Monday, October 20, 2014

स्वयं को सम्बोधित राग का मित्रवत चेहरा


अमीर खाँ : स्वयं को सम्बोधित राग का मित्रवत चेहरा
- यतीन्द्र मिश्र

अमीर खाँ जैसे अनूठे गायक के बारे में कभी भी कोई बात पूरे तौर पर मुकम्मल नहीं कही जा सकती. एक संगीत प्रेमी होने के नाते कम से कम मेरे जैसे व्यक्ति के लिये अमीर खाँ और उन जैसे तमाम फनकारों के बारे में कुछ भी सरलीकृत करके कहना काफी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि इस बात का खतरा हमेशा बना रहता है कि ऐसे लोग मात्र अपनी कला के प्रति आस्था या रियाज़ का प्रदर्शन भर नहीं कर रहे होते वरन् वे कला से परे जाकर चिन्तन के कुछ ऐसे मौके भी तलाश लाते हैं, जहाँ से फिर उनके फन की या उनके वैचारिक कला-प्रदर्शन की दुनिया में व्याख्या के ढेरों दरवाज़े बड़ी आसानी से खुलते दिखाई पडऩे लगते हैं. संगीत में जिस 'उपज' की स्थिति को हम शताब्दियों से खँगालते चले आये हैं, उनका सबसे व्यावहारिक पक्ष हमें अमीर खाँ जैसे प्रबुद्घ गायक की अदायगी में बार-बार सृन्जित होता महसूस होता है.

परम्परा से दूर और परम्परा के साथ दोस्ताना निभाते हुए, घर और घरानेदारी से अप्रतिहत रहते आये और राग और शास्त्र के अन्तरालाप में कुछ सेंधमारी करने की प्रवृत्ति का सबसे उल्लेखनीय रूप हम अमीर खाँ साहब की गायिकी में पाते हैं. मुझे कई बार उन्हें सुनते हुए यह महसूस होता रहा है कि उस्ताद को समझने और उनकी सूक्ष्मताओं को पकडऩे में हम जितना दो कदम आगे बढ़ते हैं,दूसरी या तीसरी बार उसी राग को फिर से सुनते हुए अचानक ही कहीं तीन सीढिय़ाँ नीचे उतरकर ठिठके से खड़े, उनको फिर से पकडऩे की युक्ति में शामिल हो लेते हैं. मेरा आशय यह रेखांकित करने भर से है कि उनकी चिन्तनपरक गायिकी की व्याख्या उनके शिल्प कलाश्रम और अंदाज के अलावा उनके द्वारा चुने गये रागों और उनकी बन्दिशों के संयोजन के साथ भी अपना स्वरूप पाती है. बहुत सारे ऐसे मौकों पर, जहाँ हम किसी छोटी सूक्ष्मता को नज़रअन्दाज करते हैं अथवा हम हमारे विचार की परिधि में सहज ही नहीं आ पाते हम कहीं न कहीं उस समय अमीर खाँ जैसे सलोने गायक की सूक्ष्मता से अपनी पकड़ ढीली कर रहे होते हैं.

अमीर खाँ के लिए कोई एक राग कभी पूरी तौर से सम्पूर्ण नहीं है, न ही उनके द्वारा चुनी गयी बन्दिशों की आपसी संगति भी पारम्परिक ढंग से सुनी जाने वाली बन्दिशों की तरह बरती जाती है. इस अर्थ में वे शुद्घ शास्त्रीयता के पक्षधर होने के बावजूद एक हद तक परम्परा से स्खलित और स्वीकार ली गयी पद्घति से थोड़ा मतभेद पाले हुए कला साधक हैं.लीक से हटकर चलने वाले एक ऐसे कलाकार, जिसकी मिसाल यह है कि उनके संगीत को 'मुस्लिम-संगीत' या 'हिन्दू-संगीत' जैसे खाँचों में बाँटकर देखा ही नहीं जा सकता. एक ओर उनकी गायकी की उदारता 'जय माते विलम्ब तज दे' जैसी हंसध्वनि की बंदिश में आस्था की पराकाष्ठा पर पहुँचती है, तो दूसरी ओर 'इत्तिहादे मियाने मनो तो नेस्त मियाने मनो तो' जैसे तराने की अदायगी के समय पूरी सूफी परिवेश निर्मित करने में सक्षम, जिसका अर्थ ही है 'तुम और मैं इस तरह एक हैं, कि तुम्हारे और मेरे बीच कोई बीच नहीं है'. यहाँ अमीर खाँ हिन्दी और फारसी के बीच के साथ-साथ ईश्वर और अल्लाह के बीच का फासला भी निपटाते दिखाई पड़ते हैं. उनकी साधना में जैसे घर और घराना एक है, संगीत महज संगीत है, हिन्दू और मुस्लिम होने की चौहद्दी को लांघता हुआ, सबको एक करता.

उनके बारे में विचार करते हुए और अकसर उनकी बन्दिशों के सम्मोहन से निकलते हुए कई ऐसी बातें विचित्र ढंग से सामने आती हैं, जिनका शायद कोई आसान उत्तर ढूँढ़ पाना कम से कम मुझे सम्भव नहीं लगता. कुछ ऐसी चीज़े उनकी गायिकी के निर्झर से झरती हुई इस तरह शब्दों के प्रांगण में एकत्रित होती हैं कि उनकी असमाप्त गूँजों को किसी तराने या आलाप के अत्यन्त विरल अमूर्तन में बदल पाना उतना ही कठिन लगता है, जितना कि उनके गायन को सुनते हुए रागों के विस्तार को संयम और धीरज के साथ समझ पाना. एक चीज़ जो हें उनकी गायिकी में सर्वाधिक चकित करती है, वह 'नाद' की अवधारणा को पूरी हार्दिकता से उनके द्वारा आत्मसात करने की प्रक्रिया है. उनकी अतिविलम्बित गायिकी में जगह-जगह 'पॉज़' का आना, उस 'मौन' के मुखर होने का सूचक है, जो बन्दिश में आगे आने वाली ध्वनि, शब्द एवं लय को एकबारगी समवेत अर्थों में प्रभावशील बना डालता है. उस अन्तर्नाद की तरह, जो परम्परा और कहानियों में एक योगी के जीवन व्यवहार की तरह दिखाई पड़ती है. शायद इसी कारण बहुतों को अमीर खाँ साहब का गायन अन्तर्मुखी किस्म का गायन भी लगता है.

जनसम्मोहिनी, मारवा, हंसध्वनि, रामदासी मल्हार, शहाना, विलासखानी तोड़ी, मुल्तानी और नन्द जैसे रागों को एक बड़े आलाप-वृत्त में आमंत्रित करते हुए उस्ताद अमीर खाँ अपने गायन से उपजे अपार दुख को इस तरह बरतते हुए व्यक्त करते हैं, लगता है जैसे एक बड़े सफेद कैनवास पर बार-बार लौटकर एक ही रंग को कई तरह से लगाते हों और हर दफा वह रंग पहले से कुछ बदल जाता है, पहले से कुछ अधिक खुला और विस्तृत दिखने लगता है. एक रंग से पैदा होने वाली छोटे-छोटे रंग-समूहों क एक बड़ी दीपशिखा, जैसे कई छोटे-छोटे उपज से आकार लेता हुआ असंख्य प्रश्नों और उनके धैर्यपूर्ण समाधान से बना हुआ राग का मित्रवत चेहरा. यही चेहरा और काले शेरवानी में कैद अमीर खाँ का गाता हुआ वजूद हमें आज भी बन्दिशों की झिलमिल से झाँकता नज़र आता है.


एक ऐसे समय में, जब संगीत और शोरगुल में भेद कर पाना मुश्किल होता जा रहा है, जब रागों की शुद्घता और सुरों की मिलावट में आसानी से फाँक ढूँढ पाना काफी मशक्कत का काम हो चला है. उस वक्त, उस्ताद अमीर खाँ साहब के जन्म-शताब्दी वर्ष में उनके द्वारा गाये हुए रागों की शास्त्रीयता, घरानेदारी में परम्परा से मुठभेड़ तथा स्वयं उनकी दुर्लभ वैचारिक अद्वितीयता सभी कुछ संजोने और स्मरण करने के लिहाज़ से समकालीन अर्थों में आज़ भी बेहद प्रासंगिक जान पड़ती है. यदि अमीर खाँ साहब न होते, उनकी तरह की स्वयं को सम्बोधित गायिकी न होती तो आज इतनी सम्पन्न हंसध्वनि और जनसम्मोहिनी भी न होती, सौभाग्य से जितनी वह है. एक ऐसा गायक, जो अमीर खाँ जैसा किरदार रखता है, कई और शताब्दियों के लिए भी उतना ही समकालीन रहेगा, कि आज है.


('पहल' - 91 से साभार)

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