday, February 4, 2014

धरती के बेल बूटे, अन्दाज़े नौ से फूटे



ताहिरा सैयद कर रही हैं बसन्त का इस्तकबाल.



यहां इस बात का ज़िक्र बेमानी नहीं होगा कि यही रचना उनकी माता मल्लिका पुखराज भी गा चुकी हैं.

लो फिर बसन्त आईलो फिर बसन्त आईफूलों पे रंग लाई.
...लो फिर बसन्त आईलो फिर बसन्त आईफूलों पे रंग लाई...
चलो बे दरंगलबे आबे गंगबजे जलतरंगमन पर उमंग छाई
लो फिर बसन्त आई फूलों पे रंग लाई , 

आफत गई खिज़ां कीकिस्मत फिरी जहाँ की,

चले मै गुसारसूये लाला जारमै पर्दादारशीशे के दर से झाँकी ,
आफत गई खिज़ां कीकिस्मत फिरी जहाँ की,
खेतों का हर चरिंदाखेतों हर चरिंदाबागों का हर परिंदा ,
कोई गर्म खेज़कोई नग़मा रेज़सुब को और तेज़,
फिर हो गया है ज़िन्दाबागों का हर परिंदा , 
खेतों का हर चरिंदा , धरती के बेल बूटे
अन्दाज़े नौ से फूटेहुआ पख्त सब्ज़मिला रख्त सब्ज़,
हैं दरख्त सब्ज़ , बन बन के सब्ज़ निकले ,
धरती के बेल बूटेअन्दाज़े नौ से फूटे,
है इश्क़ भीजुनूं भीहै इश्क़ भीजुनूं भी
कहीं दिल में दर्दकहीं आह सर्दकहीं रंग ज़र्द ,
है यूँ भी और यूँ भी , मस्ती भी जोशे खूँ भी , 
है इश्क़ भीजुनूं भी,

फूली हुई है सरसों , फूली हुई है सरसों
भूली हुई है सरसों , नहीं कुछ भी याद,
यूँ ही बामुरादयूँ ही शाद शाद ,
गोया रहे कि बरसोंफूली हुई है सरसों,
फूली हुई है सरसोंइक नाज़नीं ने पहनेइक नाज़नीं ने पहने
फूलों के ज़र्द गहनेहै मगर उदासनही पी के पास,
घमो रंजो यास , दिल को पड़े हैं सहने , इक नाज़नीं ने पहने,
फूलों के ज़र्द गहनेलो फिर बसन्त आई

लो फिर बसन्त आईफूलों पे रंग लाईलो फिर बसन्त आई ,

(फ़ोटो 'ट्रिब्यून' से साभार)

3 comments:

Anupama Tripathi said...

हृदय से आभार इस गीत के बोल देने हेतु !!बहुत सुंदर गायकी ....संग्रहणीय पोस्ट ॥

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर !

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही मधुर गीत