Monday, May 5, 2014

क्‍या ये शहरी लोग सही हैं और उसके गांव की औरतें ग़लत?



सिदो हैम्‍ब्रम और दुख की नदी: एक आधुनिक लोककथा

तैंतीस साल के छरहरे, सांवले सिदो हेम्‍ब्रम के जीवन में तंगी का संकट नहीं था. नवधनिक ठाठ नहीं थे मगर अच्‍छी नौकरी की कामचलाऊ ज़ि‍न्‍दगी थी. दो कमरों के साफ़-सुथरे घर में सुघड़ पत्‍नी की व्‍यवस्‍था थी. चाहता तो सब समय फ्रिज़ का पीना पी सकता, लेकिन मटकी के पानी और मटकी वाले हंड़ि‍या के बीच पले-बढ़े सिदो हैम्‍ब्रम को फ्रिज़ के बर्फीले पानी से असुविधा होती. लगता अपनी पहचान और नैतिकता से समझौता कर रहा है. जबकि गांव में पीने के पानी की एक गगरी के लिए औरतें चार कोस का रस्‍ता तय करती थीं, हाथ में ठंडा पानी लेकर वह उन सभी औरतों के साथ धोखा करेगा. ज्ञान की चेतना पाते ही पहली बात उसने समझी कि धोखेबाजी और रंगबाजी ही गांव में दुख का यथास्थितिवाद बनाये हुए हैं. सिदो हैम्‍ब्रम सुबह-शाम इस यथास्थितिवाद को तोड़ने की तरकीबें सोचता, मगर धोखेबाज बनकर उसका हिस्‍सा हो जाए, ऐसा अपराध तो उसे सपने में भी न सूझता.

राजधानी की खुशगवार सड़कों पर सस्‍ते शर्ट और सस्‍ते पैंट में पीठ के पीछे हाथ बांधे सिदो हैम्‍ब्रम सुखी नागरजनों के कौतुक देखता और मन ही मन विचार करता कि इनके जीवन में पानी है फिर उसके गांव में क्‍यों नहीं. क्‍या ये सही लोग हैं और उसके गांव की औरतें गलत? वर्त्‍तमान समय की कौन-सी तस्‍वीर सही और प्रामाणिक है. वह जो दिन-रात उसके दिमाग में खदबदाते भात की तरह खौलती रहती है, या वह जिसकी छाया वह नागरजनों की सुखी आंखों में देखता है? सिदो हैम्‍ब्रम देर तक विचार करता और अपने सवाल का सही उत्‍तर न पाकर घंटों उद्वि‍ग्‍न बना रहता. गांव-घर की पत्‍नी पूछती किस बात की चिंता है तो सिदो हैम्‍ब्रम ऊंची आवाज़ में उसके आगे अपनी चिंतायें बकता बेचारी सीधी औरत और पड़ोसियों की शांति में खलल बनता. ज़ि‍रह के पेंच और उलझते जाते तो सिदो हैम्‍ब्रम अचानक हंसने लगता. इस तरह अपनी उलझन व कुंठा जोर-जोर की हंसी के पीछे छिपाकर वह अपनी तक़लीफ भूलने की कोशिश करता.

सिदो हैम्‍ब्रम चाहता तो एक बड़ी छलांग मारकर दुख की नदी पार कर जाता. इतनी चेतना और राजधानी में रहकर इतनी चालाकी अर्जित कर ली थी उसने. मगर गांव के मोह से बंधा हुआ था. खुद को दुख से अलग करके वह गांव से अलग होने के अपराध का भागी होना नहीं चाहता था.

सिदो हैम्‍ब्रम ने बचपन से आदिवासी जीवन के दुख देखे थे. आदिवासी जीवन से बाहर आकर दुखों का एक वृहत्‍तर भूगोल देखा. बड़े गुनी-ज्ञानी लोगों की संगत में बैठकर दुख की इस नदी की वह ठीक-ठीक व्‍याख्‍या समझने की कोशिश करता. इतना शांत व समर्पित रहता कि लोग भूल जाते सिदो हैम्‍ब्रम ऊंची आवाज़ में बात करता है. और फिर इस खूराक़ से लैस होकर वह अपने सस्‍ते हवाई चप्‍पल में मीलों पैदल चलता. दिमाग में सवालों की व्‍यवस्‍था करता, नए ज़ि‍रह डिज़ाइन करता. और इस ख़्याल से उसे अपूर्व सुख की अनुभूति होती कि वह दुख का केवल अपने व अपने गांव के लिए ही नहीं, समूचे समाज का तोड़ पा लेगा, और उसकी कहानी का निजी सबक सामाजिक सबक के बतौर बरता जा सकेगा.

जितना सिदो हैम्‍ब्रम अपने को समझता था, उतना वह समझदार था नहीं. दरअसल भोला और बुद्धू था. क्‍योंकि जिस घड़ी वह इन सपनों में डूबा रहता, ठीक उसी वक़्त उसके दफ़्तर के सहकर्मी और शांत पड़ोसी उसके हल्‍ले के ख़ि‍लाफ़ पुलिस थाने में शिकायत लेकर बैठे होते. कुछ ही समय में फ़ैसला सुनाकर सिदो हैम्‍ब्रम से हमेशा-हमेशा के लिए दाल भात छीन लिए जाने की नीति रची जा रही होती.

आखिर में एक निजी चिंता. मैं सिदो हैम्‍ब्रम के साथ रहूं, या उसके शांत पड़ोसियों की शिकायत के साथ- इस प्रश्‍न को लेकर अभी तक असमंजस में हूं. मेरी मदद कीजिए- आप ही बताइए, क्‍या करना उचित व संगत होगा?

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