Thursday, December 11, 2014

कवि होने का अर्थ - अदूनिस



(जारी)

४.

कवि होने का अर्थ हुआ कि मैं पहले ही लिख चुका हूँ लेकिन यह कि दरअसल मैंने कुछ लिखा ही नहीं. कविता बगैर शुरुआत और अंत का एक कार्य है. वह एक आरम्भ का वायदा है, एक सतत आरंभ.

होने का अर्थ हुआ कुछ मायने रखना. मायने केवल शब्दों के माध्यम से पकड़ में आते हैं. मैं बोलता हूँ – इसीलिये मैं हूँ. इस तरह और इसके बाद ही मेरे होने का कोई अर्थ बनता है. इस दूरी और उम्मीद के माध्यम से ही अरब कवि बोलने का प्रयास करता है यानी लिखना और शुरू करना.

लेकिन जिन दो निर्वासनों का मैंने ज़िक्र किया है, क्या उनके दरम्यान किसी तरह का आरम्भ वाक़ई संभव है?

और, हर चीज़ से पहले, क्या होता है ऐसा आरम्भ?

मैं यह सवाल पूछ रहा हूँ ताकि मैं घुमा फिराकर इसका यह कहकर जवाब दे सकूं कि अरबी भाषा शुरुआत से ही एक ऐसे आरम्भ को स्थापित करने का सतत प्रयास थी और है जिसे स्थापित किया ही नहीं जा सकता क्योंकि उसकी स्थापना असंभव लगती है.

और चूंकि अपनी परिभाषा के हिसाब से कविता उपस्थिति के पक्ष में रहती है, इसलिए अरब कवि एक संभव बुनियाद के भ्रम  के भीतर न तो जीवित रह सकता है न ही लिख सकता है. इस तरह एक अरब कवि अपने जीवन और अपनी भाषा में स्वतंत्रता और लोकतंत्र को भ्रम की तरह बताता है.

मैं ‘भ्रम’ कह रहा हूँ क्योंकि स्वयं जीवन स्वतंत्रता और लोकतंत्र से पहले आता है. मैं जीवन की बाबत कैसे लिख सकता हूँ जब मुझे मैं होने से ही रोका जाता है, जब मैं जी ही नहीं रहा, न अपने भीतर न अपने लिए, जब मैं “दूसरे” के लिए भी नहीं जी रहा?

अपने पश्चिमी काउंटरपार्ट के बरखिलाफ़ अरब कवि की स्वतंत्रता के साथ जुड़ी समस्या न तो अपने व्यक्तित्व का भान होने में है न ही लोकतंत्र और मानवाधिकारों की आंशिक या सम्पूर्ण अनुपस्थिति में. दरअसल यह समस्या जहां है वह बहुत गहरी, सुदूर और जटिल है क्योंकि एक विडम्बना के तौर पर वह खासी साधारण है. यह समस्या आदिम और मूलभूत चीज़ों में निहित है. वह मनुष्य के शुरुआती निर्वासन में, संघटक तत्वों और उनसे निर्मित वस्तु में और आदेशों और प्रतिबंधों के “नहीं” में निवास करती है. यह “नहीं” न केवल संस्कृतियों की रचना करता है, मनुष्य और स्वयं जीवन भी इसी से निर्मित होते हैं.

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