१९३१
के साल आज ही के दिन महान उपन्यासकार और कहानीकार शैलेश मटियानी का जन्म हुआ था.
उत्तराखंड की धरती ने हिन्दी को तमाम बड़े और महत्वपूर्ण रचनाकार दिए हैं पर अपने
कार्य की बहुलता और विषदता के चलते शैलेश
जी अन्य रचनाकारों से कहीं आगे के साहित्यकार हैं.
उनकी
पुस्तक ‘मुखसरोवर के हंस’ आज भी मेरी दस प्रियतम किताबों में से एक है. कुमाऊँ के
वीर बफौल भाइयों की गाथा पर आधारित यह पुस्तक एक अद्भुत नैरेटिव है जिसमें शैलेश
जी ने कुमाऊँनी बोली को हिन्दी के साथ जिस ख़ूबसूरती से पिरोया है, बिना पढ़े उसकी
कल्पना नहीं की जा सकती.
यह
अलग बात है कि हिन्दी में सतत चलते रहने वाले फ़िज़ूल विवादों और गुटबाजी वगैरह के
चलते उन्हें उनके हिस्से का समुचित सम्मान मिलना अभी भी शेष है.
अगाध प्रेम और आदर के साथ इस सतत संघर्षशील पुरोधा रचनाकर्मी को याद करते हुए उनकी एक अत्यंत मर्मस्पर्शी और ख्यात
कहानी ‘मैमूद’ कबाड़खाने के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.
मैमूद
शैलेश
मटियानी
महमूद
फिर जोर बाँधने लगा, तो जद्दन ने दायाँ
कान ऐंठते हुए, उसका मुँह अपनी ओर घुमा लिया. ठीक थूथने पर
थप्पड़ मारती हुई बोली, “बहुत मुल्ला दोपियाजा की-सी दाढ़ी
क्या हिलाता है, स्साले! दूँगी एक कनटाप, तो सब शेखी निकल जाएगी. न पिद्दी, न पिद्दी के शोरबे,
साले बहुत साँड़ बने घूमते हैं. ऐ सुलेमान की अम्मा, अब मेरा मुँह क्या देखती है, रोटी-बोटी कुछ ला. तेरा
काम तो बन ही गया? देख लेना, कैसे
शानदार पठिये देती है. इसके तो सारे पठिये रंग पर भी इसी के जाते हैं.”
अपनी
बात पूरी करते-करते, जद्दन ने कान ऐंठना
छोड़कर, उसकी गरदन पर हाथ फेरना शुरू कर दिया. अब महमूद भी
धीरे-से पलटा, और सिर ऊँचा करके जद्दन का कान मुँह में भर
लिया, तो वह चिल्ला पड़ी, “अरी ओ
सुलेमान की अम्मी, देख तो साले इस शैतान की करतूत जरा अपनी
आँखों से! चुगद कान ऐंठने का बदला ले रहा है. ए मैमूद, स्साले,
दाँत न लगाना, नहीं तो तेरी खैर नहीं.
अच्छा,
ले आई तू रोटियाँ? अरी, ये
तो राशन के गेहूँ की नहीं, देसी की दिखती हैं. ला इधर. देखा
तूने, हरामी कैसे मेरा कान मुँह में भरे था? अब तुझे यकीन नहीं आएगा, रहीमन! ये साला तो बिलकुल
इनसानों की तरह जज्बाती है!”
“जानवर
तो गूँगा होता है, शराफत की अम्मा!
अलबत्ता इनसान उसमें जज्बातों का अक्स जरूर ढूँढ़ता है. तुम तो इस नामुराद बकरे का
इतना खयाल रखती हो, माँ अपनी औलाद का क्या रखती होगी.”
रहीमन
ने दोनों रोटियाँ जद्दन को पकड़ा दी थीं और बकरा अब रोटी के टुकड़े चबाने में
व्यस्त हो गया था. एक टुकड़ा वह जब पूरी तरह निगल लेता,
तो सिर से जद्दन को अपने सींगों से ठेलने लगता था. “सब्र नाम की चीज तो खुदा ने तुझे किसी भी बात में बख्शी ही नहीं.” कहते हुए जद्दन ने फिर अपना रुख रहीमन की ओर कर लिया, “इनसान जब बूढ़ा हो जाता है, तब कोई ऐसा उसे चाहिए,
जो उसके “आ” कहने से आए
और “जा” कहने से जाए. दुनिया वालों की
दुनिया जाने, सुलेमान की अम्मा! मेरा तो एक यह नामुराद मैमूद
ही है, जिस साले को इस खुल्दाबाद की नबी वाली गली से आवाज
लगाऊँ कि - “मैमूद! मैमूद! मैमूद!” तो
चुगद नखासकोने के कूड़ेखाने पर पहुँचा हुआ पीछे पलटता है और “बें-बें” करता वो दौड़ के आता है मेरी तरफ कि तू जान,
सगी औलाद क्या आएगी! बस, साला जब कुनबापरस्ती
पे निकलता है, तो मेरी क्या खुदा की भी नहीं सुनेगा. फिर भी
आवाज लगा दूँ, तो एक बार पलट के जरूर “बे”
कर लेगा, भले ही बाद में अपनी अम्माओं की तरफ
दूनी रफ्तार से दौड़ पड़े.
अपनी
बात पूरी करके जद्दन हँस पड़ी, तो उसके छिदरे
और कत्थई रंग के भद्दे दाँतों में एक चमक-सी दिखाई दे गई. जर्जर, टल्ले लगे और बदरंग बुरके में से बुढ़ापे का मारा हुआ चेहरा उघाड़े रहती
है जद्दन, तो चुड़ैलों की-सी सूरत निकल आती है.
“जब इस कसाइयों के निवाले का किस्सा बखानने लगती हो तुम, शराफत की अम्मा, मीरगंज वालियों की-सी चमक आ जाती है
तुम में!” अपनी काफी दूर निकल चुकी बकरी को एक नजर टोह लेने
के बाद, रहीमन ने मजाक किया और खुद भी हँस पड़ी.
“तुम खुद अब कौन-सी जवान रह गई हो, रहीमन? आखिर तजुर्बेकार औरत हो! तुम जानो, एक ये बेजुबान
जानवर और दूसरे मासूम बच्चे - बस, ये दो हैं, जो इनसान की उम्र, उसके जिस्म और उसकी
खूबसूरती-बदसूरती पे नहीं जाते, बल्कि सिर्फ नेकी-बदी और
नफरत-मुहब्बत को पहचानते हैं. हमारे शराफत की बन्नो तो तुम्हारी हजार बार की देखी
हुई है. खूबसूरती और नूर में उसके मुकाबले की हाजी लाल मुहम्मद बीड़ी वालों या
शेरवानियों के हियाँ भी मुश्किल से मिलेगी, रहीमन! मगर तू ये
जान कि मेरा मैमूद उसकी शकल देखते ही मुँह फेर के, पिछाड़ी
घुमा देता है. बदगुमान कैती है, नाकाबिले बर्दाश्त बू मारता
है और ये कि “अम्मा हमारे बच्चों का छोड़ देंगी, लेकिन ये बकरा नहीं छूटेगा.” ...मैं कैती हूँ,
तेरी कमसिनी और खूबसूरती पे लानत है. लाख पौडर-इत्र छिड़के तू,
मेरा मैमूद तेरे कहे पे थूक के नहीं देगा. जानवर और बच्चे तो इनसान
की चमड़ी नहीं, नियत देखते हैं, नियत!
मजाल है कि नवाबजादी के हाथों से एक गस्सा मेरे मैमूद के मुँह की तरफ चला जाए! तुझ
पे खुदा रहम करेगा, रहीमन! देखना,पहले
तो तीन, नहीं दो पठिये तो कहीं गए ही ना! ...खुदा कसम,
ये रोटियाँ तूने इस नामुराद के नहीं, मेरे पेट
में डाल दी हैं. मुहल्ले वाले तो, बस, सरकारी
मवेशी समझकर चले आते हैं. ये नहीं होता कमनियतों से कि दो रोटियाँ या मुट्ठी-भर
दाना भी साथ लेते आएँ. अरे भई, मैमूद जो धूप में खेल के वापस
आने वाले मासूम बच्चों की तरे मुरझा जाता है, ये तो सिर्फ
जद्दन को ही दिखाई देता है, या ऊपर वाले खुदा को. तू जान,
पिछले बरस की बकरीद के आस-पास पैदा हुआ था. अब याददाश्त कमजोर पड़
चुकी, लेकिन शायद, ये ही जुम्मे या
जुमेरात के रोज पैदा हुआ होगा और अब साल ऊपर साढ़े तीन महीने का हो लिया.”
जद्दन
महमूद की पीठ पर हाथ फेरते हुए खटोले पर से उठ खड़ी हुई थी कि “अच्छा, सुलेमान की अम्मा, चलूँगी.
शराफत के अब्बा की दुपेर की नमाज का वक्त हो रहा है. सुना है, आज शहनाज के अब्बा लोग भी आने वाले हैं रायबरेली से.” तभी रहीमन ने कहा कि “तुम सवा-डेढ़ साल का बताती हो,
मगर इसके रान-पुट्ठे देख के कोई तीन से नीचे का नहीं कहेगा! बीस-पच्चीस
सेर से कम गोश्त नहीं निकलेगा इस बकरे में. लगता है, तुमने
रोटी-दाने के अलावा घास से परवरिश की ही नहीं?”
हालाँकि
रहीमन ने सारी बातें महमूद की प्रशंसा में कही थीं, लेकिन जद्दन का पूरा चेहरा त्यौरियों की तरह चढ़ गया, “अरी ओ रहीमन, आग लगे तेरे मूँ में. मतलब निकल गया
तेरा, तो मेरे मैमूद का गोश्त तौलने बैठ गई? तेरा खाबिंद तो बढ़ई है, री, ये
कसाइयों की घरवालियों की-सी बातें कहाँ से सीखी हो? या खुदा,
हया और रहम नाम की चीज इनसानों में रही ही ना! गोश्तखोरों की नजर और
कसाई की छुरी में कोई फर्क थोड़े ना होता है. अरी रहीमन, कहे
देती हूँ - आगे से ऐसी बेहूदी बातें न करना और आइंदे से अपनी बकरी कहीं दूसरी जगे
ले जाना. कोई सुसरा पूरे खुल्दाबाद में मेरा एक मैमूद ही थोड़े ठीका लिए बैठा है.”
“अरी जद्दन, अब बड़े घरानों की बेगमों के-से तेवर
बहुत न दिखाओ! बकरा न हो गया, सुसरा हातिमताई हो गया
तुम्हारे वास्ते!” रहीमन ने भी झिड़क दिया और व्यंग्य-भरी
आवाज में बोली -- “वो जो एक मुहावरा है, तुमने भी सुना होगा - बकरे की अम्मा आखिर कब तक दुआएँ करेगी? और जद्दन, सुनाने वाले को सुनना भी सीखना ही चाहिए.
हमसे
पूछो,
तो हकीकत ये है कि तुम्हारे तो औलाद हुई नहीं. सौतेले को न तुमने
कलेजे के करीब आने दिया और न उन नामुरादों से तुम्हारे सीने में दूध उतारा गया. बस,
ये ही वजह है कि तुम इस दाढ़ीजार बकरे को “मेरा
मैमूद, मेरा मैमूद!” पुकार के अपनी जलन
बुझाती हो.”
जद्दन
आगे बढ़ती हुई, ऐसे रुक गई, जैसे बिच्छू ने काट लिया हो. उसका चेहरा गुस्से में तमतमाने के बाद,
लाचारगी से स्याह पड़ गया, रहीमन, जो जी तूने मेरा दुखाया है, खुदा तुझे समझेगा. और रै
गया “बकरे की अम्मा” वाला मुहावरा,
तो इनसान की अम्मा की ही दुआ कहाँ बहुत लंबे तक असर करती है?
करती होती, तो तेरा बड़ा बेटा सुलेमान आज जवान
हो चुका होता और तू सिर्फ नाम की “सुलेमान की अम्मा” न रह जाती! एक लमहा चुप कर, रहीमन! खुदा मुझे माफ
करे, मैं तेरे ऊपर बीते का मजाक उड़ाना नहीं चाहती थी -
सिर्फ इतना कैना चाहती हूँ, दर्द इनसान को अपने जज्बातों का
होता है. जिससे जज्बाती रिश्ता न हो, उसका काहे का स्यापा?
सूलेमान की अम्मा, इतना मैं भी जानती हूँ कि
बकरे ने आखिर कटना-ही-कटना है. कसाइयों से कौन-सा बकरा बचा आज तलक? मगर मेरी इतनी इल्तजा जरूर है परवर-दिगार से, मेरी
नजरों के सामने ना कटे. शराफत के अब्बा से कै भी चुकी हूँ, इस
नामुराद को जब बेचने लगो, तो पहले तो शहर का - कम-से-कम
मोहल्ले का फासला जरूर रखना. और वो तेरी बात मैं जरूर माने लेती हूँ कि खुदा के
यहाँ बकरे की अम्मा की दुआ बहरे के कानों में अजान हैं. यह भी ठीक है, सौतेले ने मुझे सगी अम्मा की-सी इज्जत नहीं बख्शी, यह
कैना सरासर झूठ बोल के दोखज में जाना होगा मगर मुहब्बत जो मुझे इस जानवर ने दी,
अम्मा-अब्बा ने दी होगी, तो दी होगी.”
रहीमन
से कोई उत्तर बन नहीं पाया. वह सिर्फ यह देखती रह गई कि जद्दन ने बुर्के के पल्लू
से अपनी आँखें पोछीं और बकरे की पीठ थपथपाती हुई, अपने घर की तरफ बढ़ गई.
जद्दन
जब तक घर पहुँची, अशरफ नमाज पर बैठ
चुके थे.
पाखाने
की बगल की सँकरी कोठरी में बकरे को बंद करते हुए, जद्दन बोली, “शराफत के अब्बा दूपेर की नमाज पर बैठ
चुके. अब तू कहाँ मारा-मारा फिरेगा. शाम के वक्त निकालूँगी. इस साल अभी से लू चलने
लगी.”
खाने
पर बैठे,
तो अशरफ बोले, “शराफत की अम्मा, रायबरेली वालों का संदेशा आया था, तुम्हें मालूम ही
होगा. हम लोग तो तंगदस्ती में चल रहे हैं, मगर मेहमानों के
सामने तो अपना रोना रोया नहीं जाता, इज्जत देखनी पड़ती है.
शराफत और जहीर से बात हुई थी. लड़के ठीक ही कह रहे थे कि अब्बा, बाजार में दस रुपए किलो का भाव है. पाँच-छह जने शहनाज की पीहर से रहेंगे
और भले-बुरे में दस-पाँच अपनी आपसवालों के लोगों को बुलाना जरूरी-सा होता है.
दूसरों की दावत खाते हैं, तो अपनी शर्म रखनी ही पड़ेगी.
शराफत तो यही कहता था कि अम्मा से पूछ के देख लें. तुम्हारे बकरे को कटवा लेते तो
घर की ठुकेगी नहीं. खाली रोगनजोश उबाल देने से तो काम चलेगा नहीं. कबाब और कोफ्ते
बड़ी बहुत अच्छे बनाती हैं. पिछले बरस जब हम लोग रायबरेली गए थे शहनाज के अब्बा ने
दो तो बकरे ही कटवा दिए थे और मुर्गियों की गिनती कौन करे. चार-पाँच दिन कुल जमा
रहे होंगे, गोश्त खा-खाकर अफारा हो गया. गरीब हम लोग उनके
मुकाबले में जरूर हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि अपनी कमनियती का
सबूत भी दें.”
अशरफ
भूमिका बाँधते जा रहे थे और जद्दन का चेहरा खिंचता जा रहा था. घर के सभी लोग जानते
थे कि अम्मा से बकरे को निकालना इतना आसान नहीं होगा. अशरफ जब बातें कर रहे थे,
शहनाज चुपके-चुपके अपने बच्चे को पुलाव खिला रही थी और सहम रही थी
कि कहीं अम्मा आसमान की तरह न फट पड़ें. मुँह उसका दूसरी ओर था, लेकिन कान जद्दन की ओर लगे हुए थे. ज्योंही जद्दन ने धीमी लेकिन कड़वी
आवाज में कहा कि “शराफत की लैला तो मेरे मैमूद की जान को आ
गई है.” शहनाज दबे स्वर में बोली, “अम्मा,
ये तोहमत हमें ना दीजिए. ये बैठे हैं सामने, पूछ
लीजिए, हम तो लगातार मने करते रहे हैं कि अम्मा बहुत जज्बाती
है, उनकी कोई न छेड़े. खुराफातें ये करेंगे और अम्मा का
गुस्सा अपने बेटों की जगह, हम बेकसूरों पर गिरेगा.”
शहनाज
के कहने में कुछ ऐसी विनम्रता और सम्मान की भावना थी कि जद्दन का रुख बदल गया,
“शराफत के अब्बा, बकरे को मैंने कोई छाती पे
बाँध के थोड़े ले जाना है? रहीमन ठीक ही तो कैती थी कि जद्दन
आपा, बकरे की माँ कहाँ तक खैर मना सकती है! मेरी ख्वाहिश तो
सिर्फ इतनी हैं कि इस साले नामुराद जानवर के उठने-बैठने, हगने-मूतने
की बातें भी मेरी याददाश्त का हिस्सा बन गई हैं. छोटा मेमना था, तब तुम लोगों ने ही खुद देखा और हजार बार टोका कि अम्मा बकरे को औलाद की
तरह साथ सुलाती है. क्या करती, सर्दी इतनी पड़ती थी और बिना
माँ का ये बच्चा था! खैर, मेरी तो इतनी-सी सलाह है कि मेहमान
आएँ, तो उनकी इज्जत हमारी इज्जत है. जहीर से कहिए, कहीं उधर कटरे-कंडेलगंज की तरफ के कसाइयों के हाथ बेच आए और इसके पैसों से
चाहे फिर गोश्त ले आए, या दूसरा बकरा खरीद लाए. इसका तो
गोश्त भी बू मारेगा. और, खुदा जानता है, मैंने तो अपना जी अब खुद ही कसाइयों-सा बना लिया कि इस हरामजादे को तो
कटना ही है. मैं ही उल्लू की पट्ठी थीं, जो इसको खुराक देकर
गोश्तखोरों के लिए मोटा करती रही.
हालाँकि
सारी बातें जद्दन ने काफी ठंडे स्वर में और उदासीनता बरतते हुए कही थीं,
लेकिन सभी जानते थे कि क्रुद्धता उसके जिस्म में इस समय खून की तरह
दौड़ रही होगी.
अपनी
हताशा और उदासीनता को कमरे में पतझर के पत्तों की तरह गिराती हुई-सी जद्दन उठ खड़ी
हुई,
तो शहनाज बोली, “बकरे का गोश्त बू देगा,
यह कहने के पीछे अम्मा का खास मकसद है. आप इन दोनों से कह दीजिएगा
कि अम्मा से जिद न करें.”
अशरफ
मियाँ ने एक लंबी साँस ली और बोले, “इसको
देखता हूँ, तो बीते हुए दिन याद आने लगते हैं. शराफत और जहीर
जब छोटे थे, तभी बड़ी चली गई थी. इसने हम लोगों को कभी इस
बात का अहसास नहीं होने दिया कि बूढ़े की बीवी मर गई है या बच्चों की अम्मा! तुम
लोग तो अब देख रही हो, जब न इसमें आब रही, न ताब! बकरा कट ही जाए, तो अच्छा है. मार पागलों की
तरह धूप में मारी-मारी फिरती है. वह सुसरा कभी ठिकाने तो रहता नहीं. कटे, तो थोड़े दिन हाय-तौबा कर लेगी, और क्या! रोज-रोज की
फजीहत तो दूर होगी. देखना मेहमानों के सामने अम्मा यों टल्ले लगा बुरका पहने न चली
आएँ! वक्त की मार भी क्या मार है. देखती हो, अधखाया करके उठ
गईं. जब तुम लोगों की उम्र की थीं, तब बासमती की किस्में
देखी जाती थीं कि जर्दा पुलाव के लिए बारीक वाली बासमती हो. अब यह राशन के चावलों
को पीला करना तो हल्दी की बेइज्जती करना है.”
इसी
वक्त बड़ा बेटा जहीर आ गया, तो उसको सारी
स्थिति बताई गई. वह लापरवाही के साथ बोला, “आप लोग बेकार में
बात बढ़ाए जाते हैं. अम्मा को मैं समझा दूँगा. अब यह कोई उनकी बकरे के पीछे दौड़ने
की उम्र है? सड़क पर भागती दिखती हैं, तो
शर्मसार होके रह जाते हैं हम लोग. भूखी-प्यासी और फटेहाल दौड़ी चली जाएँगी. मेरी
मानिए, तो सलीम कसाई को बुलवा लें और मेहमानों के आने से
पहले खाल उतारकर, कीमा कूटने रख दे. रानें पुलाव में डलवा
दीजिए और इस वक्त के मीट में सीना-चाप-गरदन की बोटियाँ ठीक रहेंगी. जो खातिर घर की
चीज से हो सकती है, बाजार से दो-ढाई सौ में भी नहीं होंगी.
जुबेदा
की अम्मा भी यही कहती थीं कि सोला रुपए वो देंगी, तीस-बत्तीस रुपए, शायद, ये
शहनाज भी देने वाली थीं कि “अम्मा अपने बेटों को तो बख्श
देंगी, हमें नहीं.” अब इन बेवकूफों को
कौन समझाए कि दो किलो घासलेट और तेल-मसाला करते-करते सौ रुपए निकल जाएँगे. राशन का
चावल तो मेहमानों के लिए पुलाव में इस्तेमाल होगा नहीं और ढंग की बासमती साढ़े
चार-पाँच से कमती का सेर नहीं. इनसान को अपना वक्त और सहूलियत देख के चलना चाहिए,
जज्बातों पर चलने के दिन लद गए.”
“कहते ठीक हो, बेटे! मेरी भी राय यही है. जरा तुम
अम्मा से मिलकर, ऊँच-नीच समझा दो. जिद्दी जरूर हैं, लेकिन नासमझ नहीं.” कहते हुए अशरफ मियाँ उठ खड़े हुए,
तो उनके घुटनों के चटखने की आवाज साफ-साफ सुनाई दे गई. जहीर की
घरवाली यह कहते हुए उठ खड़ी हुई कि “तुम लोग शुरू करो,
मैं जरा अब्बा हुजूर के हाथ धुलवा दूँ.”
खाना
खा चुकने पर जहीर सीधे भीतर के कमरे में गया कि अम्मा सोई होगी,
लेकिन शहनाज ने बताया, “यों कहकर निकल गई हैं
कि जरा रिजवी साहब के घर तक जाएँगी. उनके घर पिछले हफ्ते गमी हो गई थी. कहकर गई है
कि शायद शाम हो जाए, देर से लौटेंगे. मेरा खयाल है, अम्मा ने समझ लिया है कि अब बकरा बचना नहीं. गमी में शरीक होना तो एक
बहाना है. घर से दूर जाना चाहती होंगी.”
शहनाज
धीमे से हँसना चाहती थी, लेकिन सिर्फ उदास
होकर रह गई.
जहीर
ने बाहर निकलकर, अपने ग्यारह-बारह साल के बड़े
लड़के से कहा, “जुबैद, जरा सलीम को
बुलाकर लाइयो. मेहमानों के आने तक में सफाई हो जाए, तो ही
ठीक है. जुबेद की अम्मा, भई, तुम लोग
जरा बाहर वाला कमरा मेहमानों के लिए ठीक-ठाक कर देना. शहनाज के अब्बा लोगों को
किसी तरह की कमी की शिकायत न हो. बेचारे हर फसल पर चले आते हैं और हर बात का लिहाज
रखते हैं. खुद तुम्हारे साथ अपनी सगी बेटी से ज्यादा मुहब्बत का बर्ताव करते हैं.
तुम दोनों जने प्याज और मसाले वगैरह पीसकर तैयार कर लेना. बाकी बाजार का सामान
शराफत लेता आएगा. सलीम आ जाए, तो उससे कह देना, गंद जरा-सी भी न छूटे आँगन में. पोंछा लगवा लेना. खून के धब्बे वगैरह
देखेंगी अम्मा तो, और बिगड़ेंगी. तुम लोगों से कुछ कहने लगें,
तो कह देना, जुबेद के अब्बा ने जबर्दस्ती कटवा
दिया. मैं उन्हें समझा लूँगा.”
शाम
की जगह घड़ी-भर रात बीत चुकने के अहसास में ही, जद्दन
घर वापस लौटी और गली में से होते हुए, घर के पीछे वाले सँकरे
आँगन में निकल गई. खटोला गिराकर उस पर लेट गई और, आस-पास के
नीम-अँधेरे में अपने-आपको छिपा लेने की कोशिश में, आँखें बंद
कर लीं.
मेहमान
आ चुके थे और उनके तथा आपस के लोगों की बातचीत यहाँ पिछवाड़े भी सुनाई दो रही थी.
छोटे बच्चों को बाहर लेकर आई, तो शहनाज ने
देखा और करीब आकर, पाँव दबाती हुई बोली, “अब्बा आ गए हैं. आते ही आपकी बाबत पूछ रहे थे कि अम्मा ने पुछवाया है,
कैसी हैं. कभी रायबरेली की तरफ आने की इल्तजा करवा रही हैं. मैंने
भी अब्बा से कहा है कि अब की बार मैं अम्मा के साथ ही आऊँगी. अम्मा, तुम खाना कहाँ खाओगी? मेहमानों का दस्तरखान तो वहीं
बाहर बैठक में बिछेगा. जल्दी खा-पी लेने की बातें कर रहे थे सभी लोग. कोई मजहबी
किस्म की फिल्म शहर में कहीं लगी हुई है!”
“मेरे लिए दो रोटियाँ यहीं भिजवा देना. मेरा न जी ठीक है, न पेट. जुबैद को जरा भेज देना, मैं उससे कुछ मँगवा
लूँगी. तुम सब लोग आराम से खाओ-पिओ. मेरी फिक्र ना करना. अब तो कोई सर्दी ना रही.
मैं यहीं सो जाऊँगी. अपने अब्बा हुजूर से मेरा सलाम कैना और कैना कि सुबह दुआ-सलाम
होगी, अभी अम्मा का जी ठीक नहीं.”
शहनाज
ने अनुभव किया कि जद्दन की आवाज मरते वक्त की-सी हो आई है. निहायत हल्की और बेजान.
वह चाहती थी कि कुछ बातें करके, उसकी उदासीनता
को कम करने की कोशिश करे, लेकिन इस डर से चुप रह गई कि कहीं
अंदर इकट्ठा किया हुआ दुख गुस्से की शक्ल में बाहर फूट आया, तो
पूरे घर का वातावरण बदल जाएगा. आज के वक्त को तो अब यों हीं टल जाने देना अच्छा है.
वापस
लौटकर उसने बताया, “तो जहीर और अशरफ
मियाँ, दोनों ने मुँह बना लिया.
“हम लोगों ने तो हरचंद वही कोशिश की है कि कहीं से उस नामुराद बकरे की कोई
चीज अम्मा को दिखे ही नहीं. वो तो इतनी संजीदा हो गई हैं, जैसे
बकरे का हलाल किया हुआ सर आँगन में टँगा हुआ हो. कह रही थीं, गोश्त-पुलाव वगैरा कुछ मत भेजना.” शहनाज ने कहा,
तो अशरफ मियाँ उठ खड़े हुए. बोले, “जब उसे
खिलाना हो, हमें बुला लेना. क्यों, भई
जुबेद, तुम कहाँ तशरीफ ले जा रहे हो? जरा
बैठक में मेहमानों के करीब रहो.”
चाचा
जी ने पिछवाड़े भेजा था, बड़ी अम्मा के पास.
उन्होंने चार आने हमें दिए हैं कि “जाओ, शंभू पंडत की दुकान से आलू की सब्जी ले आओ.”
“अबे, इधर ला चवन्नी. जा, मेहमानों
को पानी-वानी पूछना. अम्मा को हम देख लेंगे. शहनाज बेटे, ऐसा
करो - एक थाली में पुलाव और बड़े कटोरे में गोश्त लगाकर हमें दो दो. हम ले जाकर
समझा देंगे. वाकई, बहुत बेवकूफ किस्म की औरत है. जहीर,
तुम बाहर बैठक में दस्तरखान बिछाने में लगो. शराफत के अलावा और
एक-दो लड़कों को साथ ले लो.”
पुलाव
की थाली और गोश्त का कटोरा शहनाज ने ही पहुँचा दिया. खटोले की बगल में रखकर,
पानी लाने के बहाने तुरंत लौट आई. अशरफ मियाँ ने करीब से माथा छुआ
और बोले, “क्यों, भई, ऐसे क्यों लेटी हो? तबीयत तो ठीक है ना? अरी सुनो, सारे किए-कराए पर मिट्टी न डालो. तुम
रुसवा रहोगी, तो सारी मेहमाननवाजी फीकी पड़ जाएगी. सारा घर
कबाब-गोश्त उड़ाए और तुम उस शंभू पंडत के यहाँ के पानीवाले आलू मँगवाओ, ये तो हम लोगों को जूती मारने के बरोबर है. ऐसी भी क्या बात हो गई,
जो तुमने खटिया पकड़ ली? गोश्त से तुम्हें कभी
परहेज रहा नहीं. बिना शोरबे के रोटी गले के नीचे तुम्हारे उतरती नहीं. अब इस हद तक
जज्बाती बनने से तो कोई फायदा नहीं. आखिर जिन बकरों का गोश्त तुम आज तक खाती आई हो,
उनके कोई चार सींग तो थे नहीं! लो, शहनाज खाना
दे गई है. गोश्त वाकई बहुत लज्जतदार बना है. जहीर तो दूसरा बकरा भी ढूँढ़ने गया था,
मगर लौटकर यही कहने लगा कि “अब्बा, अपना बेचने जाओ तो सौ के पचास देंगे और दूसरों का खरीदने जाओ, तो पचास के सौ माँगेंगे. तुम तो घर की इस वक्त जो अंदरुनी हालत है,
जानती ही हो.”
जद्दन
ऐसे उठी,
जैसे कब्रिस्तान में गड़ा हुआ मुर्दा खड़ा हो रहा हो. तीखी आँखों से
अशरफ मियाँ की ओर उसने देखा और आवाज मेहमानों तक न पहुँचे, इस
तरह दबाकर बोली, “जहीर के अब्बा, नसीहतें
देने आए हो? मेरी तकलीफ तुम लोग समझोगे? रिजवी के यहाँ घंटों पड़ी रही हूँ, तो कैसे यही मेरे
तसब्वुर में आता रहा कि अब तुम लोग मेरे मैमूद के सिर को धड़ से कैसे जुदा कर रहे
होंगे - जार-जार रोती रही हूँ और रिजवी की बीवी यों समझ के मुझे समझाए जा रही है
कि मैं उसके बदनसीब भाई की बेवक्त की मौत पे रो रही हूँ. आज ससुरा सवेरे-सवेरे से
बार-बार मेरे कान मुँह में भरे जाता था और मैं थूथना पकड़कर, धक्का दे देती थी. मैं क्या जानूँ कि बदनसीब चुपके से कान में यही कहना
चाहता है कि “अम्मा, आज हम चले जाएँगे!”
तुम लोग समझोगे मेरी तकलीफ कि कैसे मेरे लबों पर “मैमूद” की सदा आएगी और खत्म हो जाएगी?”
जद्दन
काफी देर तक फूट-फूटकर रोती रही और अशरफ मियाँ हक्का-बक्का बैठे रहे. उनकी समझ में
नहीं आ रहा था कि स्थिति अब सँभले कैसे! आखिर उन्होंने यही तय किया कि चुपचाप खाना
उठा ले जाना ही ठीक है.
वह
थाली-कटोरा उठाते कि जद्दन जहरबुझी आवाज में बोल उठी,
“तुम बेदर्दों से ये भी न हुआ कि मैं अव्वल दर्जे की गोश्तखोर औरत
जब कै रही हूँ कि “बेटे शहनाज, हमें
गोश्त-वोश्त न देना.” तो इसकी कोई तो वजह होगी? और जहीर के अब्बा, इनसान दाढ़ी बढ़ा लेने से पीर
नहीं हो जाता. तुम ये मुझे क्या नसीहत दोगे कि सभी बकरों के दो सींग होते हैं?
इतना तो नादीदा भी जानता है. दुनिया में तो सारे इनसान भी खुदा ने
दो सींग वाले बकरों की तरह, दो पाँव वाले बनाए? लेकिन औरत तो तभी राँड़ होती है, जब उसका अपना खसम
मरता है. अम्मा तो तभी अपनी छाती कूटती है, जब उससे उसका
बच्चा जुदा होता हो. ये मैं भी जानती हूँ कि मेरे मैमूद में कोई सुर्खाब के पर
नहीं लगे थे, मगर इतना जानती हूँ कि मेरी तकलीफ जितना वह
बदनसीब समझता था, न तुम समझोगे, न तुम्हारे
बेटे! समझते होते, तो क्या किसी हकीम ने बताया था कि
मेहमानों को इसी बकरे का गोश्त खिलाना और तुम भी भकोसना, नहीं
तो नजला-जुकाम हो जाएगा? जहीर के अब्बा, उसूलों का तुम पे टोटा नहीं, मगर इस वक्त अब हमें
बहुत जलील न करो. शहनाज से कहो, उठा ले जाए, नहीं तो फेंक दूँगी उधर! जुबैद से कह देना, अब पंडत
के हियाँ से सब्जी लाने की भी कोई जरूरत ना रही. मेरा पेट तो तुम लोगों की नसीहतों
से ही भर चुका.”
अशरफ
मियाँ नीचे झुके और थाली-कटोरा उठाते हुए, वापस
आ गए, “लो बेटे, रखो! जिद्दी औरत को
समझाना तो खुदा के बस का भी नहीं. उसे उसके हाल पर छोड़, मेहमानों
की फिक्र करो.”
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शैलेश मटियानी
जन्म: १४ अक्टूबर १९३१ को बोड़ेछीना,
जनपद-अल्मोड़ा में।
शिक्षा : हाईस्कूल तक
वृत्ति : साहित्य
साहित्य रचना की अवधि : पचास वर्ष
प्रकाशित कृतियाँ-
उपन्यास:
उगते सूरज की किरन,
पुनर्जन्म के बाद, भागे हुए लोग, डेरे वाले, हौलदार, माया सरोवर,
उत्तरकांड, रामकली, मुठभेड़,
चन्द औरतों का शहर, आकाश कितना अनन्त है,
बर्फ गिर चुकने के बाद, सूर्यास्त कोसी,
नाग वल्लरी, बोरीवली से बोरीबंदर तक, अर्धकुम्भ की यात्रा, गापुली गफूरन, सावितरी, छोटे-छोटे पक्षी, मुख
सरोवर के हंस, कबूतर खाना, बावन नदियों
का संगम आदि.
कहानी संग्रह :
पाप मुक्ति तथा अन्य कहानियां,
सुहागिनी तथा अन्य कहानियां, अतीत तथा अन्य
कहानियां, हारा हुआ, सफर घर जाने से
पहले, छिंदा पहलवान वाली गली, भेड़े और
गड़रिये, तीसरा सुख, बर्फ की चट्टानें,
अहिंसा तथा अन्य कहानियां, नाच जमूरे नाच,
माता तथा अन्य कहानियां, उत्सव के बाद,
शैलेश मटियानी की प्रतिनिधि कहानियां, संदर्भ
और परिदृष्य (स.) आदि.
लेख संग्रह :
राष्ट्रभाषा का सवाल,
कागज की नाव, लेखक की हैसियत से (संस्मरण),
किसे पता है राष्ट्रीय शर्म का मतलब? , जनता
और साहित्य, लेखक और संवेदना, मुख्यधारा
का सवाल, यथा-प्रसंग, कभी कभार,
किसके राम कैसे राम, यदाकदा, त्रिज्या आदि.
बाल साहित्य :
बिल्ली के बच्चे,
मां की वापसी, कालीपार की लोक कथाएं, हाथी चींटीं की लड़ाई। चांदी का रूपैया और रानी गौरेया, फूलों की नगरी, भरत मिलाप, सुबह
के सूरज, मां तुम आओ, योग संयोग
प्रकाश्य :
मुड़-मुड़ कर मत देख,
कहानी कैसे बनती है
अप्रकाशित :
पर्वत से सागर तक,
राज्य और कानून
प्रसारण :
बी.बी.सी. लंदन से 'दो दुखों का एक सुख' कहानी के नाट्य-रूपान्तरण का
प्रसारण
उपाधि :
१९९४ में कुमाऊ विश्वविद्यालय
द्वारा डी.लिट् की मानद उपाधि
पुरस्कार :
उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत
सम्मान, शारदा सम्मान, केडिया संस्थान से साधना सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार
से लोहिया पुरस्कार
जीवन और लेखन पर शोध :
'शैलेश मटियानी -
व्यक्तित्व और कृतित्व' - डा. उर्वीश चंद्र मिश्र, 'शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन' - डा. सुरेश चंद्र रस्तोगी, 'शैलेश मटियानी के आंचलिक उपन्यासों का मूल्यांकन' - डा. मालती तिवारी, 'शैलेश मटियानी की कहानियों में अंकित दलित जीवन: एक विशेषणात्मक अध्ययन'
- चेतना राजपूत, 'शैलेश मटियानी के आंचलिक
उपन्यास' - प्रेमकुमारी सिंह
संपादन :
जनपक्ष,
विकल्प
कविताएँ :
गीत और कविताएँ ज्ञानोदय धर्मयुग
आदि में प्रकाशित
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