Friday, November 7, 2014

ज्ञानरंजन का इलाहाबाद – ४


(पिछली क़िस्त से आगे) 

बहरहाल भारती ने अपनी उद्दाम वासना और प्रणय से इलाहाबाद को एक ख़ास आईने में एक शक्ल की तरह, पिंजरे में एक पक्षी की तरह और दिल में एक ग़ज़ल की तरह बचाने की कोशिश की थी. पर वे धीमे धीमे मरते, बदलते, धूमिल और विदा होते मरीज़ की शैया के किनारे अपनी प्रार्थना कर रहे थे. प्रार्थना के लिए यह शिल्प नहीं, और अंत में प्रार्थना. इस मरीज़ की हालत को निराला बहुत पहले पहचान चुके थे :

 अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा

निराला की देह एक विशाल पुरुष-देह की तरह आसमान तक खींची लगती थी. पैर ज़मीन पर और मस्तक आसमान पर. लेकिन यह उनका एक पक्ष है. भीतरी तौर पर वे एक कोमल स्त्री की तरह थे जो नदी में छलांग लगा कर गहरे डूब गयी है. कविता और गीत का यह अद्भुत संतुलन निराला में था जो बाद में कई तरह से जीवन असंतुलन में बदल भी गया. निराला की कविताएँ इस तरह समाज की मीनारों और उसके ध्वंस से उत्पन्न होती हैं. उसमें गुनाहों के देवता का रूमानी उच्छ्वास, देवदासियनपना या दिल-ही-दिल नहीं है.

निराला से हम बहुत डरते थे. हम उनके पास कम जाते थे और सहमकर जाते थे. हमारे कई गहरे दरागंजी दोस्त थे जो नाव चलाते थे, गंगा नहाते थे, जलेबी खाते थे और निरालाजी के पड़ोसी थे. उन्हीं के साथ हमारी हिम्मत पडती थी. निराला के सामने स्टूल पर एक बड़ा प्याला होता था, जिसे प्याला नहीं चषक कहना चाहिए. अंतिम सालों में ही मैं उनसे तीन-चार बार मिला. एक बार उन्होंने हमारी कैम्पस पत्रिका के लिए एक कहानी हिन्दी और अंग्रेज़ी में मिलीजुली, जी टीवी की ख़बरों की तरह डिक्टेट की. स्व. बद्रीनाथ तिवारी हमारे साथ थे. इस बात को किसी नारे के रूप में न लिया जाए कि निराला की विशाल पीठ के पीछे एक चीड के खोखलनुमा रैक में तीन किताबें हुआ करती थीं. एक रामचरित मांस, एक मार्क्स की दास कैपिटल और शेक्सपीयर का एक खण्ड. निराला के भीतरी तहखानों में जाना और निकल आना एक असंभव काम है. वहां भटकते-भटकते गुम जाने और मर जाने तक की नौबत हो सकती है.

हम महादेवी की तरफ़ नहीं जाते थे. वे ठाठदार इलाके में रहती थीं. हमारे रास्ते में थीं पर विद्यापीठ के प्रति वैराग्य था और श्रीनाथ सिंह महादेवी विवाद के कारण, जो चलता ही रहता था, हम तय नहीं कर पाते थे कि किधर रहें. इस विवाद में सच्चाइयों के अलावा झक और मारधाड़ जैसी वास्तु भी कारगर थी. महादेवी के कई अत्यंत कलात्मक लिपि में लिखे और काफी स्निग्ध पत्रों के बावजूद जो मेरे पिता की फ़ाइल में थे, हमें महादेवी के प्रति उत्सुकता नहीं थी. उनकी विद्यापीठ की इमारत और लोहेवाला फाटक हॉरर फिल्म की लोकेशन लगती थी. बाद में महादेवी ने अशोकनगर में खूबसूरत मकाँ बनाया जहां पशु-पक्षी अधिक रहते थे. बहरहाल महादेवी के भाई निराला की कुछ और कविता पंक्यियों में चर्चा करके हम इस प्रसंग को समाप्त करेंगे.

प्रियतमा और निरुपमा से बिलकुल भिन्न निराला की एक कविता की पंक्तियों को बहुत उद्धृत किया गया है. इस कचूमर को हटाकर आइये हम निराला की इन पंक्तियों के भीतर-बाहर जानने का प्रयास करें.

(जारी)

No comments: