Monday, October 20, 2014

चढ़ा है मीर बिसातों के मुंह पे रंग अनूठ - नज़ीर अकबराबादी की दीवाली – ४


(कल की नज़्म का बाकी बचा हिस्सा पेश है)

हुआ मिलाप सभों का गयी दिलों की रूठ
हर एक हाथ लगे दांव आने सच और झूठ
चढ़ा है मीर बिसातों के मुंह पे रंग अनूठ
सुल्लियाँ फेंकते हैं और कहे हैं नक्की मूठ
कि जिसके शोर से घर भर गया दिवाली का

मकाँ लीप के ठिलिया जो कोरी रखवाई
जला चिराग़ को, कौड़ी वह जल्द झनकाई
असल ज्वारी थे उनमें तो जान सी आई
खुशी से कूद उछल कर पुकारे ‘ओ भाई’
“शगुन पहले करो तुम ज़रा दिवाली का”

शगुन की बाज़ी लगी पहली बार गंडे की
फिर उससे बढ़के लगी तीन चार गंडे की
फिरी जो ऐसी तरह बार बार गंडे की
तो आगे लगने लगी फिर हज़ार गंडे की
कमाल निर्ख लगा फिर तो आ दिवाली का

किसी ने घर की हवेली गिरू रखा, हारी
जो कुछ भी जिस मयस्सर बना बना हारी
किसी ने चीज़ किसी की चुरा छुपा हारी
किसी ने गठरी पड़ोसन की अपनी ला हारी
यह हार जीत का चर्चा पड़ा दिवाली का

किसी को दांव पे ला नक्कीमूठ ने मारा
किसी के घर पे धरा सोख्ते ने अंगारा
किसी को नर्द ने चौपड़ के कर दिया ज़ारा
लंगोटी बाँध के बैठा इज़ार तक हारा
यह शोर आ के मचा जा बजा दिवाली का

किसी की जोरू कहे है पुकार “दे भडुवे”
बहू की नौगरी बेटे के हाथ के खडुवे
जो घर में आवे तो सब मिल के कहें सौ घडुवे
निकल तू यां से तेरा काम नहीं यां भडुवे
खुदा ने तुझको तो शुहदा किया दिवाली का

वह उसके झोंटे पकड कर कहे है मारूंगा
तेरा जो गहना है सब तार-तार उतारूंगा
हवेली अपनी तो एक दांव पर मैं हारूंगा
यह सब तो हारा हूँ खंदी तुझे भी हारूंगा
चढ़ा है मुझको भी अब तो नशा दिवाली का

तुझे खबर नहीं खन्दी यह लत वह प्यारी है
किसी ज़माने में आगे हुआ जो जुआरी है
तो उसने जोरू की नाथ और इज़ार उतारी है
इज़ार क्या है कि जोरू तलक भी हारी है
सुना यह तूने नहीं माजरा दिवाली का

जहां में यह जो दिवाली की सैर होती है
जो ज़र से होती है और जार बगैर होती है
जो हारे उनपे खराबी की फैर होती है
और उनमें आन के जिन जिन की खैर होती है
तो आड़े आता है उनके दिया दिवाली का

यह बातें सच हैं, न झूठ इनको जानियो यारो
नसीहतें हैं इन्हें दिल से मानियो यारो
जहां को जाओ यह किस्सा बखानियो यारो
जो जुआरी हो न बुरा उसका मानियो यारो

नज़ीर आप भी है जुआरिया दिवाली का.

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