(पिछली क़िस्त से आगे)
आज भी इस शहर के पुल और सड़कें बहुत
धीमी-धीमी हैं. इन पुल और सड़कों पर चहलकदमी करते हुए लगता है कि आप नाव पर सवार
हैं, नाव नदी में तैर रही है और नदी में भरपूर पानी है. धीरे-धीरे यह अनुभव, एक
समय की बात है, जैसा अनुभव लगने लगा है. पहले ५०० साल पुरानी बातें वाकई पुरानी
लगती थीं. अब पचास साल भी बहुत पुराने, पुरातत्व की तरह लगते हैं. जैसे हिरन
छ्क्लांग मार रहे हों, गहरी उमंग में, समय के कांटे पर और अंततः ढेर हो जा रहे
हों. तब गंगा और यमुना के पुलों के नीचे अथाह पानी था. छपाक-छपाक की आवाज़ आती थी.
संगम से दो किलोमीटर दूर कोई तैराक बलुआघाट से नदी में छलांग लगाता तो छपाक आवाज़
साफ़ सुन आती थी. नाव पर चलो तो चप्पू दूर तक पानी से लड़ते सुने जा सकते थे. चप्पू
नाविक के वाद्य थे जिन्हें वह अपने फेफड़ों के तारों से बजाता था. ध्वनियाँ कान से
टकराकर शरीर के कुएँ के सबसे निचले तल तक पहुँचती थी और गूंजती थीं. फिर धीरे-धीरे
इलाहाबाद की घास सूखने लगी जुर नदियों क्र किनारे रेतीला कछार फैलने लगा था. तब
निराला ने लिखा :
श्वेत
निर्झर बह गया है
रेत
ज्यों तन रह गया है
इस गीत में सिकुडती हुई नदी का
किनारा भी है और निराला के जीवन का किनारा भी. इधर जब निराला को लम्बी छूट के बाद
फिर से पढ़ना प्रारम्भ किया तो मुझे लगता है कि आधुनिक हिन्दी कविता की परम्परा की
जांच-परख के लिए यह उचित नहीं है कि मुक्तिबोध से प्रारंभ किया जाए. पहले निराला
को रखना होगा, और वहां से मुक्तिबोध तक आना होगा और फिर आगे तक. कुछ लोगों ने
दुस्साहस किया और महादेवी से विनोदकुमार शुक्ल ताल आ गए. इसके पीछे विकट पोल वॉल्ट
है यह आलोचना का नव्यतम चेहरा है.
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