(कल से जारी)
पिकासो की कृति 'वूमैन विद फैन' |
6. आख़िरी
मादा
ज़िंदा
नालों की सांस बसी है
रौशनी
में गुलाबों की,
गजब
खिड़कियां हैं देखो
इस
बदनाम ईमारत की,
सजा
हैं हड्डियों पर मांस
चमकते
शीशों के पीछे ,
टंगे
हैं बदन कई
धुले
बालों के नीचे,
लिपटी
है हर होंठ से
बिगड़े
साम्राज्यों की औलाद,
हर
स्राव से उठती है रह रह
न
मरने की वास
नाम
की तख्ती से
तारीख़
दी गयी हैं मिटा,
तारीख़
की किताबों से
नाम
हो गए हैं फना,
लुटो
और लूटो, खूब
कहते
हैं अशआर,
हर
हवस बिकाऊ है यहाँ
हर
भूख ख़रीदार
रंग
लगी आखें
ओढ़
के रिसती है करुणा,
कलफ
लगी पलकें
तोड़
के घिरता है अँधेरा,
गुलकार
बस्तों में खोंस टूटा सर्वांग,
छिपी
जेबों से निकलती है
कतरी
हुई ज़ुबान,
कांख
कांख कर
स्याह
रातों को,
चखाती
है
सय्यादों
का गोश्त,
तुम्हीं
खा लो इन्हे, तो टूटे
इन
मरे सायों का तिलिस्म
फाड़
डाले
अपनी
ही गन्दगी
बदबूदार
हवा का नासूर,
बहते
मवाद की राह
तैर
कर निकल जाये
यह
आख़री मादा,
तख्ती
पटक
कांच
तोड़,
मरे
नालों की सांस से परे
आदम-औ-
हव्वा की
बची
खुची औलाद,
टूटी
टाँग
टूटे
दांत
टूटे
हाथ लिए,
एक
नयी नाव की आस में
इस
डूबती हैवानियत से दूर
7. मोटी औरत
जिसकी
गर्दन बँट रही है
टैलकम
पाउडर की लकीरों से,
कलफ़
लगी हरी साड़ी में लिपटी, दिन चढ़े
पोंछती
है पसीना चेहरे का, फाउंडेशन लगा,
खरीदती
है सड़क से सूती रुमाल
दस
रूपये में चार,
वो
मोटी औरत
जिसे
नहीं पता
कब
लड़की से आंटी, आंटी से माताजी हो गयी,
रिक्शे
वाला भी पूछता है आँख भर कर जिससे
'भार होगा, तो दाम
बड़ा लगेगा न माई'
जिसके
टखनों में कालिख है
घिसी
हुई पाजेब की,
छिपाती
है बिवाई, छितरी हुई
चप्पल
में डॉक्टर शोल की,
वो
मोटी औरत
जिसने
पान मसाला खाना शुरू नहीं किया अब तक,
गुडगाँव
शहर में मॉल के बाहर
कर
रही है इंतज़ार
जवान
बेटी का,
जिसे
ले जा कर अंदर
देखेगी
सजता हुआ,
अपने
आप से बिलकुल अलग
जिसे
थोड़े ही समय के लिए
घर
में रुक जाना था,
जिसके
बढ़ते बच्चों को
अंग्रेज़ी
मीडियम किताबों में डूब जाना था
और
उसे वापस दफ़्तर निकल जाना था,
वो
मोटी औरत
जिसके
काम बंद कर चुके अंग
उगल
रहे हैं आग,
हर
महीने, तेईस तारीख से सत्ताईस तक
उसे
निचोड़ने के बाद,
लोटती
है, टाइल लगे ठंडे फर्श पर,
ग्रुप
हाउसिंग के बंद मकानों में
हर
दोपहर, अकेली
अट्ठारह
साल बाद
जिसके
सर की मांग के दो पार
उभर
रही हैं लकीरें सफ़ेद रंग की सपाट,
मारती
है रंग वो हर उगते नयेपन पर अपने
काला
और खुशबूदार,
वो
मोटी औरत
जो
चिपचिपी कंघी से काढ़ती है बाल,
सजती
है चाय की प्याली में
गरम
पोहे के साथ,
जिसे
देख कर खुश होता है तैंतीस साल पुराना
दफ़्तर
से लौटा
अफ़सरनुमा
अजनबी हर शाम
जिसकी
हिलती खाल पर खिंच गए हैं
लिसड़ती
उम्र के नाखून,
जो
कपडे उतारती है, दरवाज़े के पीछे
अपनी
ही नज़र बचा कर हर रात,
वो
मोटी औरत
देती
है अपनापन
उस
चुने हुए अजनबी को,
बत्ती
बुझा कर
चादर
में छुप कर,
मांगे
जाने पर, कभी कभार
8. प्रतिरोध
तुम्हारे
जूते चल रहे हैं
हाथ
पर मेरे,
मैं
चिल्लाना चाहती हूँ,
चिल्लाती
हूँ ,
डर
जाती हूँ
आतंकित
तो नहीं हो गए तुम ?
मेज़
पर मेरे सामने
बैठा
है, एक बच्चा
पैर
झुलाता
खुजली
मचाता उँगलियों पर
निडर,
"लकड़ी के पटरे पर खड़े होने के लिए
जलती
हुई पेन्सिल पर घिसने के लिए
आ गया
हूँ मैं !"
मिला
रहा है शकल
उसका
मुहं, मेरे हाथ से,
आज
नहीं तो कल
उसका
गुस्सा लिखेगा मुझे,
सूरज
सा जलता,
पानी
सा बुझता
उलट
कर गिरता है
कुर्सी
से,
पहुंचता
है लगा कर कलाबाजी,
डालता
है जूते में तुम्हारे, पाँव अपना
छोटा
सा,
रुक
जाती है एक क्षण को
तुम्हारी
धार,
चिल्ला
देते हो तुम भी
मेरे
साथ,
खिलखिला
के हँस देता है
मेरा
हाथ
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